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हिन्दुत्व-सनातन है, स्वीकार्य भी

by
Aug 30, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 Aug 2014 16:09:47

यदि मैं कहूँ कि 'प्रत्येक मानव जन्म से स्वतंत्र है, और जिस प्रकार वह अपने जीवन की दिशा और धारा तय करने के लिए स्वतंत्र है, उसी प्रकार अपनी रुचि और स्वभाव के अनुसार उपासना पद्घति चुनने के लिए भी स्वतंत्र है। कौन ईश्वर को किस नाम से पुकारता है और उस तक पहुँचने के लिए किस मार्ग पर चलता है यह विवाद का विषय नहीं हो सकता। साथ ही प्रत्येक मनुष्य व जीव समेत सारी सृष्टि के साथ सामंजस्य बनाकर ही मानव समाज को चलना चाहिए''़.़ इस बात से प्राय: सभी लोग सहमत होंगे। परंतु बातचीत के इसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए जब ये कहा जाता है कि उपरोक्त तत्व भारत की मूल प्राचीन संस्कृति है जिसे हिंन्दू संस्कृति कहते हैं और इस तत्व को सही अथार्ें में प्रत्येक भारतवासी को समझना चाहिए तो कई लोग सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता जैसा व्यर्थ का विवाद खड़ा करने लगते हैं। जिस सरल सी बात को सार रूप में सामान्य भारतीय समझता है उसे समझने में कुछ लोगों को कठिनाई क्यों होती है? इन लोगों में दो वर्ग हैं- एक तो वह वर्ग है जो सांप्रदायिक विद्वेष और विघटन की कीमत पर भी राजनैतिक स्वार्थों को आगे बढाते रहना चाहते हैं। दूसरा वर्ग उन कुछ शिक्षित लोगों का है जो भारतीय जीवन मूल्यों से रहित शिक्षा तंत्र में से कुछ कच्चे, कुछ पके, अर्थात् अधपके बाहर निकले हैं।
एक स्वस्थ व्यक्ति को दवा खिलाकर बीमार बनाने वाले चिकित्सक को आप क्या कहेंगे? क्या भारत में सेकुलरवाद जैसे किसी सिद्घांत की आवश्यकता थी? सर्वप्रथम सेकुलरिज्म शब्द सन 1851 में ब्रिटिश लेखक जॉर्ज जैकब हॉल्योक ने प्रयोग किया था। शब्द नया था पर इसके पीछे का विचार 'मुक्त चिंतन' कई सदियों से यूरोप के स्वतंत्र विचारकों के मानस में तैर रहा था। इसके पीछे यूरोप के पुनर्जागरण काल की विरासत थी। विचार था कि चर्च और राज्य के संबंधों का विच्छेद किया जाए, और मानव को सही अथोंर् में उसके अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त हों। यह विचार पूरी तरह नया और विधायक होते हुए भी चर्च की सदियों पुरानी जकड़ की प्रतिक्रिया स्वरूप ही पैदा हुआ था।
जॉर्ज जैकब की सेकुलरिज़्म की परिभाषा इस ऐतिहासिक तथ्य को स्थापित करती है। वेे कहते हैं ''सेकुलर ज्ञान उस ज्ञान को प्रकट करता है जो इस जीवन में प्राप्त हुआ है। जो इस जीवन को सुचारु रूप से चलाने से संबंधित है। इस जीवन के कल्याण के लिए है और जिसे इस जीवन के अनुभवों के आधार पर कसौटी पर कसा जा सकता है।'' स्पष्ट है कि यह एक प्रतिक्रिया है चर्च के द्वारा मृत्यु के बाद के जीवन (परलोक) का भय दिखाकर राज्य के सहयोग से सामान्य मानव के जीवन को नियंत्रित करने की नीति के विरोध में। आधुनिक यूरोपीय व्यवस्था ने चर्च को नकारे बिना राज्य शासन को उसके प्रभाव से मुक्त करने की पहल की, परंतु उसका नैतिक दबाव बना रहा।
क्या भारत में सेकुलरिज़्म जैसे शब्द का कोई औचित्य था? प्राचीन काल से हमारे धर्मांचायोंर् ने न तो कभी सत्ता के सूत्र संभाले और न राज्य के साथ गठबंधन किया। जब देश स्वतंत्र हुआ और हिंदू कोड बिल लाया गया जिसके बनने से तथाकथित (तात्कालिक) अल्पसंख्यक वर्ग को छोड़कर शेष सभी की जीवन पद्घतियां न्यूनाधिक मात्रा में प्रभावित होती थीं, तो सारे देश ने उसे स्वीकार किया। भारत में हजारों संप्रदायों के लोग फलते-फूलते रहे। यहाँ तक कि संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान में भी इस शब्द को जोड़ने की जरूरत नहीं समझी गई। फिर यह सेकुलर शब्द कहां से आया? स्वतंत्रता प्राप्ति के दो दशक बाद आपातकाल लगाकर देश को निरंकुश तानाशाह तंत्र का गुलाम बनाने का षड्यंत्र किया गया। इंदिरा जी के हाथ में सत्ता की बागडोर बनी रहे, इसके लिए उनकी सुविधा के अनुकूल संविधान को ढालने का प्रयास किया गया और इस कृत्य की वैधता को सिद्घ करने के लिए समाजवाद और सेकुलरिज़्म ये दो शब्द संविधान में ठूंसे गए, ताकि राज्य और सरकार के विरुद्घ 'षड्यंत्र' की अफवाहों को वास्तविकता बनाकर प्रस्तुत किया जा सके।
स्वाभाविक रूप से सेकुलरिज़्म शब्द के लिए भारतीय समाज में कहीं औचित्यपूर्ण स्थान नहीं था, और इसीलिए ये शब्द तुष्टीकरण की राजनीति के गलियारों का मुहावरा और वामपंथी साहित्य की सुर्खियाँ बना रहा। शाहबानो मामले से लेकर कश्मीरी हिंदुओं के दुर्भाग्य तक और संसद में दी जा रही 'सांप्रदायिकता' की दुहाई से लेकर दिन-प्रतिदिन के राजनैतिक घटनाक्रम तक यही सिद्घ होता है कि जहां पश्चिमी जगत में सेकुलरिज़्म का आशय सामान्य नागरिक को चर्च के अनावश्यक दबाव से मुक्त रखना था वहीं भारत में सेकुलरिज़्म का अर्थ राजनैतिक अवसरवादिता व अल्पसंख्यकवाद और तुष्टीकरण का अर्थ वोटबैंक का पोषण मात्र है।
पहले ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा और बाद में वोट बैंक की राजनीति करने वालों ने प्राचीन भारत के जीवन मूल्यों को धुंधला करने का प्रयास किया। उन्होंने धर्म को रिलीजन या संप्रदाय अथवा मजहब कहना शुरू किया। फिर हिंदू संस्कृति को संप्रदाय बनाकर प्रस्तुत किया और सेकुलरिज़्म का अनुवाद किया 'धर्मनिरपेक्षता'। आज इन्हीं शब्दों के विकृत अथांर्े को उछालकर अवसरवाद और सांप्रदायिकता की राजनीति की जा रही है।
इस वैचारिक कुहासे को मिटाने के लिए इन शब्दों के वास्तविक अर्थ का बार-बार स्मरण करना-करवाना आवश्यक है।

संस्कृति : राष्ट्र जीवन का सार

भारतीय मनीषा कहती है, कि जिस प्रकारनदियां अलग रास्तों से बहकर एक ही समुद्र में मिलती हैं, उसी प्रकारअलग-अलग रास्तों से (साधना करके) आने वाले साधक एक ही परमात्मा को प्राप्तकरते हैं। यह हिंदू संस्कृति का मूल तत्व है। साथ ही जड़-चेतन में एक हीपरम सत्य का दर्शन एवं उसके कारण उत्पन्न 'वसुधैव कुटुंबकम्' की भावना तथाजीव मात्र के प्रति करुणा इसकी पहचान है। भारत ने साधना के सभी प्रचलितमागोंर् को मान्यता दी है। इतना ही नहीं, भविष्य में जो नयी साधनापद्घतियाँ विकसित होंगी उनके लिए भी द्वार खुले रखे हैं। भारत में हजारोंवषार्ें से प्रचलित उपासना पद्घतियों में हजारों रंग भरे हुए हैं। सारीविपरीतताओं के होते हुए भी इनमें सार्वभौमिक स्वीकार्यता का उदार तत्वआवश्यक रूप से मिलता है। यह सार तत्व हमारी संस्कृति है। यही हिंदुत्व है।इसलिए हिंदुत्व बुद्घ, महावीर, नानक और ईसा के अनुयायियों तथा शिव-शक्ति, विष्णु, जिहोवा और अल्लाह के उपासकों को समान भाव से स्वीकार करता है। यज्ञकरने वालों, ध्यानियों, योगियों, भक्तों तथा नास्तिकों को समान स्वतंत्रतादेता है। यही हिंदू तत्व दर्शन है। यह इस धरती पर उत्पन्न हुआ उदारतम्विचार है। ऐसे में 'भारत हिंदू राष्ट्र है, हिंदुत्व भारत की पहचान है,' ऐसा कहना उदार हृदय का प्रतीक है या संकुचित मानसिकता का? इस उदार विचारवाली भूमि पर सेकुलरिज़्म की दुहाई का कोई औचित्य है क्या?

 
हिन्दू कौन…
जो ईश्वर तक पहुंचने के एक से अधिक मार्ग हैं, ऐसा मानता है, मानव मात्र के प्रति पे्रम और सारी सृष्टि को एकात्म भाव से देखता है, भारतभूमि को अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि मानता है, यहाँ के मनीषियों और महापुरुषों को अपना पूर्वज मानता है, वह हिंदू है। चाहे उसकी उपासना पद्घति कुछ भी हो। गत 17 अगस्त को मुंबई में विश्व हिंदू परिषद के स्वर्णजयंती समारोह मंें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ़ मोहन भागवत ने जब कहा कि भारत हिंदू राष्ट्र है। हिंदुत्व भारत की पहचान है तथा यह समस्त मत-संप्रदायों को अपने में समाहित कर सकता है, तो राजनीति और मीडिया के एक वर्ग ने इस पर व्यर्थ का विवाद खड़ा करने का प्रयास किया। जिसने भी डॉ़ भागवत के भाषण को ध्यान से सुना है, वो जानता है, कि वह भारत की उदार परंपरा के बारे में बोल रहे थे। साथ ही उन्होंने आह्वान किया था कि हमारे मंदिर, पानी और श्मशान में भेद नहीं होना चाहिए। इतनी स्पष्टता से कही गई बात पर हंगामा खड़ा करने का असफल प्रयास किया गया। इसी कार्यक्रम में बौद्घ, जैन तथा सिख संप्रदाय के संत भी मंचासीन थे। उन्होंने भी ठीक इन्हीं अथोंर् में हिंदू तथा हिंदुत्व शब्द का प्रयोग किया। इस महत्वपूर्ण बात को जनसामान्य तक पहुँचाने की जिम्मेदारी को पूरा करने का प्रयास किसी ने नहीं किया। क्षणिक प्रसिद्घि के लिए भूखे रहने वाले राजनीतिज्ञ 'सेकुलरिज़्म' की रक्षा के लिए मैदान में कूद पड़े। गोवा के उपमुख्यमंत्री फ्राँसिस डिसूजा के ऐसे ही बयान पर तमाशा खड़ा किया गया था। ऐसे ही तिल का ताड़ और रस्सी का सांप बनाकर बार-बार संसद को बाधित किया जा रहा है।
प्रकाश की गति से चल रही सूचनाओं एवं करोड़ों मस्तिष्कों में चल रहे विश्लेषण के इस युग में झूठे प्रतीक व आडंबर ठहरने वाले नहीं हैं। नई पीढ़ी का तथ्य और सत्य के प्रति प्रबल आग्रह है। एंड्रॉयड और इंटरनेट पीढ़ी को बहकाना अब संभव नहीं है। हिंदू और हिंदुत्व के यथार्थ को वो कितना भी झुठलाने या धुंधला करने का प्रयास करें, परंतु स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, महात्मा गाँधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और डॉ़ राधाकृष्णन द्वारा की गई व्याख्याएँ उन्हें निरुत्तर करती रहेंगी। जीवन की दिन-प्रतिदिन की अनुभूतियों को कुतकों व वितंडावाद द्वारा दबाया नहीं जा सकेगा। सच एक दिन सर चढ़कर बोलेगा।

'रिलीजन'-मत-संप्रदाय-पूजा पद्घति नहीं है धर्म

रिलीजन-मत-संप्रदायका अर्थ होता है किसी विशेष विचार विश्वास या पूजा पद्घति को मानने वालेलोगों का समूह। इस्लामिक परिभाषाओं के अनुसार मज़हब की व्याख्या भीमत-विशेष के रूप में की गई है। जबकि धर्म के बारे में ऋषियों ने कहां है किजो धारण करता है, वह धर्म है। व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और वैश्विकमानवता द्वारा पालन किए जाने वाले वे मूलभूत नियम अथवा अनुशासन जिनकेद्वारा यह जीवन सबके लिए कल्याणकारी रूप से चल रहा है उनका पालन धर्म है।जैसे मानव द्वारा मानव की सेवा व सहयोग मानव-धर्म है। सृष्टि के समस्तजीवों के प्रति करुणा का भाव, यह धर्म है। फिर धर्म के और भी अनेक रूपदेखने को मिलते हैं – पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, शिष्य का धर्म, राजा काधर्म। इसी लिए कहा गया है कि धर्म कल्याण करने वाला है। महाभारत के युद्घमें एक परिवार के लोग आपस में लड़े। युद्घ मानव मूल्यों के लिए था, उसेधर्मयुद्घ कहा गया। शिव का उपासक रावण अधर्मी कहलाया। कृष्ण का मामा कंसअधर्मी कहलाया।
अनेक देवी-देवताओं की उपासना करके वरदान एवं सिद्घियाँप्राप्त करने वाले असुर अथवा अधर्मी कहलाए। स्पष्ट है कि धर्म, मत-संप्रदाय – उपासना पद्घति नहीं है। धर्म वह है जो सृष्टि का पालन करता है। विडंबनायह है कि भारत को 'धर्मनिरपेक्ष' बनाने का 'प्रयास' किया जा रहा है। –प्रशांत बाजपेई

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