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इतिहास में यह पहला अवसर है जबकि पूरे विश्व मे रोज का भोजन सामान्य जन की चर्चा का विषय बन गया है। किसी भी देश अथवा समाज में भोजन के प्रति इतनी आशंकायें कभी नहीं थीं । हर समाज अपनी स्वयं की उत्पादित या आवश्यकता पड़ने पर किसी और देश से आयात किये हुये अनाज, फल, सब्जी अथवा मांस बिना किसी भय के प्रयोग में लाता था। भारत तो स्वस्थ भोजन का मूल उत्पादक स्थल ही था । यह उन कुछ इने गिने देशों में था जहां विशाल संख्या में पारम्परिक बीज हजारों वर्षों से प्रचलन में थे। इन सबका श्रेय हमारे वनवासी समुदाय तथा ग्रामीण किसान परिवारों को ही है, आज की तरह तत्कालीन शासन व्यवस्थाओं को नहीं। बीसवीं शताब्दी में प्रारम्भ से मध्य तक प्रकाशित पुस्तकों तथा आलेखों मे धान, गेहूं, विभिन्न दालों, तिलहन आदि के अतिरिक्त देशी उत्पाद सांवा, काकुन, कोदो, कुटकी, रागी, मंडुआ आदि नामों से अनेक उत्पादों का संदर्भ मिलता है। हर मौसम मे अलग-अलग उपज तथा अलग-अलग खानपान। आयुर्वेद की परम्परा में ऋतुओं में भोजन की इसी विविधता को प्रतिष्ठित करती रही हैं। स्थानीय एवं मौसम में फलने, पकने, तथा उपलब्ध होने वाले फल तथा उत्पाद ही स्वस्थ होते हैं यह यहां का मूल खाद्य-दर्शन था।
संकट का आधारभूत कारण
पश्चिम में कृषि में रसायन का प्रयोग कतिपय वैज्ञानिकों के अल्पकालीन संकुचित प्रयोगों में प्राप्त आंकड़ों के कारण 19वीं शताब्दी में प्रारम्भ हुआ। यह सर्वाधिक उन देशों में ही सर्वप्रथम स्वीकार किया गया जिनके पास खेती की प्राचीन परम्परा थी ही नहीं। हालांकि सौ वर्ष पूर्व अमरीका के चिन्तक वैज्ञानिकों ने पूरे विश्व के अनुभव के आधार पर यह बताने का प्रयास किया था कि 40 शताब्दियों से अधिक वषार्ें से खेती करने वाले पूर्व के देशों: भारत, चीन, जापान तथा कोरिया आदि में की जा रही पारम्परिक खेती अपेक्षाकृत अधिक विज्ञान सम्मत थी। समस्या कृषि के विज्ञानीकरण द्वारा उसे उन्नत करने की नहीं थी, वस्तुत: इसके पीछे पश्चिमी औद्योगिक देशों के पास व्यापार का एक नया रास्ता खुलता दिख रहा था। विलायत से भारत भेजे गये वैज्ञानिक सर अल्बर्ट हावर्ड, जिनको भारत की कृषि को विज्ञानपरक बनाने का दायित्व दिया गया था, यहां के किसानों की पद्घति को देख तथा समझ कर यह कहने तथा लिखने को बाध्य हुये कि भारत के किसान उनके शिक्षक (प्रोफेसर) बनने के योग्य हैं। उनके पूसा प्रवास, इन्दौर तथा अन्य स्थानों के प्रयोगों का ही प्रतिफल उनकी 1940 मे प्रकाशित विश्वविख्यात पुस्तक 'एन एग्रीकल्चर टेस्टामंेट' के रूप मे विश्व के समक्ष आया। रसायनों के प्रयोग के भूमि, फसलों तथा वातावरण पर क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं यह सर हावर्ड ने उन दिनों ही अच्छी तरह समझाने का महत्वपूर्ण कार्य किया था पर पीड़ा की बात यह है कि उन प्रयोगों तथा निष्कर्षों को पश्चिम मे तो कुछ मान्यता मिली भी और वहां जैविक खेती एक नई विधा के रूप में विकसित हुई, सर हावर्ड की यह पुस्तक पश्चिमी देशों के लिये जैविक खेती की बाइबिल बन गई पर हमारे देश के लब्धप्रतिष्ठ कृषि वैज्ञानिकों एवं मुर्गी के पेट से सारे अण्डे एक बार ही निकालने के लिये व्यग्र सुशिक्षित शासकों- प्रशासकों को यहां के पारम्परिक ज्ञान के आलोक मे प्रकृति (मिट्टी, पानी, हवा, प्रकाश आदि) तथा पशु-पक्षी एवं वृक्षों आदि का खेती मे महत्व बिल्कुल समझ में नही आया। भारत देश भी पश्चिमी अंधानुकरण के कारण तथा उनके व्यावसायिक दीर्घकालिक षड्यंत्र का सहयोगी एवं भोक्ता बन कर अल्पकालिक प्रयोगों के परिणामों को अन्तिम सत्य समझने, औद्योगिक रासायनिक खेती अपनाने तथा प्रकृति को पूर्णतया नकारने की घातक भूल कर बैठा। इस तरह यह स्वतंत्र स्वाभिमानी समाज विदेशी रसायन-उद्योगों, व्यापारियों तथा बाहरी कर्ज के चंगुल में फंसा और फंसता गया।
विज्ञान जिसे अपने शोधकार्य तथा अर्जित ज्ञान के आधार पर मानवजीवन तथा प्रकृति को सशक्त करना चाहिये था वह व्यापार तथा अन्तरराष्ट्रीय कूटनीति का सहयोगी बना दिया गया और यह सारा पाप विकास के नाम पर हुआ और हो रहा है। आज यह स्थिति केवल भारत की ही नहीं अपितु उन तथाकथित विकसित देशों की भी है जहां का एक विशाल जनसमूह भोजन के द्वारा स्वास्थ्य में जहरीलेपन तथा असंख्य अपरिचित बीमारियों से भारत की तरह ही ग्रस्त हो रहा है।
जीनांतरित बीज -नवीनतम आतंक
भारत में कई वषार्ें से लगातार यह प्रयास चल रहा है कि जीनांतरित बीजों के लिये यहां का बाजार पूरी तरह खुले। जी़ एम़ बीज, जो अभी सीमित रूप में कपास जैसी अखाद्य फसलों में व्यवहार में लाये जा रहे हैं, अनाज तथा फल-सब्जियों में प्रविष्ट करा दिये जायेंगे। हमारे पड़ोसी बंगलादेश मे बी़टी़ बैंगन के प्रवेश तथा उसके परिणामों से वहां बढ़ रही अस्वीकृति अभी हाल की ही घटना है। रूस जैसा विशाल देश जी़एम़ उत्पादों के ही भय से अपनी खाद्य की जरूरत के लिये पर निर्भर होने के बावजूद इस निर्णय पर पहुंचा है कि संयुक्त राज्य अमरीका तथा यूरोपीय यूनियन से खाद्य का आयात रोक दिया जाय। संयुक्त राज्य अमरीका के अन्दर भी सामान्यजन के बीच उनका स्वयं का उत्पाद लगातार अस्वीकृत किया जा रहा है और उनका यह प्रयास कि विश्व का बाजार मुक्त हो जाय केवल ऐसी वस्तुओं की खपत बढ़ाने का ही रास्ता है। विकास के लिये विदेशी धन का निवेश भारत मे भी चर्चा का विषय है और वह खुदरा व्यवसाय तक को अपनी गिरफ्त में लेना चाहता है।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सद्प्रयास
एक ओर जहां विज्ञान में पूंजीवादी व्यावसायिक सोच हावी है और उसे कुछ के अनियंत्रित लाभ के साधन के रूप में देखा जा रहा हैं वहीं दूसरी ओर विज्ञान तथा तकनीक के समाज के प्रति महत्वपूर्ण दायित्व की समझ रखने वाले विश्व के अनेक देशों के वैज्ञानिक तथा चिन्तक इस प्रयास में भी लगे हैं कि सारे तथ्य सामान्य जन के समक्ष लाये जायें और भावी संकट का समाधान खोजा जाय। संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण एवं जनस्वास्थ्य से संबंधित विभिन्न घटकों तथा विश्वबैंक की पहल तथा उन सब के सहयोग से विगत दशक के दौरान विश्व के 400 वैज्ञानिकों एवं शोधकर्मियों के एक समूह ने कृषि, मानवीय जीवन, भूख, गरीबी तथा असंतुलित विकास आदि विषयों को दृष्टिगत करते हुये एक व्यापक अध्ययन किया जिसकी रिपोर्ट 2008 के अप्रैल माह में इण्टरनेशनल असेसमेण्ट ऑफ एग्रीकल्चर नॉलेज-साइंस एण्ड टेक्नालॉजी फॉर डेवलपमेण्ट शीर्षक के अन्तर्गत जारी की गई। इस रिपोर्ट में यह तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आया कि शाश्वत रूप से अब से चार गुना उत्पादन तथा संसाधनों के संरक्षण के क्षेत्र में जैविक खेती ही पूर्णतया सक्षम है। आज जलवायु, ऊर्जा, भोजन तथा आर्थिक संकट आदि से उबरने का एक मात्र रास्ता है कि हम अपनी खाद्य तथा कृषि व्यवस्था को तत्काल बदलें ताकि सुस्वास्थ्य, जैव-सांस्कृतिक विविधता, पर्यावरणीय संतुलन तथा समानता की निरन्तरता कायम हो सकें। कृषि की लागत का वास्तविक निर्धारण उसके विक्रय मूल्य में परिलक्षित होना चाहिये। किसानों को उनकी भूमि की गुणवत्ता अथवा जैव-विविधता कायम रखने हेतु किये निवेश के लिये समुचित भुगतान किया जाना चाहिये क्योंकि विश्व-समुदाय के स्वास्थ्य तथा खाद्य सुरक्षा हेतु इनका संवर्द्घन अतीव आवश्यक है।
प्रस्तुत रपट से यह तथ्य स्पष्ट एवं अधिकारिक रूप से सामने आया कि भारत में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में कृषि को जैविक तथा प्राकृतिक स्वरूप की ओर पारम्परिक ज्ञान तथा संसाधनों के संरक्षणात्मक शोध का आधार लेकर लौटना होगा। रिपोर्ट मे सुझाये भूमि के स्वास्थ्य, उसकी उवर्रता-वृद्घि तथा जैव विविधता के लिये किसान को भुगतान की बात क्या की जाय आज तो उसे उसके उत्पादन का ही सही मूल्य नहीं मिलता, उसके श्रम की तो पूछ ही नही है।
समग्र सजीव कृषि – एकमात्र विकल्प
यदि इन तथ्यों पर ध्यान दें तो यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि हवा अब विपरीत दिशा में बह रही है और जागृत समाज को अधिक दिनों तक बरगलाया नहीं जा सकता। जागरूक किसान जो अपनी भूमि और उपलब्ध संसाधनों की रक्षा करना चाहते हैं, जैविक (सजीव) तथा प्राकृतिक खेती की ओर बड़ी संख्या में पूरी गम्भीरता के साथ प्रवृत्त हो रहे हैं। सजीव किसानों की अथवा उनके साथ मिलकर काम करने वाली संस्थायें यथाशक्ति तथा यथासंभव इस परिवर्तन को दिशा दे रही हैं। यह बात अलग है कि संगठित क्षेत्र तथा बहुत सी सरकारें अपनी पूरी शक्ति तथा अकूत साधनोंे के बल पर इस प्रक्रिया को दबाने की कोशिश भी कर रही हैं।
कृषि क्षेत्र के समक्ष चुनौती
यह स्पष्ट है कि कृषिक्षेत्र को अनदेखा करना तथा उसे व्यावसायिक शक्तियों के हाथ का खिलौना बना कर छोड़ना पूरी मानव सभ्यता के लिये घातक है। भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व के किसानों के समक्ष यह एक बड़ी चुनौती भी है। यह निर्विवाद सत्य है कि किसान ही एक ऐसा समाज है जो वास्तव मे स्वतंत्र तथा स्वाभिमानी जीवन जी सकता है। उसे अपने अस्तित्व को बचाने के लिये किसी का नौकर या गुलाम बनने की आवश्यकता नहीं होती। पर यह भी सत्य है कि वह केवल अपने लिये काम नहीं करता, उसका श्रम पूरे समाज तथा देश को सक्षम तथा सशक्त बनाता है। भोजन के लिये परमुखापेक्षी समाज कभी स्वतंत्र जीवन की कल्पना नहीं कर सकता अत: किसान को समुचित सम्मान देना तथा उसके श्रम का उचित मूल्य देना पूरे समाज का दायित्व बनता है।
-डॉ़ भारतेन्दु प्रकाश
लेखक विज्ञान शिक्षा केंद्र अंतरा (बांदा) के संस्थापक, संयोजक एवं कार्यकारी निदेशक हैं
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