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गुरोत्सव (5 सितंबर) पर विशेष
भगत सिंह क्रांतिकारी नहीं, आतंकी थे', 'राम कल्पना की उपज हैं', 'रामायण का कोई प्रमाण नहीं है' और न जाने कैसी बेसिर-पैर की झूठी बातों को प्रचारित करते आ रहे देश के नेहरूवादी कारिन्दों और वामपंथियों को दीनानाथ बत्रा का नाम सुनते ही आजकल मानो सांप संूघ जाता है। अपने देश के वास्तविक इतिहास और संस्कृति से देश की भावी पीढ़ी को परिचित कराने का जो बड़ा संकल्प लेकर बत्रा जी चल रहे हैं उसने भारत के बौद्धिक जगत में एक बड़ी चर्चा चलाई है। इससे चिढ़ कर उसी सेकुलर जमात ने एक बार फिर शोर मचाना शुरू कर दिया है कि 'शिक्षा का भगवाकरण' किया जा रहा है।
दरअसल, जब से नरेन्द्र मोदी की सरकार बनी है तब से इन इतिहाकारों को यह डर सताने लगा है कि कहीं उनकी उन पुस्तकों को पाठ्यक्रमों से हटा न दिया जाए, जिनमें भारत के इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है और भारतीय संस्कृति को विकृत किया गया है। उनके इन गलत तथ्यों का भण्डाफोड़ करने वालों में सबसे प्रमुख हैं दीनानाथ बत्रा। इसलिए उन्होंने दीनानाथ बत्रा को ही अपने निशाने पर रखा है। बहरहाल, इस बात पर दो मत नहीं हो सकते कि दीनानाथ जी स्वयं एक उच्च कोटि के शिक्षाशास्त्री हैं। इसके अनेक प्रमाण हैं। बच्चों को राष्ट्रीयता का संवाहक और इस संस्कृति का पुत्र मानने वाले दीनानाथ कहते हंै कि अभी बच्चों को जो शिक्षा दी जा रही है वह उन्हें भारतीय मूल्यों और परम्पराओं से नहीं जोड़ पा रही है। वे कहते हैं 'शिक्षा क्षेत्र में विभिन्न दायित्वों में रहकर काम करने के दौरान यह महसूस हुआ कि शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन होना चाहिए। फिर यह भी लगा कि यह परिवर्तन चलते-फिरते नहीं होगा। इसलिए सभी दायित्वों से मुक्त होकर पुस्तकों का अध्ययन शुरू किया। सबसे पहले एनसीईआरटी की पुस्तकें पढ़ीं। इन पुस्तकों को पढ़कर मैं चौका ही नहीं, अपितु आन्दोलित हो गया।
छठी से बारहवीं कक्षा में पढ़ाई जाने वालीं इतिहासकार रोमिला थापर की पुस्तकों में लिखा गया है कि 'हमारे पूर्वज गोमांस खाते थे। हवन और यज्ञ में पुरोहित को दक्षिणा में स्त्री भी दी जाती थी और गाय भी। रामायण और महाभारत में काल्पनिक बातें लिखी गई हैं। उनमें कोई तथ्यात्मक बात नहीं है।' मुगलों का भी इन पुस्तकों में महिमामण्डन किया गया है। साथ में यह लिखा गया है कि 'गुरु गोबिन्द सिंह जी मुगलों के दरबार में मनसबदार थे और गुरु तेग बहादुर हत्यारे थे।' वहीं सिख गुरुओं और हजारों-लाखों हिन्दुओं का खून बहाने वाले औरंगजेब को जिन्दा पीर बताया गया है और इसके विपरीत आक्रांताओं से लोहा लेने वाले और भारतीय संस्कृति के संरक्षक शिवाजी को लुटेरा कहा गया है। इसी तरह हमारे स्वतंत्रता सेनानियों, जैसे-भगत सिंह आदि को 'आतंकवादी' बताया गया है। इन पुस्तकों को पढ़ने के बाद दीनानाथ जी की चिढ़ और बढ़ गई। उन्हें लगा कि यह तो बहुत गड़बड़ है। इनसे हमारे बच्चे क्या सीखेंगे?
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एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित इतिहास की पुस्तकों में ही नहीं, बल्कि हिन्दी की पुस्तकों में भी अनेक विसंगतियां हैं। श्री बत्रा हिन्दी की पुस्तकों में अंग्रेजी की कविता देखकर बड़े आश्चर्यचकित हुए। उनका आश्चर्य तब और बढ़ा जब उन्हें हिन्दी की एक पुस्तक 'क्षितिज' में फारसी के सात शेर, अंग्रेजी के 180 शब्द और उर्दू के 120 शब्द मिले। इस पुस्तक में असंसदीय शब्द भी काफी हैं। विडम्बना यह है कि ये पुस्तकें अभी भी पढ़ाई जा रही है।
कहा जाता है कि शिक्षा के माध्यम से वैज्ञानिक दृष्टिकोण बढ़ता है, लेकिन एनसीईआरटी की पुस्तकों में किस तरह बच्चों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण बढ़ाया जा रहा है या उनके साथ मजाक किया जा रहा है,यह तय करना मुश्किल है। बच्चों को एक कहानी पढ़ाई जाती है- सूर्य समुद्र के पास आया और उसे कहा कि हम दोनों के मिले हुए बहुत दिन हो गए हैं, तुमसे मिलने की बड़ी इच्छा हो रही है। समुद्र ने कहा कि अभी मिल लेते हैं, तो सूर्य ने कहा कि नहीं, तुम्हें मेरे घर आना होगा। समुद्र ने कहा कि मेरा तो बहुत बड़ा परिवार है। मेरे साथ तो मछलियां भी आएंगी और मगरमच्छ भी आएंगे। इस पर सूर्य ने कहा कि कोई बात नहीं।
फिर समुद्र सूर्य की तरफ चला। समुद्र के
विशाल परिवार को देखकर सूर्य डर गया और ऊपर की ओर भागने लगा। तभी से सूर्य समुद्र के ऊपर ही है।
चन्द्रमा के बारे में भी कुछ ऐसी ही बातें की गई हैं। कहा गया है कि एक बुढि़या चरखा चला रही थी। चन्द्रमा आया और बुढि़या की पीठ पर मार कर चला गया। इस तरह उसने कई बार बुढि़या को मारा। बुढि़या को गुस्सा आ गया
और उसने झाड़ू उठाकर चन्द्रमा की ओर मारा। इसके बाद चन्द्रमा झाड़ू सहित बुढि़या को लेकर ऊपर की ओर चला गया। तभी से चन्द्रमा
के ऊपर बुढि़या चरखा काट रही हैै।
(रिमझिम,-3,पृ-22)
श्री बत्रा सवाल करते हैं कि इन बातों से बच्चों का कौन-सा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित हो रहा है? नक्सलवादियों के पक्ष में भी कविताएं हैं। इनमें कहा गया है कि देश से गद्दारी करना कोई गलत कार्य नहीं है। बालमन में इस तरह की बातें रोपना क्या उचित है?
इस लम्बी लड़ाई में अडिग बत्रा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक श्रीगुरुजी को अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं। श्रीगुरुजी सामाजिक सुधार के प्रबल समर्थक थे। बत्रा भी श्रीगुरुजी की तरह एनसीईआरटी की पुस्तकों में सुधार लाने के लिए कृतसंकल्प हो गए। वे कहते हैं, 'एनसीईआरटी एवं अन्य संस्थानों की पुस्तकों के शुद्धिकरण के लिए शिक्षा बचाओ आन्दोलन शुरू किया गया। लेख लिखे गए, गोष्ठियां की गईं, यहां तक कि संसद के सामने भी प्रदर्शन किए गए। लेकिन जब यह महसूस होने लगा कि इन सबसे काम नहीं बनेगा तो हम लोग न्यायालय गए। कुल 10 मुकदमे किए गए। इनमें से 9 पर जीत मिली है और 1 मुकदमा जारी है। ये मुकदमे केवल एनसीईआरटी की पुस्तकों पर ही नहीं थे, इनमें दिल्ली विश्वविद्यालय और इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) की पुस्तकें भी शामिल हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय की एक पुस्तक में माता सीता और हनुमान जी के बारे में भी बड़ी आपत्तिजनक बातें लिखी गई थीं। इसी तरह इग्नू की पुस्तक में दुर्गा जी के लिए अपशब्द लिखे गए थे। उन सब पर शिक्षा बचाओ आन्दोलन को जीत मिली है।' आज की शिक्षा व्यवस्था को कागजी खानापूर्ति मानने वाले बत्रा जी यदि इसके लिए कृत-संकल्प दिखते हैं तो यह बात 'काल्पनिक चिन्ता' कहकर खारिज नहीं की जा सकती है। आज विश्व के शीर्ष 100 शिक्षण संस्थानों में एक भी भारतीय संस्थान का नाम न होना उस राष्ट्रीय चिन्ता का प्रतीक है, जिसका प्रतिनिधित्व बत्रा जी करते हैं।
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास
शिक्षा बचाओ आन्दोलन के बाद शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास का गठन किया गया। बत्रा जी कहते हैं, आज शिक्षा केवल कक्षा में बन्द है। शिक्षा की परिभाषा केवल यह रह गई है कि कक्षा में काले और मरे हुए शब्दों को दिमाग में ठंूसना और परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाओं में उन्हें उगलना। यानी ठंूसना और उगलना तक ही शिक्षा सिमट गई है। इसकी थोड़ी लम्बी परिभाषा भी देख लें। एक छात्र कोई परीक्षा पास कर लेता है तो वह किसी प्रतियोगिता में बैठता है। प्रतियोगिता भी पास कर लेता है तो उसे कोई रोजगार मिल जाता है, बाकि लाखों छात्र भटकते रहते हैं। आज की शिक्षा का मतलब यही रह गया है। आज शिक्षा की परिभाषा बौनी हो गई है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि अन्तर्निहित शक्तियों का प्रकटीकरण करना और समग्रता का विकास करना ही शिक्षा है। आज शिक्षा की जो हालत है उसे देखते हुए शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास की स्थापना की गई।
दीनानाथ आगे कहते हैं, 'शिक्षा जब-जब राजनीति की चेरी हुई है तब-तब महाभारत हुआ है। महाभारत में गुरु द्रोणाचार्य ने राजनीति की थी। उन्होंने एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया और अर्जुन को अपना परम शिष्य बनाया। किसी भी शिक्षक की सोच राजनीति वाली नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा होता रहा तो महाभारत बार-बार होगा। रामराज्य तब आएगा जब गुरु नैतिक बल के आधार पर राजा के दरबार में जाएंगे। गुरु वशिष्ठ ने नैतिक बल के आधार पर राजा दशरथ पर अंकुश रखा था। उन्होंने दशरथ से यज्ञ की रक्षा के लिए राजकुमारों की मांग की और उन्हें देना पड़ा। इसलिए रामराज्य आया।
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने भी सोचा कि सरकार के पीछे घूमने से बात नहीं बनेगी। सरकार को अपने सुझाव भेजते रहते हैं। इसके साथ ही जनजागरण भी कर रहे हैं। स्थान-स्थान पर जा रहे हैं और अच्छे शिक्षाविदों का चयन कर रहे हैं।' बत्रा जी इस बात के भी आग्रही हैं कि बच्चों को मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाए। वे कहते हैं,'दुनिया के जो 20 विकसित देश हैं, उनमें से 16 देशों में मातृभाषा में शिक्षा दी जाती है और केवल 4 में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाती है। और जो 20 पिछड़े हुए देश हैं वे अंग्रेजी के कारण पिछड़े हैं। अंग्रेजी के कारण बच्चों की विकास गति कम होती है।' छह कदम
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के छह कदम चुने गए हैं। पहला कदम है व्यक्तित्व विकास, दूसरा है चरित्र निर्माण, तीसरा है पर्यावरण, चौथा है वैदिक गणित, पांचवां स्वायत्तता और छठा है मातृभाषा में शिक्षा। इन्हीं छह विषयों पर न्यास कार्य कर रहा है। यहां स्वायत्तता शिक्षा से जुड़ी हुई है। शिक्षा में राजनीति नहीं होनी चाहिए, राजनीति में शिक्षा होनी चाहिए। हम यह देखते हैं कि जब सरकार बदलती है,तो पाठ्य पुस्तकें भी बदल जाती हैं। इस हालत में बच्चा क्या करे? इसलिए शिक्षा में पूर्ण स्वायत्तता होनी चाहिए। न्यास ने पर्यावरण की भारतीय अवधारणा पर काम करना शुरू कर दिया है। अब तक पूरे देश में 50 केन्द्र स्थापित हो चुके हैं। दिल्ली में करीब 1000 बच्चों को वैदिक गणित सिखाया है।
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दिल्ली में श्रीनिवासपुरी के पास एक झुग्गी बस्ती में पांच बच्चे संस्कार केन्द्र चलाते हैं। उन बच्चों को पहले न्यास ने प्रशिक्षण दिया। अब वे बच्चे वहां के निवासियों को अच्छी आदतें, व्यक्तित्व विकास आदि का प्रशिक्षण देते हैं। न्यास के प्रयासों से पंजाब टेक्नीकल यूनिवर्सिटी, जालंधर में नैतिक शिक्षा, वैदिक गणित, पर्यावरण आदि की पढ़ाई शुरू हो गई है। इसी प्रकार संस्कृत विश्वविद्यालय, नागपुर में वैदिक गणित पर डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्स शुरू हो गए हैं। मध्य प्रदेश के झाबुआ में एक स्थान ऐसा है, जहां बिना परीक्षक परीक्षा होती है। कुरुक्षेत्र में भी ऐसा ही होता है। अध्यापकों और छात्रों में आमूलचूल परिवर्तन आया है। अध्यापक भी खुश हैं, विद्यार्थी भी और अभिभावक भी प्रसन्न हैं। यह सब न्यास के कार्यों का सुपरिणाम है। अन्य शिक्षण संस्थान और संगठन भी कह रहे हैं कि हमारे यहां भी लोगों को भेजिए।'
शिक्षा बचाओ आंदोलन और शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के आंदोलनों और मुकदमों ने सेकुलर और वामपंथी इतिहासकारों में खलबली मचा दी है। -अरुण कुमार सिंह
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