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किसी तात्कालिक हेतु को लेकर जैसे-जैसे काम होता है,वैसे-वैसे मनुष्य स्वयं को एक छोटी सी दीवार के अंदर बंद करने लग जाता है। तब कार्य पंथ बनने लगता और अपने बाहर या समाज की ओर देखने की प्रवृत्ति कम होने लगती। लगने लगता है कि हमारा काम और उसकी आवश्यकताएं तो अपने स्वयंसेवकों से पूरी हो जाती हैं,तब बाकी की जनता से क्या करना है? ऐसी स्वाभाविक उपेक्षा-वृति उत्पन्न हो जाती है। यह अपने अकेले का दोष नहीं है,मनुष्यमात्र का दोष है। ऐसे कितने पंथ छोटी-छोटी दीवारों में बंद हो गए हैं। लेकिन ऐसा अपना नहीं होना चहिए। अपना संघ तो संगठन है, कोई पंथ या संप्रदाय नहीं। इसी दृष्टि से अपने कार्य की यह व्यवस्था है कि हमारा अपने समाज से नित्य का संपर्क रहे,विचारों का आदान-प्रदान होता रहे। सबका समर्थन प्राप्त करने का प्रयास सतत् होता रहे।
इसका पालन करने की इच्छा नहीं रहती,इसलिए हमेशा पालन नहीं करते। इसी कारण बीच के कालखंड में मैंने देखा कि हमारा गटनायक केवल बाहर जाकर पुकारनेवाला हो गया है। बाकी के हमारे शिक्षक वगैरह अपने स्वयंसेवकों से मिलकर अपना कार्यभार पूरा हुआ माननेवाले हो गए हैं। किसी उत्सव का निमंत्रण देने मात्र के लिए वे समाज में जाते थे,अथवा नहीं।अत: मैने कई स्थानों पर यह नियम किया है कि निमंत्रण-पत्रिका डाक से नहीं भेजना। स्वयंसेवक प्रत्येक घर जाए,वहां का प्रमुख व्यक्ति अगर न मिला तो दुबारा जाकर मिले और उन्हें पत्रिका देकर निमंत्रण दे। ऐसा इसलिए करना है,क्योंकि सतत् संपर्क बना रहे। कहीं पर उसमें न्यूनता न आए, संघ एक पंथ न बन जाय। -श्रीगुरुजी समग्र: खंड 3 पृष्ठ 55
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