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ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लार्ड पार्मस्टन (1784-1865) का कथन है कि विश्व में किसी भी राष्ट्र का कोई मित्र या शत्रु नहीं होता, बल्कि उसकी राष्ट्रनीति अथवा राष्ट्रहित सर्वोपरि होता है। परन्तु भारतीय संसद में विपक्ष के कुछ नेताओं के वक्तव्यों से लगा कि इस्रायल-फिलस्तीन संघर्ष के प्रश्न पर उनकी सोच पार्टी हित से ऊपर नहीं है और उनके चिन्तन का केन्द्रीय बिन्दु भारतीय मुस्लिम का तुष्टीकरण तथा वोट बैंक की राजनीति है। कांग्रेस तथा उससे निकली क्षेत्रीय पार्टियां छद्मवेशी सेकुलर चोला पहनकर अपनी घिसी-पिटी साम्प्रदायिक सोच को किसी भी भांति छोड़ने को तैयार नहीं हैं। हद तो तब हो गई जब भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भारतीय संसद में मुसलमानों को रिझाने के लिए, भारतीय बजट पर पहले उनका हक बतलाया। परन्तु यह भी सही है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों में सर्वाधिक विद्वान तथा अनेक भाषाओं के ज्ञाता पी.वी. नरसिम्हा राव ने भारत-इस्रायल संबंधों की शुरुआत की तथा 1992 में पूर्ण राजनीतिक संबंध कायम किये। परिणाम भी स्पष्ट रूप से दिखलाई दिया। 1998-99 में कारगिल युद्ध में उनकी तकनीकी सहायता महत्वपूर्ण रही। इस्रायल सदैव भारत का मित्र रहा तथा इसके विपरीत संकट पर प्रत्यक्ष रूप से अरब देशों ने पाकिस्तान का सक्रिय साथ दिया। इस्रायल, फिलस्तीन, इराक या अन्य अरब देशों के साथ संबंधों पर विहंगम दृष्टि डालने हेतु इन्हें ऐतिहासिक संदर्भों में देखना आवश्यक होगा।
इस्रायल राष्ट्र का उद्भव
इस्रायल का बहुत लम्बा इतिहास रहा है। इसका प्राचीन केन्द्र फिलस्तीन था, जहां यरुशलम भी है, जो यहूदियों, ईसाइयों तथा मुसलमानों का पवित्र केन्द्र है। यहीं पर बैतुल मकसद मस्जिद है, जिसपर हजरत सुलेमान ने प्रसिद्ध दीवार बनाई थी जो 'दीवारे गिराय' कहलाती है। यहीं ईसा मसीह को शूली पर चढ़ाया गया और यहीं वह उपरोक्त मस्जिद है, जहां मोहम्मद साहब सातवें आसमान पर दूत त्रिब्राईल के साथ खुदा से मिलने गए थे। अत: यह तीनों का धर्मस्थल भी है।
यहीं से प्राचीन यहूदियों का ईसाइयों द्वारा मारकाट तथा खून खराबे का युग प्रारंभ हुआ। बाद में इस्लाम के जन्म के बाद मुसलमानों द्वारा भी। उल्लेखनीय है कि इस्रायल देश का नाम भी हाजी इब्राहीम पैगम्बर के दो पुत्रों-इस्माइल तथा इशहाक में से, इशहाक के पोते, याकूब के पुत्र बनी इस्रायल के नाम पर पड़ा। इसके पश्चात सैकड़ों वर्षों तक यहूदी विश्वभर में भटकते रहे। 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में ज्योनिज्म नामक एक आन्दोलन भी हुआ, जिसका उद्देश्य बिखरे हुए यहूदियों को एकत्रित कर प्राचीन फिलस्तीन में यहूदी देश की स्थापना था। द्वितीय महायुद्ध के दौरान जर्मनी के अधिनायक हिटलर तथा नाजियों ने यहूदियों को जड़मूल से नष्ट करने का प्रयत्न किया। आज भी इस्रायल का होलो-कास्ट म्यूजियम (सर्वनाश संग्रहालय) उनपर हुए अत्याचारों की गाथा बतलाता है। अन्ततोगत्वा संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में तत्कालीन फिलस्तीन के दो भाग कर एक भाग में 14 मई 1948 को इस्रायल का उदय हुआ। यहूदी इतने छोटे तथा चारों ओर अरब देशों से घिरे क्षेत्र से संतुष्ट न थे। वे तत्कालीन फिलस्तीन के भाग वैस्ट बैंक तथा गाजा पट्टी भी चाहते थे।
अरब देशों में विशेषकर फिलस्तीन में इस विभाजन से असंतोष हुआ। साथ ही बहुत कम समय में नव इस्रायल ने विस्मयकारी उन्नति की। उन्होंने आदर्श देशभक्ति, आत्मगौरव तथा आत्मसम्मान का परिचय देते हुए विश्वभर के विभिन्न देशों में रह रहे यहूदियों को नव गठित इस्रायल लौटने का आह्वान किया। अमरीका ब्रिटेन तथा पूर्वी यूरोप से अनेक यहूदी उच्च पदों, उच्च व्यापारिक प्रतिष्ठानों तथा अन्य महत्वपूर्ण पदों को छोड़कर आये। उन्होंने शीघ्र ही छोटी सी भूमि को नन्दनवन बना डाला। 'डेड सी' को जीवन्त बना डाला। अब वे वायुयानों द्वारा फूलों का निर्यात करने लगे, आत्मरक्षा के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य सैनिक शिक्षा की। वहां यह कहावत प्रसिद्ध है कि प्रत्येक यहूदी बच्चा सैनिक वेश में पैदा होता है। उन्होंने सदियों से भूली बिसरी हिब्रू भाषा को पुनर्जीवित किया।
अरब राष्ट्रों को इस्रायल राष्ट्र का पुनर्जन्म जरा भी न भाया और तभी 1948 से वर्तमान तक यह परस्पर संघर्ष बना हुआ है। प्रथम महायुद्ध के पश्चात यह फिलस्तीन का समूचा क्षेत्र ब्रिटिश संरक्षण शासन का भाग था, परन्तु अधिकतर यहूदियों के अमरीका में आने से उनका प्रभाव क्षेत्र बनता जाता रहा है।
फिलस्तीन से संघर्ष
यूनानी इतिहासकार हिरोडोटस ने लगभग 500 ई. पूर्व पहली बार इसे फिलस्तीन नाम दिया। मोटे रूप से यह प्रथम महायुद्ध से पूर्व आटोमन राज्य का भाग रहा। इसके पश्चात यह 1917-1948 तक ब्रिटिश संरक्षण शासन में रहा। 1947 के संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव 181 के अंतर्गत 29 नवम्बर 1947 को फिलस्तीन राज्य बनाने की स्वीकृति हुई, परन्तु व्यवहार में 14 मई 1948 को दो भाग कर एक भाग को फिलस्तीन तथा दूसरे को इस्रायल कहा गया। उल्लेखनीय है कि प्रथम महायुद्ध में जार्डन ने वैस्ट बैंक तथा 1948 में गाजा पट्टी जो लगभग 12 किलोमीटर लम्बी तथा 6.5 किलोमीटर चौड़ी है इस पर मिस्र ने अधिकार कर लिया था।
अत: अरब देशों का प्रारंभिक टकराव इन्हीं से हुआ। 1950 में गाजा पट्टी में मिस्र की सैनिक छावनी के आक्रमण पर 32 मिस्र सैनिक मारे गए। जार्डन को भी पीछे हटना पड़ा तथा 1956-57 में ये दोनों क्षेत्र इस्रायल के अधीन रहे। जहां फिलस्तीन के लोगों को रहने दिया गया। परन्तु यह टकराव निरंतर चलता रहा। 1959 में फिलस्तीन के लोगों को कुवैत में जाकर शरण लेने पड़ी। फिलस्तीन ने इस्रायल के विरुद्ध सैनिक तैयारियां कीं। शेख अहमद यासीन फिलस्तीन के आध्यात्मिक नेता बन गए तथा यासर अराफात फिलस्तीन हितों के नेता। उन्हें फिलस्तीन का 'नेचुरल पब्लिसिस्ट' या जन्मजात प्रचारक भी कहा जाता है। यासर अराफात ने पहले 1959 में फतह नाम का संगठन बनाया तथा 1964 में फिलस्तीन लिबरेशन आर्गनाइजेशन (पीएलओ) का गठन किया। जून 1967 में इस्रायल-फिलस्तीन के बीच केवल छह दिन का संघर्ष हुआ, जिसमें पूर्वी यरुशलम में स्थित वैस्ट बैंक तथा गाजा की पट्टी पर इस्रायल का कब्जा हो गया। इसके बाद क्रमश: 1968 में वारमेह, 1970 में जार्डन, 1982 में लेबनान तथा 1987 में बेरुत से टकराव बना रहा। 1990 तक वैस्ट बैंक पर पूरी तरह कब्जा कर, यहां इस्रायल के तत्कालीन निर्माण मंत्री एरियल शैरोन ने अनेक भवनों, आवास गृहों का निर्माण किया। 1990 में ही खाड़ी के युद्ध में यासर अराफात ने इराक के सद्दाम हुसैन का साथ देकर एक महान भूल की जिसमें इराक की हार हुई थी।
इराक की महत्वाकांक्षाएं
इराक विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक है। परन्तु 632 ई. में इस्लाम के जन्म के साथ यह उसका शिकार हुआ तथा अरब साम्राज्य का अभिन्न अंग बना। शीघ्र ही यहां के इमामों को मान्यता मिली। 660-750 तक उम्मेयद वंश तथा 750-1258 तक अब्वासीद वंश के खलीफा बने। 1762 में यहां की राजधानी बगदाद बनी। धार्मिक दृष्टि से यहां बहुसंख्यक शिया हैं, परन्तु शासन की बागडोर 20 प्रतिशत सुन्नी कट्टर मुसलमानों के हाथ में रही। यहां की मुख्य भाषा अरबी के साथ अन्य भाषाएं कुर्दी, तुर्कीमन तथा साइरिक हैं। यह 16वीं शताब्दी से 1917 तक आटोमन राज्य का भाग रहा। 1917 में ब्रिटिश संरक्षण शासन में रहा। इसने 1932 में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की। 7 अप्रैल 1947 को अरब बाथ सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ, जो शीघ्र ही राष्ट्रीय भावना जगाने का प्रतीक बन गई, इसके साथ इराक में 14 जुलाई 1958 तथा 17 जुलाई 1968 को आन्तरिक उथल-पुथल तथा
क्रांतियां हुईं।
इस्रायल के निर्माण को अरब खाड़ी के देशों तथा अन्य मुस्लिम देशों ने कट्टर शत्रु के रूप में लिया तथा इसके अस्तित्व को मिटाने का संकल्प लिया। उदाहरणत: ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अहमदी नेजाद ने इस्रायल को नक्शे से हटाने की घोषणा की और इसका मुख्य कारण यहूदियों के प्रति घृणा होना बताया। पहले शिया आतंकी संगठन हिज्बुल्ला ने इस्रायल पर आक्रमण किया इसने दक्षिण लेबनान में मजबूत संगठन बना लिया जिसे इरान तथा सीरिया ने प्रोत्साहन दिया। इसी भांति कई मुस्लिम देशों की सहायता से हमास नामक आतंकवादी संगठन है, जो सभी शांति प्रयासों को धत्ता बताकर इस्रायल को नष्ट करना चाहता है। मूलत: यह मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन से प्रेरित एक चरमपंथी इस्लामी संगठन है जो पश्चिमी ऐशिया के दूसरे हिस्सों में तथा अन्य मुस्लिम देशों में घृणा फैला रहा है। मई 1948 से इसने इस्रायल पर 1956, 1967 और 1973 में तीन बार आक्रमण किये पर असफलता ही हाथ लगी। इसी के साथ आईएसआईएस अर्थात इस्लामिक स्टेट आफ इराक एण्ड अल शाम प्रकाश में आया। अल शाम का अर्थ है बृहत्तर सीरिया। अलकायदा के साथ इराक की बाथिस्ट पार्टी का गठबंधन भी इससे प्रभावित हुआ।
सद्दाम के पतन के बाद बाथ पार्टी का वर्चस्व समाप्त हो गया। शिया-सुन्नी संघर्ष चरम सीमा पर पहुंच गया। आईएसआईएस ने पहले रेगिस्तानी क्षेत्र पर और फिर क्रमश: सीरिया इरान, मोसुल तथा उत्तर पश्चिमी इराकी क्षेत्र तिकारित तलाआफर तथा वास्तखात पर कब्जा कर लिया तथा अब इस्रायल के पूर्ण ध्वंस का संकल्प लिया हुआ है।
भारतीय स्थिति
गत आठ जुलाई 2014 से फिलस्तीन तथा इस्रायल में परस्पर टकराव का महासंकट बना हुआ है। इस्रायल अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है तथा अरब देश अपने विश्वव्यापी सुन्नी मुस्लिम साम्राज्य की महत्वाकांक्षा ने विश्व के विभिन्न देशों में हिंसात्मक तथा आतंकवादी मुस्लिम सैनिकों के रहस्यमय ढंग से दस्ते तैयार हो रहे हैं। कुछ विद्वान उसे तृतीय विश्वयुद्ध की पदचाप भी बतला रहे हैं।
इस भावी संकट में भारत की स्थिति विचित्र तथा भयावह है। भारत मुसलमानों के अधिक जनसंख्या वाले देशों-इण्डोनेशिया, पाकिस्तान, बंगलादेश के साथ आता है।
आश्चर्य है कि भारत के प्रमुख विपक्षी दलों कांग्रेस, वामपंथी-माकपा, भाकपा तथा सेकुलर क्षेत्रीय पार्टियों को यह विश्वव्यापी संकट नहीं दिख रहा है। वे पाकिस्तान, बंगलादेश में हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों से सबक लेने को तैयार नहीं हैं। इराक में प्रताडि़त हिन्दू नर्सों तथा हजारों भारतीयों तथा लीबिया में फंसे अनेक भारतीयों के प्रति कोई संवेदना नहीं, बल्कि बदले की भावना में जुटे हैं। निश्चय ही इराक फिलस्तीन तथा इस्रायल युद्ध ने भारत के लिए विविध क्षेत्रों में नये-नये संकट खड़े कर दिये हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में 70-80 प्रतिशत तेल का आयात अरब खाड़ी देशों से ही आता है। सामाजिक दृष्टि से हिन्दू-मुसलमान के संबंधों में कटुता बढ़ाने के प्रयत्न हो रहे हैं। कश्मीर के विभिन्न स्थानों पर 29 जुलाई को ईद के पश्चात इस्रायल के विरुद्ध हिंसात्मक प्रदर्शन इसका भावी संकेत है। सोशल मीडिया भी इनको हवा देने में पीछे नहीं रहता है। हवा, तूफान न बने, इस पर नियंत्रण आवश्यक है।
विचारणीय विषय है कि क्या राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि मानना गुनाह है? क्या इस्रायल के लोगों को जीने का अधिकार नहीं है तथा आत्मरक्षा, स्वाभिमान के लिए संघर्ष करना कठोर अपराध है? क्या भारत के कुछ मुस्लिम संगठनों को अरब देशों में हो रहे भारतीयों पर अत्याचारों से संवेदना नहीं होती। क्या कार्ल मार्क्स जैसे विश्व विचारक, फ्रॉयड जैसे मनोविश्लेषक तथा आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक यहूदियों का विश्व इतिहास में कोई योगदान नहीं है? वस्तुत: पिछले साठ वर्षों से आत्मरक्षा के लिए अविरल संघर्ष किसी भी राष्ट्र के लिए प्रेरक तथा उत्साहित करने वाला है। -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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