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प्रिय विरोधी राजनैतिक दलों के प्रवक्ता बन्धु,
विरोधी दल प्रवक्ता महापंचायत के हम संस्थापक सदस्य इस अनोखी संस्था में सम्मिलित होने के लिए आपका आह्वाहन करते हैं। हमें मालूम है कि आप भी हम संस्थापक सदस्यों की तरह आजकल निराशा और आहत अभिमान से जूझ रहे होंगे। चाहे किसी भी विरोधी राजनीतिक दल के प्रवक्ता हों, आप उसी हताशा का सामना कर रहे होंगे जिससे उबरने के लिए हमने यह संस्था बनायी है। राजनीतिक दलों के प्रवक्ता होने का गौरवमय अतीत अब एक द:ुखदायी यादभर बनकर रह गया है। अब तो हमारे मुंह खोलते ही लोग हंसना शुरू कर देते हैं। किसी दल का उपाध्यक्ष संसद में सो रहा हो, किसी प्रदेश में आग लगी हो और मुख्यमंत्री-नाचगाने में मस्त हो, कहीं दशकों से जानी दुश्मन एक दूजे को अपना लंगोटिया यार बता रहे हों, कोई मनुवादियों को गरियाते-गरियाते अचानक उनकी वंदना करने में जुट जाए , किसी के देशभक्त सैनिक अपने प्रदेश में दूसरे राज्यों से आये भारतीयों को विदेशी करार देने लगें, हमें सब कुछ उचित ठहराना पड़ता है। प्रवक्ता से विदूषक बन जाने का दुर्भाग्य हम सबका है। हम सभी की वही मजबूरियां हैं, वही नियति है। बदनीयतों को नेकी का मुखौटा पहनाना हमारा कर्तव्य बन गया है। हमारे मुंह खोलने से पहले ही सबको पता होता है कि हम क्या कहेंगे। माना कि हमारे अपने-अपने दलविशेष की नीतियों और घोषणापत्रों में अंतर है पर हमें तो राष्ट्रहित की बात पर, देश की विदेशनीति के सवाल पर, देश की अस्मिता और उसके संविधान के प्रश्न पर भी सरकार के हर कदम को गलत बताना होता है। विरोध के लिए विरोध करना एक हद तक चल पाता है, उसके बाद वह प्रहसन बन जाता है। हम कहां तक यह सब करें?
कभी वे सुनहरे दिन भी थे कि सारे प्रश्नों के मुंहतोड़ जवाब हम तय करते थे। समाचारों की सुर्खियां बनने वाली किसी घटना के होते ही मीडियाकर्मी संसद और विधान भवनों से बाहर निकलते हुए नेताओं के पास दौड़ते थे। अपने प्रश्नों के उत्तर में उन्हें केवल संक्षिप्त सा 'नो कमेंट्स' या 'कोई टिप्पणी नहीं' सुनने को मिलती थी और वे नेता अपनी जान मीडियाकर्मियों से छुड़ा कर भागते थे, क्योंकि पार्टी का आदेश होता था कि किसी महत्वपूर्ण घटना पर प्रतिक्रिया केवल हम व्यक्त करेंगे। तब मीडियाकर्मी भागे-भागे हमारे पास आते थे। बेश कीमती टीवी कैमरा और टेप रिकार्डर लिए वे जब अपने माइक हमारे मुंह के सामने लाने के प्रयत्न में एक दूसरे को धक्के देते थे, तो लगता था कि चातकों के झुण्ड में छीना झपटी चल रही हो कि आकाश से गिरने वाले मोतियों को कौन अपनी चोंच में पहले लपक सकेगा। फिर शान से हम हर सवाल का जवाब देते थे। पर अब पार्टी में जितने मुंह हैं, उतने जवाब होते हैं। बस जिन सवालों के जवाब दिए ही नहीं जा सकते टीवी चैनलों की बहसों में उनके जवाब देने को हमें भेजा जाता है। फिर हमारे पास यही रास्ता होता है कि तब तक कुछ भी अनर्गल बोलते रहो, जब तक एंकर मजबूर होकर हमारी आवाज का गला न घोंट दे। एक बार शुरू हो जाने पर चुप करना हमारे धर्म के विरुद्घ हो गया है।
जब हमारा दिल चीख-चीख कर कह रहा हो कि सीमा पर चलती गोलियों और बमों के साए में पाकिस्तान के साथ उच्चस्तरीय वार्ताओं का चलाये रखना कमजोरी का प्रतीक है, इसे बंद होना चाहिए तब भी हमारी जुबान को सरकार के ऐसे निर्णयों में खामी खोजनी पड़ती है। सत्ता में रहने पर हमारी अपनी सरकार जिन-जिन विषयों पर बिल पास करना चाहती थी अब उन्हीं बिलों पर हमें छाती पीटनी पड़ती है। स्वतन्त्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण की शैली ही नहीं, उनके दिए हर सुझाव का विरोध करना पड़ता है।
यहां तक कि सबके लिए शौचालय बनाने जैसे सुझावों में हमें दुर्गन्ध आती है। देश के विकास के लिए विदेशी पूंजी और तकनीक का आवाहन हमें गलत बताना पड़ता है, जब कि हमें अपने और अपनी अगली पीढ़ी के बेरोजगारी के सागर में डूबने से बचने का और कोई तरीका पिछले सड़सठ वर्षों से समझ में नहीं आया। कल तक जो हम स्वयं कहते थे, आज उस बात की प्रशंसा करना पाप है। हमारी किस्मत में सिर्फ यही लिखा है कि हम हर बात को काटें, हर उस कदम को गलत बताएं जो साफ-साफ देश के हित में हो।
आज इन सभी समस्याओं से हम सारे प्रवक्ता परेशान हैं। परिवारवादी, सामन्तवादी, जात-पात के नाम पर देश को टुकड़ों में बांटने वाली, घोटालों पर पर्दा डालकर चुप्पी का घूंघट ओढ़कर बैठ जाने वाली, दबंगई से सरकारी अफसरों से अपने जूते साफ करवाने वाली और उन्हें केवल तबादलों से सताने वाली नहीं बल्कि बाकायदा गाली देने, थप्पड़ लगाने की शानदार परम्परा वाली अपने-अपने दलों की नीतियों को हम कब तक सही ठहराते रहेंगे। आइये इन सब समस्याओं से एकजुट होकर लड़ने के लिए हम सब अपनी महापंचायत बुलाएं और मांग करें कि देश की अस्मिता और स्वाभिमान के हित में लिए गए सरकारी निर्णयों को खारिज करने के लिए कहा जाए तो उस दिन हमें आकस्मिक अवकाश लेने का हक दिया जाए।
-अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
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