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जख्म जरा पुराना हो तो वह नजर नहीं आता, …मगर उसकी टीस भी नहीं जाती। कुछ ऐसा ही हाल मुजफ्फरनगर शहर के लोगों का भी है। लखनऊ में बैठी सरकार चाहे जो दावा करे वास्तविकता यही है कि अर्धसैनिक बलों की छाया भी शासन के प्रति लोगों का भरोसा नहीं जगा पाई है। मुजफ्फरनगर दंगे को एक साल पूरा हो चुका है। दंगे में जिन्होंने अपनों को खोया वे भी अपने जख्मों को भरने की कोशिश में जुटे हैं। जिला प्रशासन का मानना है कि जिले में अब शांति है। लोग दंगों को भूलने लगे हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? जब किसी शहर में दंगा भड़कता है तो जन और धन की हानि होने के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे वह शहर और वहां के लोग जाने कितने बरसों तक भुगतते हैं।
मुजफ्फरनगर भी इसका एक जीता जागता उदाहरण है। यहां वातावरण में अजीब सी गंध है जो वहां जाकर ही अनुभव होती है। अखिलेश सरकार चाहे जितने दावे करे कि मुजफ्फरनगर में सब कुछ पहले जैसा समान्य हो चुका है लेकिन हकीकत कुछ और ही है। यहां यदि सड़क पर हल्का सा शोर शराबा भी हो जाए तो लोग उसका कारण जानने की कोशिश नहीं करते बल्कि दौड़कर गलियों में छिपने की जगह तलाशने लगते हैं। कुछ ही सेकेंड में दुकानों के शटर गिर जाते हैं। लोगों के मन में सबसे पहले एक ही बात कौधती है। फिर दंगा हो गया! अपनी जान और माल बचाओ! कुछ देर बाद पता चलता है कि दंगा नहीं हुआ बल्कि कोई दुर्घटना हुई या दो गुटों में मामूली झगड़ा हुआ, तब जाकर लोगों की जान में जान आती है। गलियों में छिपने को भागे लोग बाहर निकलकर चैन की सांस लेते हैं। दुकानदार हंगामेबाजों को दुत्कारते हुए, शासन को कोसते हुए फिर से दुकानें खोलते हैं। मुजफ्फरनगर की दाल मंडी के पास कायस्थवाड़ा में मुजफ्फरनगर दंगों में कवरेज के दौरान मारे गए आईबीएन/7 के पत्रकार राजेश वर्मा का घर है। दालमंडी से बाहर निकलते ही भगत सिंह रोड पर उनका ऑफिस है। बराबर में ही सर्राफा बाजार चौराहा है।
कुल मिलाकर पूरा इलाका भीड़भाड़ वाला है। दिल्ली के चांदनी चौक और शाहदरा के छोटे बाजार जैसा।
25 अगस्त शाम करीब सात बजे राजेश के भाई संजय के साथ उनके ऑफिस में बातचीत के दौरान अचानक बाहर शोर शराबा सुनाई दिया। वे तेजी से जीने के रास्ते नीचे की तरफ भागे देखा तो कुछ लोग बदहवास दौड़ते हुए दिखाई दिए। दौड़ने वाले हथियारबंद नहीं थे, लेकिन उन्हें दौड़ते देख चंद सेकेंड में भगत सिंह रोड पर स्थित दुकानों के शटर गिरते चले गए। रेहड़ी वाले अपनी रेहड़ी छोड़कर गलियों में दौड़ गए। भीड़ -भाड़ वाली सड़क अचानक खाली हो गई। किसी ने यह जानने की कोशिश भी नहीं की आखिर हुआ क्या। सभी बचने की फिराक में थे। कुछ देर बाद पता चला कि किसी व्यक्ति के साथ हादसा हुआ था। जो लोग बदहवास दौड़ते हुए जा रहे थे वे हादसे में चोटिल होने वाले के परिजन और रिश्तेदार थे। लोगों के दिल में समा चुके इस डर को देखकर जब उनसे बातचीत की तो पता चला कि दंगों के बाद से शहर का मिजाज ही ऐसा हो चला है कि यदि किसी मामूली घटना के चलते शहर में एक जगह भीड़ हो इकट्ठी हो जाती तो लोग सहम जाते हैं। कोई कारण जानने की कोशिश नहीं करता। संजय ने बताया कि इस शहर में दो मिनट में क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। दंगों के बाद से परिस्थितियां और ज्यादा विषम हुई हैं। सर्राफा व्यापारी हेमराज सोनी ने बताया कि दंगों के बाद से शहर की स्थिति ऐसी है कि आए दिन कोई न कोई अफवाह उड़ती रहती है। खुद उनकी पत्नी दिन में कई बार उन्हें फोन करती है कि कहीं कुछ हुआ तो नहीं।
कवाल, मलिकपुरा में आज भी रहता है तनाव
कवाल और गांव मलिकपुरा में आज भी ऐसी ही स्थिति है। दोनों गांवों में तनाव की स्थिति बनी रहती है। मलिकपुरा जाने के लिए रास्ता कवाल से होकर ही जाता है। पिछले वर्ष 28 अगस्त को मलिकपुरा के रहने वाले गौरव और सचिन दोनों भाइयों की कवाल में ही हत्या की गई थी। इस वर्ष उनकी पुण्य तिथि पर गांव में हवन हुआ। इस दौरान भारी संख्या में अर्द्धसैनिक बलों के जवानों को तैनात किया गया था। ताकि किसी तरह का कोई बवाल न होने पाए। जिले के आला पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी एक-एक पल की खबर रखे हुए थे। डर उनके मन में भी था कि कहीं कुछ हो न जाए। ऐसा इसलिए था कि मुस्लिम समुदाय के लोगों की तरफ से धमकी दी गई थी कि यदि कोई भी सचिन व गौरव की बरसी पर होने वाली पूजा में शामिल होने के लिए कवाल से होकर गुजरा तो उसके गंभीर परिणाम होंगे। यह तो तब था जबकि गौरव के पिता रविंद्र ने लिखित में तमाम लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की थी। प्रशासन को भी इस संबंध में सूचित किया गया था।
स्थानीय लोगों का कहना है कि जिला प्रशासन ने जितनी सावधानी अब बरती यदि उतनी वह तब बरतता तो मुजफ्फरनगर दंगा ही नहीं हुआ होता। यदि जिला प्रशासन के आला अधिकारियों से दंगों के संबंध में बात की जाती है तो उनका सीधा सा रटा-रटाया जवाब होता है कि दंगों की जांच के लिए आयोग बना है। जांच चल रही है। जो रपट बनेगी उसके आधार पर कार्रवाई होगी। मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर जब जिला मुख्यालय पर जिलाधिकारी से मिलने पहुंचे कुछ ग्रामीणों से जब इस संबंध में बात की गई तो उनका कहना था कि प्रशासन यदि सजग होता और जौली नहर पटरी पर जो हुआ वह होता ही नहीं। अखिलेश सरकार सिर्फ मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करती है। यहां पर किसी की कोई सुनवाई नहीं है।
सबसे ज्यादा सांप्रदायिक घटनाएं उ. प्र. में
यदि आंकड़ों के लिहाज से बात करें तो उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की सबसे ज्यादा घटनाएं हुई हैं। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013 में उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की देश में सबसे ज्यादा 247 घटनाएं हुईं,। इन घटनाओं में 77 लोगों की जानें गई। पिछले वर्ष मुजफ्फरनगर में हुए दंगों में 65 लोगों की मौत की सरकारी तौर पर पुष्टि की गई है। गृह मंत्रालय की ओर से 2014 के लिए तैयार कराए जा रहे आंकड़ों में यह बात सामने आई है। यदि वर्ष 2014 की बात करें तो इस वर्ष अप्रैल से जून के बीच उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की 32 घटनाएं हुईं। सहारनपुर में हुआ दंगा इसके बाद का है। जिसमें जिला प्रशासन द्वारा तीन लोगों के मरने की पुष्टि की गई है।
धीरे चल रही मामले की सुनवाई
गौरव के पिता रविंद्र जिन्हें गांव व आसपास के क्षेत्र में लोग पटवारी के नाम से भी जानते हैं उनकी भी गौरव और सचिन की हत्या के मामले में गवाही हो चुकी है। इस संबंध में जब उनसे बातचीत हुई तो उनका कहना था कि मामले की सुनवाई बेहद धीरे हो रही है। सरकार को मामले की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन करना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इस मामले में पिछले वर्ष नवंबर में पुलिस ने आरोपपत्र दाखिल कर दिया था। हत्या के आरोपी फुरकान, नदीम, जहांगीर, मुज्जसिन और मुज्जमिन अभी जेल में हैं। रविंद्र का कहना है ' उन्हें डर है कि कहीं मामले की सुनवाई धीरे होने के चलते आरोपी जमानत लेने में कामयाब न हो जाएं।' उन्होंने बताया कि जौली नहर पर पंचायत से लौटते हुए लोगों पर हुए हमले में मामले में 60 से ज्यादा लोगों को नामजद किया गया था लेकिन उनमें से सिर्फ दो ही लोगों की गिरफ्तार हुई है। बाकी मामलों में अभी जांच ही चल रही है।
नहीं पकड़े गए राजेश के हत्यारे
मुजफ्फरनगर दंगों की कवरेज के दौरान दंगाइयों की गोली से मारे गए आईबीएन 7 के पत्रकार राजेश वर्मा के बेटे सारांश का कहना है कि उसके पिता की हत्या का खुलासा आज तक नहीं हुआ है। उल्लेखनीय है कि दंगों में मारे गए राजेश के पुत्र सारांश को राज्य सरकार ने चतुर्थ श्रेणी की नौकरी तो दे दी, लेकिन राजेश के हत्यारों को पकड़ने के संबंध में अभी तक ढिलाई बरती जा रही है। मुजफ्फरनगर का अबुपुरा मुस्लिम बहुल इलाका है।
राजेश की हत्या के बाद दर्ज एफआईआर के अनुसार पिछले वर्ष 07 सितंबर को मोहल्ला अबुपुरा में बलवा होने की सूचना के बाद वे वहां कवरेज करने गए थे। उनके हाथ में कैमरा देखकर दंगाईयों ने कहा कि यह टीवी वाला पत्रकार है। इसे मार दो नहीं तो हम पहचान लिए जाएंगे। इसके बाद उन्हें गोली मार दी गई। दंगाई वहां से भाग निकले। गोली लगते ही राजेश नीचे गिर पड़े। अस्पताल में उपचार के दौरान उनकी मौत हो गई थी।
कुछ स्पष्ट नहीं बोले एडीएम
मुजफ्फरनगर दंगों के एक वर्ष पूरा होने के बाद भी हम जिलाधिकारी से मिलने उनके कार्यालय पहुंचे तो वे कहीं बाहर थे। उनसे भेंट न होने पाने की स्थिति में इस संबंध में एडीएम प्रशासन इंद्रमणि त्रिपाठी से बातचीत की तो उन्होंने रटा-रटाया सा सरकारी उत्तर दिया कि दंगा पीडि़तों को मुआवजा दिया जा चुका है। मामले की जांच के लिए प्रदेश सरकार ने विष्णु सहाय जांच आयोग का गठन किया है। आयोग की रपट आने के बाद सारी स्थिति साफ हो जाएगी। –मुजफ्फरनगर से लौटकर आदित्य भारद्वाज
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