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मंथन-संघ-प्रवाह में से प्रगटा एक बौद्धिक कर्मयोगी

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Aug 30, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 30 Aug 2014 14:48:27

डॉ. हरवंशलाल ओबराय समग्र संघ-प्रवाह में से प्रगटा एक बौद्धिक कर्मयोगी

सच, मैं स्वामी संवित् सुबोध गिरि का ऋणी हूं कि उन्होंने पांच खंडों में 'डॉ. हरवंश लाल ओबराय समग्र' प्रकाशित करके संघप्रवाह के एक दैदीप्ययान बौद्धिक रत्न की स्मृति को झाड़-पोंछकर ताजा कर दिया। अंग्रेजी में एक कहावत है- 'आउट आफ साईट, आउट आफ माईन्ड' (आंखों से ओझल तो स्मृति से गायब)। 89 वर्ष से अनवरत बह रहा संघ-प्रवाह असंख्य ऐसे तेजस्वी अंत:करणों की अखंड मालिका है जिन्होंने कर्म के क्षेत्र में, बौद्धिकता के क्षेत्र में असामान्य कतृर्त्व को प्रगट किया और जो या तो प्रसिद्धि पराङ्मुखता में खो गये या विस्मृति के गर्त में समा गये। नामों की सूची इतनी लम्बी है कि आज उन सब नामों को खोज पाना भी संभव नहीं रहा है। डॉ. हरवंश लाल ओबराय भी ऐसे ही नवरत्नों की सूची में बहुत ऊंचा स्थान पाने के अधिकारी हैं। विस्मृति की धूल झाड़ने के बाद मुझे स्मरण आता है कि साठ के दशक में अ.भा. विद्यार्थी परिषद के अध्यक्ष के नाते वे बहुत चर्चित थे। लम्बे पंजाबी कोट और संकरी मोरी के पजामे में जब वे मंच पर आते तो पहली नजर में उनका व्यक्तित्व पंडाल या हाल में एकत्र विशाल श्रोता-समूह को बहुत प्रभावित नहीं करता था, पर जब उनका विद्वतापूर्ण ओजस्वी, धाराप्रवाह वक्तृत्व आगे बढ़ता तो सभी श्रोता मंत्रमुग्ध रह जाते। उन दिनों विद्यार्थी परिषद के अ.भा. अध्यक्ष पद के लिए चयनित होना स्वयं में बहुत बड़ी बात थी। परिषद का संगठन देशभर में बहुत प्रभावी स्थिति प्राप्त कर चुका था।
सन् 1925 में पाकिस्तान में छूट गये रावलपिंडी में जन्मे हरवंशलाल ओबराय की जीवनयात्रा फूलों की सेज जैसी सुगम नहीं रही। अपने माता-पिता की दस संतानों में वे तीसरे नम्बर पर थे। बाल्यकाल में ही संघ-प्रवाह का अंग बन गये। रावलपिंडी में ही स्नातक तक शिक्षा पाई, साथ ही संघ के द्वितीय वर्ष प्रशिक्षित कार्यकर्ता की स्थिति में पहुंच गये। युवावस्था में प्रवेश करते ही देश विभाजन का वज्रपात झेलना पड़ा। अपने क्षेत्र से अंतिम हिन्दू सिख को सुरक्षित बाहर ले आने का कर्तव्य पूरा करके ही खंडित भारत की गोद में शरण ली। कुछ दिन मेरठ में बिताकर दिल्ली को आगे की पढ़ाई का केन्द्र बनाया। दर्शनशास्त्र और हिन्दी में एमए करके पंजाब के कई विद्यालयों में शिक्षण कार्य करके जालंधर के डीएवी कालेज में दर्शनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष पद पर पहुंच गये। विद्यार्जन, शिक्षक कर्म के साथ-साथ संघ-साधना भी अखंड चलती रही। 1948 में संघ-सत्याग्रह करके जेल गये तो 1975-77 के आपतकाल में कुख्यात 'मीसा' के अन्तर्गत उन्नीस महीने जेल में काटे। ज्ञान-साधना और राष्ट्र-साधना के संगम का उच्च उदाहरण प्रस्तुत किया।
अपने इन्हीं सब गुणों के कारण प्रो. हरबंशलाल अ.भा. विद्यार्थी परिषद के अ.भा. अध्यक्ष पद पर 1960-61, 1961-62, दो वर्ष तक लगातार अभिषिक्त हुए। उनके पाण्डित्य, ओजस्वी धाराप्रवाह वक्तृत्व की ख्याति चारों ओर फैल गयी थी, जिससे आकर्षित होकर यूनेस्को ने उन्हें यूरोप और अमरीका आदि देशों में भारतीय दर्शन, संस्कृति और इतिहास पर भाषणमाला देने के लिए आमंत्रित किया। और जीवन के अंत तक उनकी विदेशयात्रा का यह क्रम चलता रहा। कुल मिलाकर 106 देशों की उन्होंने यात्रा की, वहां के विश्वविद्यालयों में और बौद्धिक मंचों पर उन्होंने अपने भाषणों की गहरी छाप छोड़ी। 1963 में अमरीका में स्वामी विवेकानन्द के जन्मशताब्दी समारोह में उनके शिकागो व्याख्यान (1893) पर डा. ओबराय के भाषण ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। वहां प्रसिद्ध उद्योगपति बिड़ला परिवार का एक सदस्य चन्द्रकांत बिड़ला भी श्रोताओं में उपस्थित थे। इस भाषण को सुनकर वे चमत्कृत रह गये। उनके पितृतुल्य सेठ जुगलकिशोर बिड़ला ने हरवंशलाल जी की प्रतिभा को पहचाना। उन्होंने रांची में अपने बीआईटी नामक संस्थान में दर्शन-मानविकी में स्वतंत्र संकाय की स्थापना करके हरवंशलाल जी को उस संकाय का अध्यक्ष बना दिया और इस प्रकार छोटा नागपुर क्षेत्र उनका स्थायी कार्यक्षेत्र बन गया। इस क्षेत्र में विदेशी ईसाई मिशनरियों के द्वारा भोले-भाले वनवासियों के मतान्तरण का कार्य तेजी पर था। हरवंशलाल जी के योद्धा मन ने इसे अपने लिए चुनौती माना और मतान्तरण की गति को अवरुद्ध करने के लिए ईसाई पादरियों के विरुद्ध खम ठोंक कर खड़े हो गये। बौद्धिक धरातल पर चुनौती देने के साथ-साथ उन्होंने मैदान में उतर कर भी उन्हें ललकारा। धर्मप्राण श्री जुगल किशोर बिड़ला ने उन्हें मतान्तरण की चुनौती के विरुद्ध रांची में स्व. आचार्य रघुवीर के सरस्वती विहार के अनुकरण पर 'संस्कृति विहार' नामक संस्थान स्थापित करने की प्रेरणा एवं आर्थिक सहयोग प्रदान किया। अप्रैल 1964 में उन्होंने संस्कृति विहार की स्थापना का उपक्रम आरंभ किया। वहां अध्ययन, प्रचार एवं शोध की व्यवस्था की। 20 मई 1965 को मां आनन्दमयी की अध्यक्षता एवं वृन्दावन के प्रज्ञाचक्षु सन्त स्वामी शरणानन्द जी के उद्बोधन के साथ काशी के मूर्धन्य विद्वान महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज ने 'संस्कृति विहार' का विधिवत् उद्घाटन किया। डा. हरवंशलाल ने 19 सितम्बर 1983 को रायपुर स्टेशन पर एक दुर्घटना में अपनी अकाल मृत्यु तक 18 वर्ष संस्कृति विहार के निदेशक का दायित्व निर्वाह किया।
स्वयं बहुपाठी विद्वान होते हुए भी उनका विश्वास था कि समाज में गौरवभाव जगाने के लिए मोटे-मोटे ग्रंथों की रचना से अधिक चित्र-प्रदर्शनियों का योगदान रहता है। इसलिए उन्होंने अनेक चित्र प्रदर्शनियों का निर्माण किया। जैसे 'हिमालय रक्षा प्रदर्शनी, श्री अरविंद घोष प्रदर्शनी, शिवाजी प्रदर्शनी, वनवासी जीवन-परम्परा प्रदर्शनी, सात्विक आहार-विहार प्रदर्शनी आदि अनेक प्रदर्शनियों की रचना की। वे अपनी विदेश यात्राओं में भी ऐसी किसी प्रदर्शनी को साथ ले जाते थे। संस्कृति विहार में भी उन्होंने लगभग 3000 चित्रों, प्रतिमाओं एवं कला कृतियों का देश-विदेश से लाकर संग्रह किया था। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी भोलेभाले वनवासियों के छलपूर्वक मतान्तरण को रोकने की। उसके लिए उन्होंने हिमाचल प्रदेश की शांता कुमार सरकार के आमंत्रण पर विदेशी पादरी निष्कासन अभियान चलाया। 19 दिसम्बर 1965 को संस्कृति विहार की ओर से प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को एक ज्ञापन दिया। 2 अक्तूबर 1968 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को पुन: एक ज्ञापन दिया। रांची के रोमन कैथोलिक चर्च को ब्रिटिश सरकार ने 1916 में 46 एकड़ भूमि का पट्टा दे दिया था। उसकी अवधि पूरी होते ही बिहार सरकार से मांग की कि भूमि वापस ली जाए। रांची में एक पादरी थोटेंकल ने भगवावस्त्र धारण करके स्वयं को स्वामी नरेन्द्रानन्द घोषित कर दिया और दिव्य ज्योति आश्रम में शिक्षा के बहाने वनवासी बच्चों का मतान्तरण करने लगा। डा. हरवंश लाल ने उसका भण्डाफोड़ किया।
रांची ही 'रामकथा की उत्पत्ति और विकास' नामक ग्रंथ के लेखक फादर कामिल बुल्के का केन्द्र था। फादर बुल्के ने प्रस्थापना की कि छोटानागपुर ही राक्षसों का निवास स्थान था और रावण ओरांव जाति का राजा था। डा. हरवंशलाल ने इस भ्रामक प्रचार के लिए फादर बुल्के को सार्वजनिक मंच पर चुनौती दी, किन्तु बुल्के में उसे स्वीकार करने का साहस नहीं हुआ। इसी प्रकार प्रसिद्ध मार्क्सवादी लेखक राहुल सांकृत्यायन ने 'वोल्गा से गंगा' नामक पुस्तक प्रकाशित की तो हरवंशलाल ने दिल्ली में राहुल जी की उपस्थिति में ही उनकी स्थापना का खंडन करते हुए कहा कि राहुलजी को 'वोल्गा से गंगा' पुस्तक को समुद्र में फेंक कर 'गंगा से वोल्गा' शीर्षक पुस्तक लिखनी चाहिए।
अपने अगाध पाण्डित्य, अद्भुत स्मरण शक्ति, ओजस्वी धाराप्रवाह वक्तृत्व के कारण डा. हरवंशलाल रांची क्षेत्र में भारतीय संस्कृति और देशप्रेम के निर्भीक प्रवक्ता के रूप में बहुत लोकप्रिय हो गये। उनके इन्हीं गुणों ने आकर्षित किया 18 वर्ष के एक मारवाड़ी किशोर सन्तोष लाठ को। सन्तोष लाठ को संस्कृति और राष्ट्र के प्रति गौरवभाव अपन्ो परिवार और संघ-परिवार की पृष्ठभूमि से प्राप्त हुआ था, पर रांची का उस समय का बौद्धिक वातावरण इन भावनाओं से शून्य था। संस्कृति और इतिहास की हर समय आलोचना करता रहता था। सन्तोष का आहत मन डा. हरवंशलाल की ओर आकृष्ट हुआ और उसने स्वयं को उनके शिष्य रूप में निवेदित कर दिया। उसकी इच्छा थी कि डा. हरवंशलाल की विद्वता पुस्तक रूप में देश को प्राप्त हो अत: उसने शर्त लगायी कि डा. हरवंशलाल प्रतिदिन दो घंटा अपने भाषणों को लेखबद्ध करेंगे। पर वैसा होना नहीं था, क्योंकि हरवंशलाल जी किताबी पाण्डित्य से अधिक बौद्धिक योद्धा थे। पर फिर भी सन्तोष लाठ धैयपूर्वक उन प्रकाशित, अप्रकाशित और मौखिक भाषणों के एकत्रीकरण में जुटा रहा। इसी बीच उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति ने उसे संन्यास पथ पर बढ़ा दिया और स्वामी संवित् सोमगिरि जी से दीक्षा पाकर वह 'संवित् सुबोध गिरी' बन गया। किन्तु डा. हरवंशलाल ओबराय के प्रति अपने गुरु ऋण से उऋण होने के लिए उनकी ज्ञान निधि को संकलित करने के कार्य में वह अनवरत लगा रहा। अन्तत: हरवंशलाल जी के तीन छोटे भाइयों- डा. मदनलाल, श्री बृजभूषण व चन्द्रप्रकाश ओबराय- के सहयोग से 36 वर्ष लम्बे परिश्रम के बाद पांच खंडों में डा. हरवंशलाल ओबराय समग्र को प्रकाशित करने में सफल हुआ। सुबोधि गिरि जी का कहना है कि यह संकलन की इतिश्री नहीं है। अभी बहुत कुछ शेष है जिसमें वे लगे हुए हैं। 2010 में इन पांच खंडों के प्रकाशन के बाद सुबोध गिरि जी ने अनेक छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के रूप में डा. हरवंशलाल के विचारों का संकलन प्रकाशित किया है।
ओबराय समग्र, प्रथम खंड में 'राष्ट्रीय समस्याएं और इतिहास' विषय पर केन्द्रित रचनाएं एकत्र की गयी हैं। इस खंड में ईसाई समस्या के विवेचन के अलावा विदेशों में भारतीय संस्कृति की यात्रा पर कई लेख हैं। डा. ओबराय की अमरीका यात्रा का वर्णन भी मिलता है। 'महापुरुष: व्यक्तित्व एवं कतृर्त्व' शीर्षक, खण्ड 2 में प्राचीन ऋषियों-मुनियों-आचार्यों से लेकर मध्यकालीन सन्तों एवं आधुनिक भारतीय मनीषियों की जीवन झांकी उपलब्ध है। खण्ड तीन में 'धर्म-दर्शन-संस्कृति – उत्सव- विज्ञान एवं मनोविज्ञान' जैसे गंभीर विषयों का सरल- सहज शैली में विवेचन किया गया है। खण्ड चार में 'वेदान्त दर्शन' तो खण्ड पांच में 'गीता-दर्शन की सार्वभौमिकता' का प्रतिपादन किया गया है। 2688 पृष्ठों में समाहित यह अमूल्य बौद्धिक सामग्री डा. हरवंशलाल ओबराय की ज्ञान-मंजूषा को हमारे सामने खोल देती है। यह यात्रा और आगे बढ़ती यदि 1983 में एक दुर्घटना में उनकी अकाल मृत्यु न हुई होती तो। वे हस्तरेखा शास्त्र विशेषज्ञ भी थे। अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पूर्व ही उन्होंने अपने प्रिय शिष्य सन्तोष लाठ (अब संवित् सुबोध गिरि) और अपनी हस्तरेखाएं देखकर भविष्यवाणी कर दी थी कि अब उनकी जीवन यात्रा पूरी हो रही है, किन्तु मृत्यु के डेढ़ वर्ष पूर्व 1982 में 'अरेबिया पर भारतीय प्रभाव' शीर्षक से अंग्रेजी शोध निबंध के आधार पर उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से डी.लिट. की डिग्री लेकर अपनी बौद्धिक यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव पार कर लिया था। – -देवेन्द्र स्वरूप   27 अगस्त, 2014

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