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पाञ्चजन्य ब्यूरो/स्मिता मिश्रा
हर चुनाव एक नया चुनाव है, इसीलिए हर बार उतनी ही मुस्तैदी से काम करना पड़ेगा। इस बात का अहसास भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को हो रहा है। मगर यह अनुभव तब हुआ जब पार्टी ने उत्तर प्रदेश और राजस्थान में मात्र चार महीने पहले कड़ी मेहनत से हासिल की गई बढ़त को एक झोंक में गंवा दिया। राजनीति में सिद्धातों के लिए सतत् संघर्ष, यह भाजपा की पहचान रही है, परंतु क्या सतत् संघर्ष के स्वभाव पर इतने से समय में सुस्ती की धूल चढ़ गई? यदि ऐसा है तो पार्टी केे लिए सुस्ती को फटकारकर फिर उसी मुस्तैदी से खड़े होने का समय है।
उपचुनाव की समीक्षा में 'लहर तत्व' की व्याख्या भी जरूरी है। विशेषकर इसलिए क्योंकि इनमें वे तमाम क्षेत्र शामिल हैं जहां उपचुनाव की नौबत आई ही इसीलिए कि वहां थोक में स्थानीय विधायक केसरिया लहर में तैरते हुए लोकसभा पहुंच गए। जैसे-जैसे चुनाव परिणामों पर गौर किया जा रहा है और संबंधित क्षेत्रों से जानकारी छनकर सामने आ रही है, वैसे-वैसे यह साफ होता जा रहा है कि पार्टी ने अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग कारणों से मुंह की खाई है हालांकि कुछ कारण तीनों राज्यों के संदर्भ में समान तौर पर प्रासंगिक कहे जा
सकते हैं।
इन चुनावों के बाद जो त्वरित निष्कर्ष सामने आया वह है विरोधी दलों द्वारा जड़ें बचाए रखने की जोरदार और सफल कोशिश। यह बात और है कि विश्लेषकों और मीडिया के कुछ गुट इसे सरकार के खिलाफ नाराजगी के तौर पर प्रचारित और परिभाषित करने के प्रयास में लगे दिखे। कई विशेषज्ञों ने इसे 'लहर का अंत' करार दिया है। परंतु वास्तव में यह बिंदु लहर की बजाय तल तक जाने और कारण समझने का है।
अगर भाजपा के प्रति जनता का विश्वास और समर्थन सिर्फ लहर भर था (वैसे, ऐसा लगता नहीं) तो पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी उफान कभी लंबे समय तक नहीं चलता। लंबे समय चलता है भरोसा। उन वजहों पर टिके रहने का दम जिसकी झलक देखते हुए जनता ने आपको अपना भरोसा मत के रूप
में सौंपा।
लहर का चरित्र लहर जैसा ही होता है। लेकिन इससे सही समय पर आवश्यक गति और यथेष्ट ऊंचाई अवश्य मिलती है। इसे किसी जादू का अंत कह देने से न तो देशभर के जनमानस की सही विवेचना हो पाएगी और न ही इन हालिया चुनावों का वास्तविक आंकलन। दरअसल, इन चुनाव नतीजों से राजनीतिक व सामाजिक दृष्टिकोण से कई अहम तथ्य सामने आए हैं जिनपर गंभीरता से विचार की जरूरत है। और इसके लिए पहली शर्त है तीनों ही राज्यों के परिणामों की अलग-अलग समीक्षा।
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश की हालात पर सबसे पहले विवेचना इसीलिए जरूरी है कि यहां न सिर्फ सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव हुए बल्कि परिणाम भाजपा की आशा के प्रतिकूल रहे हैं। चूंकि लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज कराई थी लिहाजा उसके कई विधायक सांसद बन गए और चुनाव करवाना अनिवार्य हो गया। ज्यादातर सीटें पश्चिम उत्तर प्रदेश में थीं। पश्चिम उ.प्र. में पार्टी को लोकसभा में अप्रत्याशित जीत हासिल हुई थी लिहाजा परिणाम और भी निराशाजनक प्रतीत हो रहे हैं। लेकिन हारी हुुई सीटों पर नजर डालने से पहले जरा एक निगाह उन तीन विधानसभा क्षेत्रों की ओर डाल ली जाए जहां पार्टी जीत गई। ये सीटें हैं- नोएडा, सहारनपुर नगर व लखनऊ पूर्व। इन तीनों सीटों पर पार्टी की जीत से यह तो साफ है कि शहरी, मध्यवर्गीय मतदाता की नजर में फिलहाल क्षेत्रीय दलों के मुकाबले भाजपा ही बेहतर विकल्प है।
अब बात उन सीटों की जहां पार्टी को शिकस्त का सामना करना पड़ा। भाजपा ने इस चक्र में आठ सीटों पर अपनी पकड़ खोई जिसमें एक पर उसके सहयोगी अपना दल की उम्मीदवार थीं। यह रोहनियां विधानसभा क्षेत्र है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी का हिस्सा है। पिछड़ी व अति पिछड़ी जातियों की अच्छी तादाद वाले इस क्षेत्र में भाजपा सहयोगी की हार चिंताजनक संकेत है।
खैर, रोहनियां में अपना दल को पड़ी मार हो या वरिष्ठ नेता व केंद्रीय मंत्री उमाश्री भारती की खाली की गई चरखारी सीट में भाजपा की उम्मीदवार का शर्मनाक प्रदर्शन, हर जगह पार्टी रणनीतिक दृष्टि से बदले माहौल को भांपने और उसके अनुरूप चुनाव प्रबंधन करने में कहीं गच्चा खा गई। बदले राजनीतिक हालात में सबसे अहम था बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का आधिकारिक रूप से चुनाव न लड़ना। बसपा प्रमुख मायावती और उनके सिपाहियों ने संकेत तो यह दिया कि वह जगह-जगह निर्दलीय उम्मीदवारों का समर्थन करेंगे लेकिन चुनाव परिणाम बताते हैं कि यह मात्र एक दिखावा था। दरअसल बसपा के पारंपरिक वोटबैंक का बडा हिस्सा समाजवादी पार्टी (सपा) के खाते में गया यह बात अब साफ दिख रही है। जरा गौर करिए, ़इन उपचुनावों मेंे भाजपा का वोट प्रतिशत 40 प्रतिशत से घटकर 39 प्रतिशत हो गया। जबकि सपा का वोट 24 से उछलकर 42 प्रतिशत हो गया।
कम से कम सपा के वोट में इस उछाल को अखिलेश सरकार के कामकाज के प्रति जनता के आभार के रूप में तो नहीं ही देखा जा सकता। पूरे उत्तर प्रदेश में बिजली की स्थिति, कानून व्यवस्था का हाल, खुलेआम गुंडागर्दी, वसूली, महिलाओं के साथ नृशंसता और रोंगटे खडी करने वाली घटनाएं, बेरोजगारी और निराशा का माहौल किसी से छिपा नहीं है। लोकसभा में भाजपा-राजग को 73 सीटें यूं ही नहीं आ गई थीं। तो अब यह साफ होता जा रहा है कि बसपा के पारंपरिक मतदाताओं ने इन उपचुनावों में सपा उम्मीदवारों की मदद की। बसपा के वरिष्ठ सूत्रों के मुताबिक उनकी चिंता यह थी कि प्रदेश की राजनीति को सपा बनाम भाजपा बनाने से रोका जाए ताकि भविष्य मेंे छवि न बने कि उत्तर प्रदेश में सपा व भाजपा ही सबसे बड़े खिलाड़ी हैं। बसपा का मानना है कि उपचुनाव में सपा की ओर जाने वाला उसका वोट वक्त आने पर लौट आएगा लेकिन भाजपा की ओर खिसकने वाला वोटबैंक फिर उसके हाथ से लंबे समय के लिए निकल जाएगा। चूंकि कांग्रेस ने इस चुनाव में ताकत नहीं झोेंकी लिहाजा गैर-भाजपा वोट का यह हिस्सा भी सपा की ओर चला गया इसके भी संकेत परिणामों में दिखे हैं।
मगर मामला केवल जातिगत समीकरण तक ही सीमित नहीं रहा। भाजपा के प्रचार अभियान में संतुलन की बेहद कमी नजर आई। लोकसभा में जहां पार्टी ने लूट-खसोट, बेरोजगारी, आर्थिक मंदी के मुकाबले व्यापक आर्थिक दृष्टिकोण, औद्योगिक विकास, युवा कल्याण और महिलाआंे की सुरक्षा को मुद्दा बनाया था वहीं विधानसभा में पार्टी का प्रचार तंत्र सामाजिक समस्याओं का दर्द पूरी तरह समझ नहीं सका। लव जिहाद जैसे सामाजिक षड्यंत्र पर जो गंभीर प्रश्न स्वयं न्यायपालिका उठा चुकी है, देश-विदेश में जिसके विरोध में विभिन्न समुदाय आवाज उठा रहे हैं, पार्टी ने उन सवालों से कतराकर निकल जाना चाहा। वृंदावन में प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक से ही यह लोगों के बीच यह चर्चा सुर्खियों में आ गई थी कि भाजपा लव जिहाद जैसे मुद्दे से दूरी बरतेगी। सपा के प्रचार तंत्र और उसके नेताओं ने इसका भरपूर लाभ उठाया। सपा ने समाज की पीड़ा को जहां झूठा बताकर प्रचारित किया वहीं भाजपा दुखी लोगों से दूर खड़ी दिखी, इससे भी परंपरागत तौर पर भाजपा समर्थक मतदाता के मन को ठेस लगी। छिटके-आक्रोशित पश्चिम उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक वोटों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ।
इसके साथ ही प्रदेश की सत्ता के व्यवहार में इन चुनावों से कोई परिवर्तन न होने के अहसास ने कार्यकर्ताओं में भी शिथिलता ला दी। केंद्रीय नेतृत्व ने इन चुनावों में सीमित दिलचस्पी ली और प्रचार का काम मोटे तौर पर प्रदेश नेतृत्व के हाथों में सौंप दिया। इसके विपरीत लोकसभा के नतीजों के बाद पूरे प्रदेश में अपनी जमीन खोने की चुनौती को भांप रहे मुलायम सिंह यादव ने इसे जीवन-मृत्यु का प्रश्न बनाते हुए पार्टी की पूरी ताकत झोंक दी।
राजस्थान
राजस्थान के नतीजे भाजपा के लिए सबसे चिंताजनक हैं। वहां पार्टी प्रदेश में सरकार में है। मगर चार में से तीन पर हार का मुंह देखना पड़ा। इसमें उम्मीदवारों का चयन और आठ महीने पुरानी प्रदेश सरकार के प्रति सत्ता विरोधी प्रतिक्रिया अहं कारण बताए जा रहे हैं। कुछ हद तक भाजपा कार्यकर्ताओं में सरकार के प्रति नाराजगी भी रही है। कई जिलों में कार्यकर्ता अपेक्षित स्नेह की कमी महसूस कर रहे हैं जिसके कारण उन्होंने चुनाव में उत्साह कम दिखाया जबकि सपा की ही तरह कांग्रेस ने प्रदेश में गुटबाजी पर लगाम कसते हुए कड़ी मेहनत की। चूंकि चार महीने पहले लोकसभा में भाजपा ने प्रदेश की सभी 25 लोकसभा सीटों पर परचम लहराया था लिहाजा कहा जा सकता है कि यह अति आत्मविश्वास की खुमारी थी जिसने
झटका दिया।
गुजरात
लंबे अरसे से कांग्रेस के हाथ से निकल चुके गुजरात में भी इस बार पार्टी ने दोबारा सर उठा लिया। हालांकि अभी तक गुजरात की सीटों पर गहन आकलन नहीं हुआ है लेकिन माना जा रहा है कि कांग्रेस ने जो दो सीटें छीनी हैं उसके पीछे नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर नेता की अनुपस्थिति भी वजह है। भाजपा और कांग्रेस में जो वोट का अंतर बीस फीसद पहुंच गया था अब वह फिर दस फीसद तक आ गया है। जैसे जीवन के हर अनुभव में कोई न कोई सबक छिपा होता है वैसे ही इन उपचुनावों से यह सबक साफ है कि कोई जीत कितनी भी ऐतिहासिक हो, वह भविष्य में जीत की गारंटी नहीं हो सकती। हर चुनाव में नेतृत्व, रणनीति व प्रबंधन के लिहाज से उतनी ही मेहनत की जरूरत है। अगर भाजपा ने इस सबक पर ध्यान दिया तो अगले महीने महाराष्ट्र और हरियाणा में पार्टी के कार्यकर्ता को उस जीत की थाप सुनने को मिल सकती है जिसका दावा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी राष्ट्रीय परिषद की बैठक में किया था।ल्ल
प्रशांत मिश्र, ब्यूरो प्रमुख, दैनिक जागरण
हार की वजह -ज्यादा हल्ला, कम मतदान
इन चुनाव नतीजों में कुछ प्रमुख बातें समझ में आ रही हैं। किसी भी बड़ी जीत के बाद अमूमन कार्यकर्ता अगले चुनाव को आसान समझने लगता है। दूसरा, भाजपा प्रचारकों की ओर से ध्रुवीकरण और हल्की भाषा के प्रयोग की ऐसी जरूरत नहीं थी। तीसरा, टिकट वितरण में भी कुछ चूक रही। कम से कम चार सीटों पर टिकट वितरण के चलते कार्यकर्ता और संबंधित सांसद नहीं निकले। चौथा, यह उम्मीद थी कि बसपा का अधिकांश वोट भाजपा को ही आएगा मगर वह सपा की ओर चला गया। इसके साथ ही कम मतदान ने भी भाजपाका नुकसान किया है।
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