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विश्लेषण-फिर गर्त में पाकिस्तान?

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Sep 1, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Sep 2014 11:35:12

 

इमरान खान की तहरीके इंसाफ और तेज-तर्रार मौलवी ताहिरुल कादरी की पाकिस्तान अवामी तहरीक पार्टियों के इस्लामाबाद में डेरा जमाने और 'आजादी मार्च' निकालने के बीच पाकिस्तान एक बार फिर गंभीर अंदरूनी उठा-पटक से गुजर रहा है। पाकिस्तान की सेना इन नवाज विरोधी तत्वों के समर्थन में नरम बताई जा रही है। विरोधी नेताओं के 'मार्च' को खत्म कराने के लिए नवाज सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गई है। ऐसे में भौगोलिक रूप से पाकिस्तान के बगल में मौजूद भारत को निगाहें चौकन्नी रखनी होंगी। सीमा पर पाकिस्तानी सेना के संघर्षविराम उल्लंघन को भी पूरी दमदारी से रोकना होगा। सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक की मानें तो 1971 से अब तक पाकिस्तान द्वारा अंतरराष्ट्रीय सीमा पर इतनी ज्यादा गोलाबारी पहले कभी नहीं की गई थी। घाटी में भी पाक प्रायोजित जिहादियों की हरकतें बढ़ गई हैं। उल्लेखनीय है कि जब कारगिल की लड़ाई पाकिस्तान सेना ने छेड़ी थी, उस वक्त नवाज प्रधानमंत्री थे, लेकिन उन्हें अपनी सेना की मंशा का पता तक नहीं था। इसलिए भारत में मोदी सरकार के लिए यह सही वक्त है जब वह भारत के सुरक्षा हिंतों को पुख्ता करने के अपने इरादे को मजबूती से प्रदर्शित कर सकती है। 25 अगस्त को होने जा रही विदेश सचिव स्तर की वार्ता से इंकार करना पाकिस्तान को यह साफ संदेश दे गया कि द्विपक्षीय वार्ता शिमला और लाहौर समझौतों में निर्देशित भारत-पाकिस्तान संबंधों के तहत ही बढ़ेगी।
दो शरीफों- इस्लामाबाद में प्रधानमंत्री और रावलपिण्डी में सेना प्रमुख-के बीच मौजूदा तनातनी कश्मीर मुद्दे और तालिबान के प्रति रुख को लेकर है। दोनों मामलों में नवाज वार्ता चाहते हैं, तो सेना प्रमुख बंदूक इस्तेमाल करना चाहते हैं। इसके अलावा जनरल परवेज मुशर्रफ (नवाज के पुराने बैरी) पर चल रहे मुकदमे ने भी लोक-सैन्य सम्बंधों को काफी ठेस पहुंचाई है। 1947 में अपने गठन के बाद से आधे वक्त सेना की जेब में रहे पाकिस्तान में नवाज के चुनाव के बाद एक बार फिर लोकतंत्र का राज स्थापित करने की उम्मीद जगी थी। पाकिस्तान में घटती जा रही सिविल सोसायटी और इसके चाहने वालों में से कई को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री नवाज हिंसाग्रस्त, कंगाली के कगार पर खड़े देश में लोकतंत्र को मजबूत बनाने में कामयाब हो पाएंगे। लेकिन आज पाकिस्तान के मौजूदा हालात देखकर वह उम्मीद हवा होती जा रही है। हालांकि मोदी के शपथ समारोह में नवाज के आने से शांति के कई इच्छुक बड़े खुश हुए थे, लेकिन नवाज आए तो पर सेना को नाराज करने के बाद। पाकिस्तान के सुरक्षा अधिष्ठान के कुछ तत्वों ने उनकी दिल्ली यात्रा को रोकने की कोशिश में 48 घंटे पहले ही आईएसआई के जरिए अफगानिस्तान में हेरात स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास पर हमला कराया था। उनका मकसद कुछ बंधक बनाने का था ताकि नवाज की नाक और नीची हो जाए।
पाकिस्तान आज एक बार फिर उसी गर्त में जाता दिख रहा है। सेना प्रमुख जनरल राहील शरीफ के प्रधानमंत्री नवाज के चुनिंदा होने के बावजूद नवाज और सेना में अफगानिस्तान, भारत, जम्मू-कश्मीर तथा पाकिस्तान की अपनी ही आतंक से लड़ाई पर अहम नीतिगत मसलों पर ठन गई है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि नए घटनाक्रम के बाद ऊंट किस करवट बैठता है। खेद की बात है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई अपने आतंक विरोधी अभियानों में भी बड़ी होशियारी से काम करते हुए भारत विरोधी आतंकी तंजीमों, जैसे-जैशे मोहम्मद और हरकतुल मुजाहिद्दीन तथा सिपहे-साहिबा जैसे दूसरे सुन्नी गुटों को जमकर शह दे रही हैं। आईएसआई अफगानी तालिबानी नेटवर्क को हवा देकर, हिकमतयार और हक्कानी गुटों को भड़काकर अफगानिस्तान में आतंकी गतिविधियों को उकसा रही है। अफगानिस्तान से अमरीकी सेना के पूरी तरह चले जाने के बाद बहुत संभावना है कि आईएसआई उनमें से कुछ तत्वों को जम्मू-कश्मीर में जिहाद के लिए जुटा देगी।
कश्मीर को सैन्य ताकत के बूते किसी तरह कब्जाने में नाकाम होने के बावजूद वे इस मुद्दे को जिलाए रखेंगे, क्योंकि इसे छोड़ना उनकी 'हार' के तौर पर देखा जाएगा। पाकिस्तानी सेना की मंशाओं को जानते हुए हमें आतंकी हरकतों और परमाणु बमों की धमकियों में बढ़ोतरी दिख सकती है। भारत पर दबाव बढ़ाने की कोशिश (खासकर वाशिंगटन से) हो सकती है। लेकिन भारत के लिए वार्ता न करना भी एक कूटनीतिक विकल्प है। हमें विश्व, खासकर अमरीका को बता देना चाहिए कि भारत और पाकिस्तान में से एक को चुन लो। जो पाकिस्तान-आतंकवाद के प्रायोजक-से मतलब रखना चाहते हैं उन्हें भारत के बाजारों में दखल देने की मनाही होनी चाहिए। पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं और चीन के लिए भारत के बाजार आज बड़ा आकर्षण हैं, इसलिए उन्हें चुनना होगा कि वे कहां जाना चाहते हैं। इससे पाकिस्तान पर दबाव निश्चित ही बढ़ जाएगा। -मारुफ रजा, लेखक राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं

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