प्रसंगवश - बिसराए हुए बन्धु तो नहीं यजीदी!
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प्रसंगवश – बिसराए हुए बन्धु तो नहीं यजीदी!

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Oct 11, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Oct 2014 14:11:02

यजीदी : मध्यपूर्व में हिन्दुओं की एक गुमशुदा जाति

मोर-गरुड़ की पूजा, माथे पर टीका और दीप जलाने का उत्सव यह दृश्य आपको विश्व के किसी भी कोने में दिखलाई पड़े तो आपके मुंह से यह चीख निकल पड़ना स्वाभाविक है कि यह तो सब मेरे देश भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। यदि यह सब हिन्दुस्तान और हिन्दू समाज का अंग है तब तो उन लोगों के प्रति संवेदना प्रकट करना हमारा धर्म हो जाता है। उस क्षेत्र के सात लाख लोग जिन्हें यजीदी कहा जाता है और वे मौत और जीवन के बीच झूल रहे हैं, उन्हें हिन्दुस्तान नहीं बचाएगा तो फिर उनकी रक्षा कौन करेगा?
अलबगदादी की खिलाफत इन दिनों मध्यपूर्व में मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा बनी हुई है। इसलिए अमरीका सहित दुनिया के सभी बड़े देश इस खिलाफत का विरोध कर रहे हैं। इस क्षेत्र के कट्टरवादी फिर से उसमानी खिलाफत की स्थापना का सपना देख रहे हैं। मध्यपूर्व की धरती केवल दुनिया के इन तीन बड़े धर्म यहूदियत, ईसाइयत और इस्लाम के ही जन्म की धरती नहीं है बल्कि इनके अतिरिक्त भी असंख्य विचारधाराएं और समाज वहां पर जन्म लेते रहे हैं। इन धर्मों के अस्तित्व में आने से पूर्व भी वहां असंख्य देवी देवताओं की पूजा अर्चना पारम्परिक रूप से हुआ करती थी। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की संस्कृति से लगाकर सनातन धर्म तक का प्रभाव सदियों से दुनिया के दूरगामी क्षेत्रों में आज भी देखने को मिलता है। अरब संस्कृति से प्रभावित क्षेत्रों में हुबल, सफा, नाइला और इज्जा जैसे देवी देवताओं का ही नहीं बल्कि अर्द्ध नारीश्वर के रूप में भी इन देवताओं का अस्तित्व था। इतिहास के प्रारंभिक काल का जब अध्ययन किया जाता है तब यह समझते हुए देर नहीं लगती कि वहां का वातावरण भी वही था जो कभी भारत में विद्यमान था।
हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म माना जाता है लेकिन उसके जन्म के पश्चात भी अनेक विचारधाराएं इन दोनों भूभागों में समय-समय पर पैदा होती रही हैं। समय के प्रवाह में इनमें से कुछ जीवित रहीं और कुछ नष्ट हो गईं। उस पूर्व ऐतिहासिक काल की अनेक बातों का उल्लेख इन तीनों धर्मों की आसमानी किताबों में भी किसी न किसी रूप में मिलता है, इसलिए इस तथ्य को स्वीकार करना ही पड़ता है कि लाखों मील की दूरी के बावजूद मानव सभ्यता में ऐसे अनेक तथ्य उपलब्ध हैं जिनके माध्यम से यह कहा जा सकता है कि भारतीय सभ्यता और मध्यपूर्व की सभ्यता में असंख्य समानताओं के समानान्तर प्रवाह मौजूद थे। यज्ञ का संचालन और मार्गदर्शन करने वाला ब्रह्मा के रूप में पहचाना जाता था। यज्ञ सम्पन्न कराने का दायित्व निभाने वाले को यहां यजदी कहा जाने लगा जो समय के साथ एक पूरे वर्ग का नाम पड़ गया। यही आज की यजीदी जाति कहलाती है। कालांतर में मुआविया के पुत्र यजीद ने इमाम हुसैन को शहीद कर दिया जिसकी सेना यजीदी कहलाई। प्राचीन यजदी शब्द तो समय के साथ भुला दिया गया लेकिन यजीदी प्रवृत्ति के घिनौने कार्यों पर पर्दा डालने के लिए इस भोली भाली जाति का नाम यजीदी कर दिया गया। शिया मुसलमान इनको इमाम हुसैन का कातिल समझकर उनका कत्लेआम करने लगे। इस प्रकार एक हिन्दू समाज को अपनी हीन हरकतों पर पर्दा डालने के लिए यजीदी कहकर उनसे प्रतिशोध लिया जाने लगा। वास्तविकता यह है कि यह जाति प्राचीन हिन्दू समाज में यज्ञ सम्पन्न कराने का काम करने वाली-समाज की प्रतिष्ठित जाति थी। यजीदी नाम देकर आज तक भूतकाल के इन हिन्दुओं पर अत्याचार किये जा रहे हैं।
पिछले दिनों मध्यपूर्व के अनेक देशों में भीषण युद्ध की लपटें एक बार फिर से उठती हुई दिखलाई पड़ीं जिसके फलस्वरूप सीरिया, इराक और उनके निकट बसे इजराइल और फिलस्तीन भी सुलगने लगे। युद्ध की ज्वाला में इस बार आईएसआईएस नामक आतंकवादी संगठन ने ऐसा कहर बरपा दिया कि विश्व की महाशक्तियां भी विचार में पड़ गईं। मजहबी जुनून की आंधी ने अपने जैसे ही इंसानों का कत्लेआम शुरू कर दिया। शिया और सुन्नियों को तो बसाने के लिए इस्लाम के समर्थक अपना शक्ति प्रदर्शन करने लगे। चुन-चुनकर उन लोगों को मारा जाने लगा जिनका संबंध इस्लाम से नहीं था। चूंकि वे न तो इस्लाम के अनुयायी थे और न ही ईसाइयत के समर्थक, तब सवाल पैदा हुआ कि अंतत: वे लोग कौन हैं?
कखोजी लोगों ने इस पर अपना ध्यान केन्द्रित किया तो यह जानकर सभी आश्चर्य में पड़ गए कि यह समुदाय कोई और नहीं बल्कि इसी क्षेत्र में अति प्राचीन समय से रहने वाले हिन्दू धर्मियों का ही एक अंग है। उनके रीतिरिवाज और पूजा पद्धति तथा खानपान की ओर जब लोगों का ध्यान आकर्षित किया गया तो स्पष्ट रूप से इसके असंख्य सबूत मिले और एक स्वर में जानकार लोगों ने कहा कि ये तो प्राचीन समय के वे ही लोग हैं जिनके हिन्दू धर्मी आज करोड़ों की संख्या में भारत और विश्व के अन्य देशों में रहते हैं। खलीफा बगदादी का एकमात्र लक्ष्य यह था कि इन हिन्दुओं को धर्मान्तरित करके इस्लाम में शामिल कर लिया जाए। बाद में उनके हाथों में हथियार देकर उन्हें जिहाद के लिए तैयार कर लिया जाए। वे अपने आप को यजदी कहते हैं और आज भी प्रकृति को मूर्ति के रूप में ढालकर उसकी पूजा अर्चना करते हैं। इस आश्चर्यजनक जानकारी के पश्चात अनेक दैनिकों ने इस यजदी समाज के विषय में खेाज कर अनेक सनसनी पूर्ण रहस्यों का उद्घाटन किया। एक जानकारी के अनुसार उनकी संख्या सात लाख से भी अधिक बतलाई जाती है। उनका अपना भरापूरा समाज है, रीतिरिवाज और पूजा पद्धति है। जब इस क्षेत्र के खेाजी विद्वान यहां पहुंचे तो वे एक ही परिणाम पर पहुंचे कि ये कोई और नहीं बल्कि हिन्दू समाज और सनातन धर्म विश्व के सबसे प्राचीन धर्म को मानने वाले हैं। बौद्ध संस्कृति का भी इन पर गहरा प्रभाव है। लेकिन असलियत यही है कि बुनियादी रूप से वे हिन्दू जाति का वही अंग हैं जिनकी आबादी अरबों की संख्या में आज भी भारत में मौजूद है।
बगदादी और उसकी खिलाफत के समर्थक इन दिनों इराक के कुर्दिस्तान क्षेत्र में क्या कर रहे हैं इसका पता लगाना कठिन नहीं है, लेकिन इन सभी की इच्छा है कि उन्हें इस्लाम में धर्मान्तरित करके जिहादियों की फौज बना ली जाए। इन निहत्थे यजदियों पर जिस समय अत्याचार के कहर ढाये जा रहे हैं और उनको धर्मान्तरित करके अपना सैनिक बल बढ़ाने की नीति निर्धारित की जा रही है उस समय दुनिया के तटस्थ बुद्धिजीवियों और भारत में हिन्दुत्ववादी आन्दोलन से जुड़े लोगों का यह दायित्व हो जाता है कि प्राचीन समय से चले आ रहे हिन्दुओं की रक्षा के संबंध में विचार विमार्श करें। भारत को यह मामला राष्ट्रसंघ में उठाना चाहिए। दुनिया के सबसे बड़े हिन्दू राष्ट्र का यह कर्तव्य है कि वह उनकी आस्था की रक्षा करे।
यज्ञ उनके जीवन का महत्वपूर्ण संस्कार था इसलिए वे यज्ञ करने वाले यज्ञदी के नाम से ही प्रसिद्ध हुए। सीरिया के इस क्षेत्र में आज जाकर देखेंगे तो हवनकुंड की भरमार दिखलाई देगी। शायद ही कोई बस्ती हो जिसके पास यज्ञ के स्थान की व्यवस्था न हो। वे उत्तरी इराक के निवेव जिसका शुद्ध नाम निवेवेह है, उसके राज्य सिंजर की घाटी में बसे हुए हैं। यहां के जिहादियों का इन पर आरोप है कि वे मूर्तिपूजक हैं इसलिए इस्लाम उनकी हत्या की आज्ञा देता है। आज भी इन यज्ञवादियों के मंदिरों की दीवारों पर इस प्रकार के दीयों का चित्र है जो किसी स्टैंड पर लगाए गए हों। भारत के दीपस्तंभ से ये मिलते जुलते हैं।
इन पर मोर और गरुड़ के चित्र हैं। ललिश स्थित यज्ञवादियों का एक मंदिर जो भारतीय मंदिरों के आकार का है, वह आज भी वहां देखा जा सकता है। त्रिकोण आकार के मंदिर नीचे से चौड़े हैं जो ऊपर जाते हुए अंत में बिलकुल एक हो जाते हैं। उन पर ध्वज पताका फहराई जाती होगी यह स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। भारत के सामान्य मंदिरों के ही आकार प्रकार का यह मंदिर है। इनकी महिलाएं साड़ी धारण करती हैं और सर खुला रखती हैं। मोर और गरुड़ दोनों ही सीरिया और इराक की जलवायु के पक्षी नहीं हैं, इसलिए यह कल्पना करनी पड़ती है कि भारतीय जीवन पद्धति और हिन्दू विचारधारा का इन पर जबरदस्त प्रभाव है।
अब सवाल यह है कि हिन्दू संस्कृति के वाहक इन यजीदियों की रक्षा कैसे की जाए? इसके लिए राष्ट्रसंघ के अल्पसंख्यक आयोग का तो उत्तरदायित्व है ही लेकिन साथ ही भारत के हिन्दू संगठनों को और भारत सरकार को इस मामले में छानबीन करके अपने हिन्दू भाइयों को बचाने का प्रयास करना चाहिए। भारत जैसी शक्ति यदि उनके पीछे उठ खड़ी हुई तो निश्चित ही हम हिन्दुस्तान के लोग अपने समाज और संस्कृति की बहुत बड़ी सेवा कर सकेंगे। अच्छा यह हो कि विश्वविद्यालय स्तर पर इन यजदियों के संबंध में जांच पड़ताल और शोध किया जाए। न्यूयार्क टाइम्स ने इस संबंध में एक आलेख प्रकाशित किया है, हमारा निवेदन है कि उस पर चिंतन कर के कोई दिशा निश्चित की जाए। ल्ल

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