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निर्मल गंगा- गंगा को सहेजने में जुटे हाथ

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Aug 30, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 Aug 2014 14:44:04

निर्मल गंगा-अविरल गंगा का संकल्प देश के निष्ठावान प्रत्येक व्यक्ति एवं संगठन का दायित्व है। गंगा ही नहीं सभी जीवन-दायिनी नदियां, जलस्रोत तथा पर्यावरण विश्व की चिन्ता का विषय है। लोगों का अनुमान है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। व्यापारिक दूरदृष्टि रखनेवाले अनेक देशों ने इसीलिए नदियों तथा जलस्रोतों की येन-केन प्रकारेण कब्जा करने की योजना बनाई है। 'स्वच्छ जल' के नाम पर 'मिनरल वाटर' की बोतल 15 से 20 रुपए तक बेचकर उन्होंने खरबों का वैश्विक बाजार बनाने का मार्ग प्रशस्त किया है। इस प्रचार में अनेक स्वैच्छिक संगठनों को भी जोड़ा गया है।
इसके विपरीत, इस चिंता को देश की संस्कृति, अस्मिता तथा जीवन-मूल्यों की रक्षा का दायित्व मानने वाले अनेक प्रेरक साधक भी सामने आये। परमार्थ निकेतन के स्वामी चिदानंद मुनि महाराज (उत्तराखण्ड) गंगा अभियान को जीवन लक्ष्य बनाने वाली सुश्री उमा भारती (बुन्देलखण्ड), अपने निवास को 'नदी का कर' कहने में धन्यता अनुभव करने वाले सांसद अनिल दवे (मध्य प्रदेश) ही चर्चित नाम नहीं हैं। मिस्र की नील नदी के उद्धारक एमिल लुडविग की भांति नदियों के उद्गम से समर्पण संगम बिन्दु तक के पदयात्री दम्पत्ति अमृतलाल बेगड़ ने नर्मदा तथा कलौ वेत्रवती गंगा अर्थात कलियुग में बेतवा ही गंगा है के शास्त्र वाक्य को हृदयंगम करने वाले हरगोविन्द गुप्त की साधना में अपना जीवन समर्पित कर दिया। इन दोनों साधकों को शासन ने सम्मानित किया है। राष्ट्रपति एस. वेंकटरमण ने बेतवा के बहाने सरिता तटीय सांस्कृतिक खोज करने वाले हरगोविन्द गुप्त को, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जन्मशती के समारोह में सम्मानित किया था। मुझे सौभाग्य प्राप्त है कि दैनिक जागरण कानपुर के संवाददाता के नाते मुझे उस कवरेज हेतु चिरगांव भेजा गया तथा मैं उसका प्रत्यक्षदर्शी बना।
कुछ व्यक्तियों ने अपनी संस्थाओं के माध्यम से इस संकल्प की दिशा में कार्य किया, उनमें अनुपम मिश्र (गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली) राजेन्द्र सिंह (तरुणसंघ, राजस्थान) तथा डॉ. कृष्णगोपाल व्यास (भोपाल) उल्लेखनीय हैं। लेकिन केवल इतने से नदियों का कल्याण होने वाला नहीं है। इसमें लघुता की प्रतीक उस गिलहरी का भी योगदान हो सकता है जिसने समुद्र की रेत में लोट लगाकर, अपने शरीर पर रेत लगाकर, उसे सेतुबंध तक भेजा था। सूर्य का विकल्प बनने का हौसला रखने वाला पददलित मिट्टी का दीपक भी घोर अंधकार में पथिकों का मार्ग ज्योतित करता है। इस क्रम में उन सेवाव्रती व्यक्तियों की भूमिका भी हो सकती है, जिनकी लक्ष्य सूची में भले ही गंगा न हो किन्तु उनके मनोमस्तिष्क में देश की अस्मिता, संस्कृति तथा जीवनमूल्यों की प्रतीक गंगा के प्रति कुछ विचार पनप सकता है। ऐसी ही एक प्रेरक संस्था है संस्कार भारती जो रंगमंच तथा ललित कलाओं की अखिल भारतीय संस्था है। उसने अपने कार्यक्षेत्र में गंगा को किस तरह जोड़ा यह एक प्रेरक प्रसंग है।
मालूम हो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख विचारक स्व. मोरोपन्त पिंगले के मन में विचार आया कि संस्कृति के क्षेत्र में, अपसंस्कृति का मुकाबला करके संस्कार सक्षम समाज का निर्माण करने के लिए कक्षाओं को माध्यम बनाकर एक संगठन खड़ा किया जाये। उन्होंने इस निमित्त सरस्वती नदी के खोजी डा. हरिभाऊवाकणकर तथा कलाप्रदर्शनियों के माध्यम से विश्व हिन्दू परिषद के प्रचार-प्रसार को सशक्त करने वाले वरिष्ठ प्रचारक बाबा योगेन्द्र जी को चुना। गहन मंत्रणा के बाद जनवरी 1981 में संस्कार भारती का अस्तित्व सामने आया। इन दोनों को महासचिव तथा संगठन मंत्री का दायित्व सौंपकर अखिल भारतीय स्तर पर कार्य प्रारंभ हुआ।
इस संस्था के उद्देश्यों में गंगा अभियान नहीं था किन्तु संस्कार सक्षम समाज निर्माण में कला मार्ग का संकेत था। इसके निमित्त भारत के गौरव जागरण के लिए भारत की जीवन-रेखा तैयार करने की योजना बनी। ऐसा प्रयोग योगेन्द्र जी विश्व हिन्दू परिषद द्वारा देश विदेश के प्रतिनिधियों के सामने प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन में धर्मगंगा प्रदर्शनी बनाकर कर चुके थे। गंगा दर्शन प्रदर्शनी में गंगा के उद्गम गोमुख से सागर में समर्पण बिन्दु गंगा सागर तक इसकी महत्ता, संस्कृतिक प्रभाव तथा जन-प्रेरणा का पाथेय था। गांव-गांव में इसके प्रदर्शन किए गये। जन जागरण का वातावरण बना। वर्तमान में भी गंगा अभियान में उसकी प्रासंगिकता है। इस जनजागरण के बाद जनता को आकृष्ट करने के लिए एक कलापर्व गंगा आरती के नाम से काशी के राजेन्द्र प्रसाद घाट पर आयोजित हुआ। संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद्मश्री डा. शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव (पूर्व सांसद एवं कुलपति) के नेतृत्व में सफाई अभियान चला। इसके साक्षी प्रदेश के दो राज्यपाल महामहिम सूरजभान, आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री तथा अशोक सिंहल, सुश्री उमाभारती सहित अनेक हस्तियां बनीं। नवसंवत्सर की पूर्व संध्या में यह कार्यक्रम शाम से भोर तक चलता है तथा गंगा का जल सूर्यदेव को अर्ध्य देकर नववर्ष का स्वागत किया जाता है। ख्यातिप्राप्त संगीत की स्वरलहरी गूंजी, नूपुरों की पगध्वनि ने गंगा को तरंगित किया, प्रतिष्ठित चित्रकारों ने कल्पना के रंग भरकर चित्र बनाए। अनेक दिग्गज हस्तियों की सहभागिता रही। विभिन्न बारह धर्म-पंथ संप्रदायों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। काशी के कला जगत में एक नया इतिहास बना। वर्षभर ऐसा भव्य कार्यक्रम देखने को जनता लालायित रहती है।
इस बीच एक चौंकाने वाला समाचार मिला कि दीपा मेहता 'वाटर' फिल्म बनाने जा रही हैं, इसमें महिलाओं काशी तथा गंगा पर विकृत दृश्य तथा आपत्तिजनक संवाद हैं। एक प्रचारक ने कहीं से फिल्म की पाण्डुलिपि प्राप्त की तथा इसका अध्ययन करके संस्था को बताया। दीपा मेहता से कार्यकर्ताओं द्वारा आग्रह किया गया कि आप पहले पाण्डुलिपि का अध्ययन कर लीजिए, काशी के पंडितों तथा आचार्यों से गंगा की महत्ता तथा गरिमा का अध्ययन करलें, आपत्तिजनक अंश हटाएं, तब तक के लिए फिल्म की शूटिंग रोक दें। उन्होंने आग्रह ठुकराकर, शासन से संरक्षण का सहारा लेकर शूटिंग जारी रखी। संस्कार भारती तथा अन्य समवैचारिक संगठनों के सामने एक ही विकल्प शेष था- 'वाटर' के खिलाफ जन आन्दोलन। फिल्म के खिलाफ जनसैलाब उमड़ पड़ा। महिलाएं अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए भारी संख्या में जुड़ीं तथा आबाल वृद्ध व्यक्ति गंगा की अस्मिता की रक्षा के सेनानी बने। आन्दोलन ने इतना भयंकर रूप ले लिया कि दीपा मेहता को विवश होकर काशी से बोरिया बिस्तर बांधकर अन्यत्र जाना पड़ा। संगठन की शक्ति को सफलता मिली। इस आन्दोलन में विशेष निमित्त बने संस्कार भारती के प्रान्तीय संगठन मंत्री जितेन्द्र जिनको संस्कार भारती की प्रेरणा से संन्यासी बनकर गंगा महासभा के बैनर तले कार्य करने का वातावरण बन गया।
गंगा-अभियान में संस्कार भारती ने वर्ष 2014 में एक नयी कड़ी जोड़ी गंगा पर केन्द्रित चित्रमाला तैयार करके प्रदर्शनी लगाने की। संस्था का कार्यालय झण्डेवालान से 33, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर हवन पूजन के साथ स्थानान्तरित करना था। तिथि तय हुई 23 फरवरी-इस पावन पर्व पर मां गंगा की आराधना के लिए गंगा की थीम पर चित्र बनाने के लिए दो दिवसीय अखिल भारतीय कार्यशाला प्रमुख सुनील विश्वकर्मा के निर्देशन में जुटे। बाबा योगेन्द्र जी ने दीप जलाकर मार्ग बताया और चित्र बनकर तैयार हो गये। उन चित्रों की यहां प्रदर्शनी हुई। कला प्रेमियों ने उन्हें सराहा तथा प्रदर्शनी के चित्र गंगा महासभा को सौंप दिये गये जिससे वह उनका व्यापक स्तर पर प्रदर्शन कर सके।
गंगा अभियान का संकल्प जारी है। साहित्य, संगीत, चित्रकला, संगीत-नृत्य, नाटक, रंगोली तथा लोककलाओं के माध्यम से इस कार्य को आगे बढ़ाया जा रहा है। देश की सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाएं ऐसी दृष्टि और पाथेय लेकर इस अभियान में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर सकती है।-अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'

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