महापराक्रमी स्कंदगुप्त
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महापराक्रमी स्कंदगुप्त

by
Sep 27, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 27 Sep 2014 15:04:02

मां की आज्ञा सुनकर महज एक क्षण में आल्हा और ऊदल ने अपने पिता के हत्यारे को क्षमा कर उसे बंधन मुक्त कर दिया, धन्य हैं ऐसे वीर सपूत।

पांंचवीं शताब्दी की बात है। भारत पर विदेशियों ने आक्रमण किया था। हूण, यवन, पल्लव और शक अपने-अपने लाखों सैनिकों के लिए हमारे देश की सीमा की तरफ बढ़ रहे थे। इन जातियों ने यूरोप और चीन को बुरी तरह हराया था और रोम साम्राज्य को टुकड़े-टुकड़े कर डाला था। अब वे भारत को अपने पैरों तले रौंदना चाहते थे।
सम्राट कुमारगुप्त उस समय भारत के शासक थे और स्कंदगुप्त उनके उत्तराधिकारी युवराज। स्कंद की आयु उस समय मात्र तेरह वर्ष की थी। उसने आक्रमण का समाचार सुना तो दौड़कर सम्राट् के मंत्रणा कक्ष में घुस गया। उसने देखा कि वहां युद्ध के विषय में वार्तालाप चल रहा है। स्कंद ने आगे बढ़कर कहा पिताजी मैं भी इस युद्ध में जाऊंगा। तुम? सम्राट ने कहा, तुम अभी बच्चे हो स्कंद! सम्राट कुमारगुप्त ने दृष्टि जमाकर स्कंद के मुखमंडल की ओर देखा। बाल-सुलभ कोमलता के साथ ही साथ वहां वीरता की दृढ़ता को भी देखकर वह गद्गद हो गए। पाटलिपुत्र से मगध के दो लाख सैनिक वीरोचित गाने गाते और गरुड़ध्वज को फहराते पंचनद की पहाड़ी सीमा की नदियों में अपना रक्त बहाने के लिए चल पड़े। उन दिनों देश में वीरों की कमी न थी। देश और धर्म, गाय और ब्राह्मण, स्त्री और बच्चों पर आपत्ति पड़ने पर उसे दूर करने के लिए माताएं अपने पुत्रों को, पत्नियां अपने पतियों को और बहनें अपने भाइयों को हंसते-हंसते रणक्षेत्र में शत्रुओं से लोहा लेने भेज दिया करती थीं। तभी तो मगध की सेनाएं उन दानव जैसी बर्बर जातियों से लोहा लेने के लिए इतने उत्साह और प्रसन्नता के साथ प्रस्थान कर रही थीं।
पर्वतमाला के पीछे मध्य एशिया की लंबी-चौड़ी मरुभूमि थी। जब तक हमारी राज शक्ति दृढ़ आधार पर स्थापित थी, मगध की सेनाएं इसी स्थान से देश की रक्षा किया करती थीं। , किंतु जब से उस शक्ति का आधार हिला, उसी मरु-भूमि से सैकड़ों-हजारों भूखे मरुवासी बार-बार हमारे देश को रक्तरंजित करने के लिए आने लगे। आज इस बर्फ से लदी हुई पर्वतमाला के उस ओर हूणों की सेनाएं पड़ी थीं। इस ओर की हरी-भरी समतल भूमि पर मगध की सेनाओं का पड़ाव था।
सूर्य उदय हो रहा था, उसकी किरणों ने पहाडि़यों की बर्फीली सफेद चोटियों को लाल कर दिया था। ठंडी पहाड़ी हवा के झोकों में अपनी सेनाओं के मध्य निश्चल और गंभीर से खड़े युवराज स्कंद ने यह दृश्य देखा। उसके शरीर पर लोहे का वर्म था और कटि में तलवार झूल रही थी। देखते ही देखते सामने के लाल पर्वत शिखरों पर काली-काली चींटियों के समान सैनिक भर गए। झनझनाती हुई स्कंद की तलवार म्यान से निकली और साथ ही युवरात स्कंद की जय की ध्वनि से पर्वतमाला गूंज उठी, उसे सुनकर आगे बढ़ते हुए शत्रुओं के घोड़ों की गति भी रुक गई। स्कंद के नेतृत्व में हूणों की उस सेना पर आक्रमण कर दिया गया।
पर्वत की श्वेत बर्फीली भूमि पर रक्त की नदियां बहने लगीं। सफेद घोड़े पर चढ़े कुमार स्कंद आज दानवों का दलन करते हुए साक्षात काल प्रतीत होते थे। उनकी तलवार विद्युत वेग से भी अधिक तीव्रता के साथ चलकर शत्रु सेना का विध्वंस कर रही थी। देखते ही देखते हूण सेना भागने लगी। भागते हुए उनके घोड़ों के खुरों से उठती हुई धूल से रणक्षेत्र में दिन में ही अंधकार सा छा गया। विजयी मगधी सेनाएं अब पाटलिपुत्र को वापस लौट रही थीं। महावीर स्कंद की अभ्यर्थना के लिए सारे आर्यावर्त के निवासी अतीव उत्साह से भर गए।
मार्ग के सभी गांवों और नगरों में बड़े-बड़े उत्सव मनाए गए। तक्षशिला, जालंधर, स्थाणवीरश्वर, मथुरा, कान्यकुब्ज और वाराणसी युवराज के स्वागत के लिए दीपमालाओं से जगमगा उठे और पाटलिपुत्र में वहां के नागरिकों ने नगर में पांच कोस तक विजय के तोरण बनवाए और मार्ग को पुष्पों से सजाया। नगर के प्रधान फाटक पर ही स्वयं सम्राट और प्रासाद के सिंहद्वार पर महारानी ने अपने महापराक्रमी हूण विजयी पुत्र का स्वागत किया और दूसरे ही दिन सम्राट कुमारगुप्त ने स्कंद को मगद के राज सिंहासन पर बैठाकर स्वयं धार्मिक वृत्ति धारण कर ली।

  बाल चौपाल डेस्क

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