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वर्ष: 9 अंक: 9 5 सितम्बर,1955
डोगरा जी तथा उपाध्याय जी का भव्य स्वागत
श्री प्रेमनाथ डोगरा द्वारा कश्मीर-समस्या पर महत्वपूर्ण प्रकाश
कलकत्ता। 'स्वागत समिति का मैं नितांत आभारी हंू कि उसने स्वागत समारोह का आयोजन कर मुझे आपके दर्शन प्राप्त करनेका सौभाग्य प्रदान किया। जम्मू से कलकत्ता तक का मार्ग बड़ा लम्बा है। उस हिमालयस्थ नगर से लेकर इस विशाल समुद्र तटस्थ नगर तक की लम्बी यात्रा हमारे देश कीविविधता,विशालता तथा समृद्धि के साथ-साथ एकता का अनुभव कराती है। इस एकता ने ही अनेक ऋषियों को,आचार्यों को,वीर पुरुषों तथा देशभक्तों को समय-समय पर जन्म दिया है। इस एकता के विरुद्ध शेख अब्दुल्ला ने जो आकाक्षाएं की थीं उनको चुनौती देने के लिए महान् डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसी कलकत्ता नगर से श्रीनगर गये थे और इतना ही नहीं तो उन्होंने इस एकता को स्वरक्त से सींच भी दिया। वे जीवनपर्यन्त स्वयं को इस एकता का मूर्तमन्त स्वरूप बनाए रहे तथा उसकी आवश्यकता के लिए स्वजीवन का बलिदान करके उन्होंने अभूतपूर्व आदर्श उपस्थित कर दिया, ये शब्द अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष श्री प्रेमनाथ डोगरा ने एक स्वागत समारोह में कहे।
इस स्वागत समारोह का आयोजन जनता द्वारा फ्रीपोज में किया गया था इसमें वकील, डाक्टर, विधानसभा सदस्य, पत्रकार तथा व्यापारी आदि प्रतिष्ठित नागरिकों ने भाग लिया। पं. प्रेमनाथ जी के साथ साथ जनसंघ के महामंत्री पं. दीनदयाल उपाध्याय का भी समारोह मे स्वागत किया गया।
गोआ और कश्मीर की समस्याएं हमारी विदेश नीति की कसौटी
रूस या चीन में प्रधानमंत्री पं. नेहरू का हुआ स्वागत सफलता का आधार नहीं माना जा सकताजनसंघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधिसभा तथा पूर्वांचल अधिवेशन के अध्यक्ष-पद से पं.प्रेमनाथ डोगरा की गर्जना
कलकत्ता। 'कश्मीर और गोआ की समस्याएं,लंका तथा दक्षिणी अफ्रीका में भारतीयों के साथ किया जा रहा व्यवहार,पाकिस्तान तथा तिब्बत में भारतीय हित-रक्षण कुछ एसे प्रश्न हैं जिनका भारतीयों से सीधा-सीधा सम्बन्ध है। भारतीय विदेश-नीति की सफलता या असफलता की वही कसौटी है-प्रधानमंत्री का रूस में या अन्यत्र हुआ स्वागत इसकी कसौटी नहीं हो सकता' ये शब्द अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष जम्मू केसरी पं. पे्रमनाथ जी डोगरा ने भारतीय जनसंघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा तथा पूर्वांचल अधिवेशन के अध्यक्षपद से भाषण करते हुए कहे।
पूर्वी बंगाल के हिंदुओं का प्रश्न राष्ट्रीय-सम्मान का प्रश्न
पूर्वांचल और विशेषरूप से पश्चिमी बंगाल की समस्याओं का अखिल भारतीय महत्व प्रदर्शित करते हुए श्री डोगरा ने कहा 'पूर्वी बंगाल से हिन्दूओं का सतत निष्कासन एक गंभीर समस्या है। यह निष्कासन विभाजन से पुर्व प्रारम्भ हुआ था तथा अभी चालू है। लगभग पचास लाख हिंदू अपना घरबार छोड़कर,पूर्वजों की सम्पत्ति लुटाकर शरणार्थी के रूप में भारत आ चुके हैं तथा अभी आने को शेष हैं। यदि निष्कासन इसी प्रकार चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जबकि ढाकेश्वरी का भूखण्ड हिंदुओं से पूर्णत: रिक्त हो जाएगा।'
पाकिस्तानी आक्रमण
कश्मीर पर बढ़ते हुए पाकिस्तानी आक्रमणों का वर्णन करते हुए प्रेमनाथ जी ने स्पष्ट किया, 'भारत सरकार के दृष्टिभ्रम के कारण कश्मीर पर निरन्तर पाकिस्तानी आक्रमण बढ़ रहा है। कश्मीर भारत का अंग है कि नहीं? यदि पं. नेहरू इससे सहमत हैं कि वह हमारे देश का अंग है तो आवश्यक है कि वे कश्मीरियों के मस्तिष्क में इस सम्बंध में भ्रम न रहने दें। पं. नेहरू की 'जनमत' की संदेहात्मक बातों के कारण कश्मीरी इस तत्व को ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं कि 'कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है।'और जब तक मानसिक स्थिति व्यवस्थित नहीं होती कश्मीर के विकास तथा प्रगति के निमित्त किए जानेवाले समस्त प्रयास व्यर्थ हैं।…'
दिशाबोध – भवन-निर्माण व राष्ट्र-निर्माण एक समान : श्रीगुरुजी
अब यह मकान है,अपने लिए उपयोगी है। उसके भिन्न-भिन्न अवयव हैं,यानी ईंट,पत्थर,चूना आदि सब एक दूसरे से विशिष्ट रचना से जुड़े हुए हैं। यदि इन ईंटों का ढेर बनाकर,उसपर चूना-लकड़ी और लोहा डाल दिया जाय,तो वो ढेर मात्र बने रहेंगे। उसको कोई मकान नहीं कहेगा। जब एक मकान की रचना का विचार उत्पन्न होता है तो हम उसका एक मानचित्र बनाते हैं। सामग्री इकट्ठा करके एक अत्यंत उपयोगी,सुखकारक,रक्षा करनेवाले गृह का निर्माण करते हैं। यदि इस प्रकार का विचार न हो और कोई अस्थायी मकान चाहिए,ईंट के ऊपर ईंट रखकर,घटिया चूना लगाकर एक छोटा सा मकान खड़ा किया जाता है। ऐसा मकान अच्छी प्रकार से रक्षा नहीं कर सकता,सुखकारक भी नहीं होता।
इस राष्ट्रजीवन का निर्माण कर उसकी सुदृढ़ रचना के लिए ऐसा ही विचार करना होगा। राष्ट्र में आज समाज ढेर के समान है। अत: उन्नति हो नहीं सकती। इसकी रचना करने की आवश्यकता है। प्रत्येक ईंट अपने-अपने स्थान पर रखी जानी चाहिए। यदि कोई बेढब हो,तो उसे ठीक आकार दिया जाना चाहिए। समाज के उत्कर्षपूर्ण जीवन के लिए हमारा ढेर के रूप में रहना लाभदायक नहीं हो सकता। इसकी सुरचना करना आवश्यक है। हमें प्रत्येक छोटी से बड़ी शाखा तक अपने-आपको एक संगठन में समझना,विचारों को ठीक आकार देना और सबको संगठन का संस्कार प्रदान करना है। इन संस्कारों के फलस्वरूप सबको सूत्रबद्ध रख सकें,यह अपनी शाखा का हेतु है। (श्री गुरुजी समग्र:खण्ड 3 पृष्ठ 221)
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