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लोकसभा चुनावों के बाद हुए उपचुनावों का परिणाम सबके सामने है। जैसी सफलता भाजपा प्रत्याशियों को लोकसभा चुनावों में मिली, वैसी इन उपचुनावों में नहीं मिली। भाजपा के मतदाताओं ने भी इन उपचुनावों में वैसी दिलचस्पी नहीं दिखाई। नतीजतन भाजपा को अपेक्षा के अनुरूप सफलता नहीं मिली। यदि बिहार की बात करें तो भाजपा को रोकने के लिए और अपनी राजनैतिक साख बचाए रखने के लिए एक दूसरे के धुर विरोधी लालू और नीतिश ने हाथ मिला लिया। लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद दोनों को अपनी स्थिति स्पष्ट हो गई थी। इसलिए मजबूरी में ही सही लेकिन दोनों को एक साथ आना पड़ा।
लोकसभा चुनावों के बाद विभिन्न राज्यों में 18 सीटों पर उपचुनाव हुए थे। बिहार में बदलते राजनीतिक समीकरणों के चलते बिहार की 10 सीटों पर सबकी नजरें टिकी हुई थीं। जिसमें से भाजपा केवल 4 सीटें जीतने में सफल हो पाई। जबकि कांग्रेस एक, राजद तीन व जदयू ने दो सीटों पर विजय हासिल की। अगले वर्ष बिहार में विधानसभा चुनाव भी होने है। ऐसे में बिहार की तरफ सबकी आंखें होना भी लाजमी था। देशभर में बिहार ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां 2015 में चुनाव होने हैं। उपचुनावों का भी अपना महत्व होता है। कुछ विशेषज्ञ इसे जनता का फैसला मानते हैं। वहीं कुछ इसे खारिज करते हैं। यदि हम हाल ही में हुए उपचुनावों की बात करें तो यह राज्यवार अलग-अलग तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। दो दलीय राज्यों जैसे राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़,हिमाचल प्रदेश, गुजरात में उपचुनाव परिणामों के अलग मायने होते हैं। वहीं हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे बहदलीय व्यवस्था वाले राज्यों में उपचुनावों के अलग मायने होते हैं। राज्यों में होने वाले चुनाव में उम्मीदवार की अपनी साख भी मायने रखती है। इसके अलावा स्थानीय मुद्दे भी वहां काफी महत्वपूर्ण होते हैं। वैसे भी विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं बल्कि स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है। वर्ष 1987 में तब कांग्रेस सांसद अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद लोकसभा सीट खाली की और वहां से स्वर्गीय वीपी सिंह ने उपचुनाव लड़ा। उन्हें 202,996 वोट मिले और वे 110751 वोटों के अंतर से उन्होंने कांग्रेसी उम्मीदवार सुनील शास्त्री को हराया। उस समय के अनुसार वोटों की संख्या काफी कम थी, इस लिहाज से ये आंकड़े उस समय काफी बड़े थे। यह चुनाव उस समय मील का पत्थर साबित हुआ क्योंकि तब एक तरफ कांग्रेस थी दूसरी तरफ सभी विरोधी दल।
उपचुनाव का महत्व इस कारण भी अधिक होता है क्योंकि यह सरकार विरोधी या सामान विचारधारा वालेे दलों को एक मंच पर लाने में भूमिका निभाता है। यदि हम बिहार के परिदृश्य में उपचुनावों के परिणामों की तुलना करें तो अलग स्थिति पाते हैं। 2009 में इसी तरह के हालात में लोकसभा चुनाव के बाद 18 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए थे। तब राजग दलों भाजपा और जदयू के पास पूर्व में 12 सीटें थीं, लेकिन उपचुनाव के नतीजों में राजग को केवल 5 सीट जीतने में ही सफलता मिली। 2010 विधानसभा चुनाव में परिणाम काफी अलग देखने को मिला। राजग बिहार विधानसभा में 243 सीटों में से 206 सीटें जीतने में सफल रहा। 1999 के लोकसभा चुनाव में तो राजग ने 324 विधानसभा सीटों में से 192 जीतकर तब की राजद सरकार को पूरी तरह पीछे छोड़ दिया था लेकिन 2000 के विधानसभा चुनाव में राजग को पराजय का सामना करना पड़ा था। इसके बाद संयुक्त बिहार में राबड़ी देवी के नेतृत्व में फिर से राजद का गठन हुआ। उपचुनाव परिणाम राजनैतिक दृष्टिकोण से बिहार भाजपा के लिए सबक है। भाजपा को अब बदले राजनैतिक परिदृश्य के अनुसार अपने का बदलना होगा। बदले राजनैतिक समीकरणों को देखते हुए भाजपा को अपनी ठोस रणनीति तैयार करनी होगी।
भाजपा को लालू और नीतीश के अलावा कांग्रेस से भी मुकाबला करने के लिए तैयारी करनी होगी। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि उपचुनावों में खराब प्रदर्शन का एक कारण यह भी है कि लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे। उनके नेतृत्व में पूरा लोकसभा चुनाव लड़ा गया। जबकि लोकसभा चुनावों के बाद हुए उपचुनावों में चुनाव क्षेत्रीय नेताओं के नेतृत्व में लड़ा गया। उपचुनावों में भाजपा के मतदाताओं ने लोकसभा चुनावों जितनी दिलचस्पी भी नहीं दिखाई। जिसके चलते उपचुनावों में भाजपा का प्रदर्शन आशा के अनुरूप नहीं रहा। बिहार में राजद जदयू और कांग्रेस तीनों का महागठबंधन है। लोकसभा चुनावों में भाजपा और लोक जनशक्ति ने गठबंधन किया था। लोकसभा चुनावों में उसे बड़ी सफलता मिली लेकिन लोकसभा चुनावों के बाद विधानसभा के लिए हुए इन उपचुनावों में ऐसा नहीं हुआ। बिहार में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा को तीनों दलों से मुकाबला करना होगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि अभी से भाजपा अपनी रणनीति तैयार करनी शुरू कर दे। -अभय कुमार
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