|
लोग कहते थे उन्होंने आम चुनावों में विरोधी दलों का बाजा बजा दिया। मैं समझता था यह सिर्फ एक मुहावरा है। पर नरेंद्र भाई ने जापान में दिखा दिया कि वे बाजा सच में बजाते हंै। जापानियों को रिझाने के लिए बांसुरी बजायी, बच्चों के समवेत् गान में अपना सुर भी लगाया और कमाल तब हुआ जब जापानी ढोल टाइको बजाया़ उधर जापानी मेजबान मुग्ध हुए, इधर भारत में विरोधियों ने पूछा कायको बजाया।
आश्चर्य तो इस बात का था कि जो परिवार स्वतन्त्रता की बाद से आज तक, कुछ वषोंर् के अंतरालों के छोड़कर, लगभग अनवरत रूप से इस देश का ही ढोल बजाता आया है उसके वारिस को प्रधानमंत्री के ढोल बजाने पर सबसे अधिक आपत्ति थी। पर उन्हें दोष देना अनुचित होगा। उनके ढोल की पोल तो कम्पट्रोलर एवं आडिटर जेनेरल से लेकर सवार्ेच्च न्यायालय तक तमाम संस्थाएं लगातार खोलती आई हैं। सवार्ेच्च न्यायालय ने तो पिंजरे में बंद तोते की तरह उन्हीं का सिखाया राग अलापने पर सीबीआई को भी नहीं बख्शा। फिर भी जो लोग मोटी मलाई खा कर आराम से चैन की वंशी बजा रहे थे उनका दूसरों का गाना बजाना क्यूं सुहाएगा। उनके राग रंग का पटाक्षेप जल्दी होने वाला है इसका अनुमान तो उन्हें पहले ही हो गया था। न मालूम कितनी बार खीझ कर मां यशोदा से बेचारे बालक ने कहा ये ले अपनी लकुटी कमरिया बहुत हिं नाच नचायो। पर अपने परिवार को छोड़कर लकुटी कमरिया किसी और को सौंपने की तो वहां सोची ही नहीं जा सकती है। ऐसी ही स्थिति की विवेचना करते हुए शेक्सपीयर ने कहा था कि कुछ लोग महान पैदा होते हंै, कुछ के सर पर महानता जबरदस्ती मढ़ दी जाती है। ऐसे लोगों के लिए गले में बांध दिए गए ढोल को बजाना एक मजबूरी हो जाती है़ ऐसी मजबूरी में जब किसी को अपने गले में बंधे हुए ढोल से घोर वितृष्णा हो रही हो तो दूसरों का ढोल बजाना और सुदूर देशों में लोगों का उसे विस्मयपूर्ण प्रशंसा के साथ सुनना बेचारे को क्यूं सुहाने लगा।
लड़ाई ढोल से या किसी वाद्य विशेष से है ऐसा नहीं। स्थिति असल में ये है कि नरेंद्र मोदी जी ढोल और बांसुरी छोड़कर शहनाई भी बजाते तो इन आलोचकों को ये बेवक्त की शहनाई ही लगती भले सारे देशवासियों के लिए यह किसी मांगलिक अवसर का आह्वान होता। बहरहाल, पड़ोसी नेपाल, भूटान, बंगलादेश से लेकर सुदूर जापान तक अनेकों देश जिस तरह से प्रधानमंत्री की विदेश नीति से सम्मोहित हुए हैं उससे यही लगता है कि नाम से मनमोहन भले कोई और रहा हो काम से तो नरेन्द्र भाई ही मनमोहन निकले।
अगर विदेशों में ही उनका संगीतमय सम्मोहन अपना रंग दिखा रहा होता तब भी शायद उसे हजम करना आसान होता। पर स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि जो कुमार विश्वास आज तक कवि सम्मेलनों में श्रोताओं को अपने गीतों से रिझाते आये हैं वे पिछले दिनों बिलकुल नए अंदाज में, नए स्वर में मोदी राग गाते हुए मिले। सुना है कि आम आदमी पार्टी के उनके कुछ सहयोगियों ने जब उनके मोदी राग गाने पर आपत्ति की तो कविवर ने साफ जवाब दिया कि उनके इस गीत पर पार्टी का नहीं बल्कि उनका अपना सर्वाधिकार है। पार्टी के गीत-गाते गाते तो अमेठी में उनका गला भी बैठ गया था। शायद गला खराब होने के मामले में तब वे केजरीवाल जी से स्पर्द्धा कर रहे थे। मोदी राग की आम आदमी पार्टी में लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। शाजिया इल्मी भी एक न्यूज चैनल की बहस में कुछ ऐसा गुनगुनाते सुनायी पड़ीं जिसके स्वर मोदी राग से मिलते जुलते थे। उधर दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता का स्वर भी इधर अचानक कुछ बदला बदला सा लगा।
ऐसा लगता है कि जबसे जापान में ढोल बजा हमारे अपने देश में संगीत में अभिरुचि बढ़ गयी है। वे दिन दूर नहीं जब मोदी-कट दाढी बनाने वाले हेयर-कटिंग सैलून, मोदी कुर्ता बेचने वाले बुटिक और मोदी चाय पिलाने वाले चायघर के साथ साथ जगह जगह मोदी संगीतालय भी खुल जायें। इस देश में संगीत की दो प्रमुख शैलियां और परम्पराएं रही हैं। पहली परम्परा रही है अपनी-अपनी ढपली बजाने और अपना-अपना राग अलापने की। दूसरी परम्परा रही है सारंगी की तरह से मुख्य गायक की हर तान की नकल करने की। पर कष्ट ये है कि इस मुख्य गायक को न तो अपनी ढपली बजाने वाले पसंद हैं और न वे लोग जो बजाय कुछ सर्जनात्मक काम करने के केवल सारंगी की तरह से स्वर में हर उतार चढ़ाव की नकल को चाटुकारिता जन्य सफलता का मूल मन्त्र मानते हैं। नरेंद्र भाई को तो वे लोग पसंद हैं जो समवेत् स्वर में देश वंदना के गीत गाने में उनके साथ जुड़ें। मुझे लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब सारा देश सुर में सुर मिलाकर एक आवाज में वन्देमातरम गायेगा। विवश होकर बेसुरा राग अलापना जिनकी मजबूरी है वे भी समझ जायेंगे कि उनके कारखाने में तूती की आवाज सुनाई पड़ने की अब कोई संभावना नहीं बची। -अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
टिप्पणियाँ