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स्वास्थ्य के लिए ज्यादा चीनी अच्छी नहीं। एशिया के स्वास्थ्य के लिए यही बात 'चीनी हनक' के संदर्भ में कही जा सकती है। भारत-चीन के बीच ताजा शिखर वार्ता में ड्रैगन की हनक घटना एक ऐसी बात है जिसके निहितार्थ सिर्फ दो देशों के लिए नहीं बल्कि पूरे एशिया प्रायद्वीप के लिए अच्छे कहे जा सकते हैं। वैसे, संशय और धमक का माहौल रचना चीनी विदेशनीति की खासियत है। जब-जब जहां-जहां चीन दोस्ती का हाथ बढ़ता है लाल सेना की कदमताल उसी दिशा में बढ़ती है। जाहिर है ऐसे रचे गए माहौल में ड्रैगन के मन की बात ही ऊपर रहती है। इस बार भी पटकथा की कडि़यां कुछ इसी तरह खुलीं़.़
दिल्ली में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच तमाम समझौतों पर बातचीत हो रही थी, तब दिल्ली से दूर लद्दाख के चुमार और देमचोक में भारतीय और चीनी सेनाएं आमने-सामने खड़ी थीं। लेकिन इस सैन्य भंगिमा का जो कूटनीतिक जवाब मिला वह विशेषज्ञों को चौंकाने वाला था। जरूरत से ज्यादा गर्मजोशी से मिलने और मिनमिनाहट के स्वर में अपनी बात रखने की परिपाटी उलट गई।
भारत ने साफ शब्दों में दृढ़ता के साथ अपनी बात इस तरह विश्व पटल पर रखी जैसे पहले कभी रखी नहीं गई थी। शिखरवार्ता संपन्न होने के बाद प्रेस को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब कहा कि भारत और चीन के बीच रिश्ते की पूर्ण संभावना सीमा पर शांति और आपसी भरोसे के बिना हकीकत नहीं बन सकती तो इस सौम्य वाक्य का दृढ़ मंतव्य उनके चीनी समकक्ष पर साफ था। विश्वस्त सूत्रों के अनुसार, 7 सितम्बर की रात को ही चीनी पक्ष को लगातार भारतीय सीमा में घुसपैठ और वर्तमान स्थिति पर भारत के रुख से अवगत करा दिया गया था। जिसे 8 सितम्बर को एक बार और दोहराया गया। क्षेत्राधिकार के मुद्दे झूलते छोड़ देना और विवाद को पुराना पड़ने देना चीनी विदेशनीति का स्थाई तत्व है, लेकिन जिनपिंग को नपातुला ही सही, जवाब देना पड़ा। उन्होंने कहा कि सीमा पर शांति रहनी चाहिए, दोनों देश मिलकर सीमा विवाद सुलझायेंगे।
वैसे, चीन की बदली मुद्रा और भारत की परिवर्तित स्थिति को सिर्फ इस शिखर वार्ता के संदर्भ में समझना भूल होगी। 15 सितंबर को भारतीय राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की वियतनाम यात्रा और इस पर चीनी दूतावास की खलबली को भी समझना जरूरी है। जापान-आस्ट्रेलिया-वियतनाम का भारत के प्रति बढ़ता भरोसा चीन सागर एवं हिन्द महासागर में नए गठजोड़, अलग प्रकार के ध्रुवीकरण की दस्तक तो नहीं? यह सवाल चीन को मथ रहा है। वह रूस के साथ भारत के पुराने संबंधों में नई गर्माहट और नई वैश्विक परिस्थितियों में अमरीका का भारत की ओर झुकाव भी बारीकी से देख रहा है।
भारतीय प्रधानमंत्री की जापान यात्रा के अतिरिक्त हाल में भारत द्वारा वियतनाम को प्रतिरक्षा उपकरणों की खरीद के लिए 10 करोड़ डॉलर की सहायता, दक्षिण चीन सागर में जहाजों के स्वतंत्र आवागमन का आह्वान और महत्वपूर्ण तेल क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने की पहल कुछ ऐसे कदम थे जिन्होंने इस वार्ता से पहले ही चीन की बेचैनी बढ़ा दी थी। यह बेवजह नहीं था कि भारत के कूटनीतिक कदमों का आभास पाते ही चीन ने बेहद अप्रत्याशित कदम उठाते हुए दिल्ली में अपने दूत की बदली कर दी। भारत के मामले में अनुभवी वेई वेई की जगह लाए गए नए चीनी राजदूत लू यूचौंग भले ही इस वार्ता के दौरान कुछ खास योगदान नहीं दे सके, किन्तु चीन ने उन्हें भविष्य की संभावनाएं टटोलने की खातिर मैदान में उतारा है। रूस के साथ भारत का संबंध सिर्फ ब्रह्मोस और गोर्शकोव की कहानी नहीं, यह बात रूसी मामलों के विशेषज्ञ लू यूचौंग जानते हैं।
बहरहाल, इस शिखर वार्ता के बाद भारत-चीन संबंध एक ऐतिहासिक मोड़ पर हैं जहां अडि़यल रुख की बजाय परस्पर औदार्य जरूरी है। भारत ने इसकी आवश्यकता जता भी दी है। मानव संसाधन और भू-भाग की दृष्टि से अति समृद्घ ये दोनों देश विकास की अनंत संभावनाओं से भरे हैं। यदि निबाही जाए तो इस मित्रता से विश्व को शांति, समृद्घि और समरसता के सांस्कृतिक सबक मिल सकते हैं।
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