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कृषि -स्वावलम्बन – आत्मनिर्भरता की ओरअग्रसर

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Aug 23, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Aug 2014 16:06:35

भारत में अधिकतर किसान दो तरह से शोषित होते हैं। एक तो तब जब फसल उगाने के लिए उन्हें सामग्री खरीदनी हो और दूसरे तब जब वह अपनी फसल को बेचने के लिए निकलते हैं। फसल बेचने पर भी किसान के माल को उचित दाम नहीं मिलते। बार-बार रासायनिक खादों के प्रयोग से और लगातार एक ही फसल उगाने से देश में कई जगह खेती योग्य जमीन की उर्वरकता कम हो गई है। इसके अलावा व इसके साथ ही कीटनाशक दवाइयों के अंधाधुंध इस्तेमाल से खेती की फसलों के साथ-साथ पर्यावरण भी छिन्न-भिन्न हो चुका है।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन से जूझने के लिए किसानों के पास न पर्याप्त ज्ञान है, न वांछित सुविधा। परिणामस्वरूप कर्ज के बोझे में डूबा किसान या तो आत्महत्या करता है या फिर खेती बेच कर एक कुशल किसान से शहरों में अकुशल मजदूर बन जाता है।
मध्य भारत में किसानों के द्वारा पछले 12 वर्षों से एक ऐसी खेती प्रणाली का विकास हुआ है जो किसानों को इस दुश्चक्र में से निकलने में मदद करती है- यह है 'स्वावलंबी खेती।'
प्रचलित रासायनिक खेती या प्रचलित सजीव खेती की परंपरागत प्रथा से यह दो प्रकार से भिन्न है। इस खेती में अपनी ही खेती से प्राप्त स्रोतों का प्रयोग होता है न कि बाहर से खरीदकर। इसका लक्ष्य है कि किसान इतने अन्न का उत्पादन करे जिससे उसके परिवार को भरपूर संतुलित भोजन मिले और बेचने के लिए भी पर्याप्त उत्पादन हो। आत्मनिर्भर, स्वावलंबी खेती में निवेश सामग्री बाहरी स्रोतों से कम से कम ली जाती है, और उन्हें स्वयं ही किसान अपने ही खेत पर विपुल मात्रा में तैयार करता है। समृद्धि और आत्मनिर्भरता के लिए आत्मनिर्भर खेती महाराष्ट्र के वर्धा जिले में स्थित चेतना विकास के वैकल्पिक कृषि संसाधन केन्द्र द्वारा विकसित की गई। यह क्षेत्र मुख्य रूप से वर्षा द्वारा सिंचित शुष्क भूमि है जो कि हल्की ढलान लिए हुए है। करीब 800-1000 मिमी.वर्षा जून और सितम्बर के बीच में होती है। इस जिले के आम किसानों के पास केवल 1-2 हेक्टेयर भूमि है, मिट्टी औसत रूप से उपजाऊ है और खेतों की सिंचाई की सुविधा बहुत कम किसानों के पास है। किसानों के पास बहुत कम औजार या उपकरण, थोड़े से मवेशी, सीमित मजदूर, और सीमित कुशलता तथा निवेश के लिए थोड़ी सी पूंजी रहती है।
प्रत्येक किसान अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार गोबर की खाद का प्रयोग करता है। एक एकड़ में चार बैलगाड़ी से लेकर छह बैलगाड़ी गोबर की खाद का प्रयोग किया जाता है। यह वही खाद है जो वर्ष भर इकट्ठी की जाती है। यह गुणवत्ता में काफी कम मानी जाती है क्योंकि खुली धूप और बारिश के बहते पानी में मिट्टी को पोषित करने वाले इसके तत्व निकल जाते हैं। कंपोस्ट की तकनीकें अच्छी होने के बावजूद छोटे किसानों द्वारा गांव में उपलब्ध गोबर खाद का ही प्रयोग किया जाता है। जिन किसानों के पास अभी भी पर्याप्त मात्रा में पशु हैं वह इस मामले में स्वावलंबी हैं।
बीज
बीजों से संबंधित वर्तमान स्थिति को देखें तो पता चलता है किसानों को प्रत्येक वर्ष बीज ज्यादातर कर्ज लेकर खरीदना पड़ता है। बीजों की कालाबाजारी स्थिति को और पेचीदा बना देती है। इस स्थिति का सामना करने के लिए परंपरागत बीजों का चयन और इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें चुनने के लिए 2-3 वषो्रं तक इन बीजों का क्षेत्र-परीक्षण किया गया।
पानी और मिट्टी
स्वावलंबी खेती के तहत खेत के ढलान में बारिश के पानी को रोकने के लिए और पानी तथा नमी का सारे खेत में समान वितरण बनाये रखने के लिए खेतों के अंदर मिट्टी के छोटे-छोटे समस्तरीय बांध या मेंड़ें बनाई गईं। वर्षा का बहता पानी जमीन में रिस जाता है और मिट्टी का कटाव भी रुकता है। चेतना विकास द्वारा प्रशिक्षित अनौपचारिक ग्रामीण इंजीनियर किसानों को सलाह देते हैं कि खेतों के अंदर कहां पर मिट्टी के ऐसे बांध या मंेड़ें बनानी है और कहां बरसाती नालियों को बंद करना है। इन बांधों को किसान बड़ी आसानी से अपने हाथों से या किराये पर लिए गये बैलों द्वारा खींचे गये एक सामान्य से औजार की मदद से बना सकते हैं। इन बांधों के कारण छोटी फसल भी आसानी से बारिश के मौसम में ज्यादा से ज्यादा 35 दिनों तक के लंबे सूखे में भी बगैर हानि के टिक पाती है। सूखी खेती में यह परंपरागत मेंड़ें नमी के बारे में किसान को स्वावलंबी बनाती हैं।
फसल पद्धति
सब किसानों ने अपनी जमीन के अनुसार, उसकी मिट्टी के अनुसार फसलों की ऐसी पद्धति की रूपरेखा तैयार की जिसमें एक के बीच दूसरी आंरफसलों, मिश्र फसल तथा विभिन्न फसलों का चक्र हो। इस पद्धति से वे एक साथ कई प्रकार की फसलें उत्पन्न करने में समर्थ हो पाए।
दिक्कतें व कठिनाइयां
-छोटे किसान काफी कम मात्रा में गोबर की खाद डाल पाते हैं। यह मात्रा बढ़नी चाहिए।
-नकद फसल का उत्पादन बढ़ना चाहिए
-खेत में ही पैदा हुए जैविक पदार्थ बायोमास को वापस खेत में पहुंचाने के बेहतर तरीके खोजने चाहिए।
बेहतर होता है किसानों का जीवनस्तर
आत्म निर्भर किसानों को न केवल उच्च पैदावार और बेहतर आमदनी प्राप्त होती है अपितु वे अपने परिवार वालों की जरूरत के लिए अधिकांश अन्न भी पैदा करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि उन्हें बाहर से कम खरीदना पड़ता है। स्वयं उत्पादित खाद्यान्न में विविधता होती है और वर्ष भर के लिए तथा अनेक प्रकार की पौष्टिकता वाला संपन्न आहार उपलब्ध होता है। इस बात की बहुत कम संभावना है कि कृषक परिवार पूरे वर्ष किसी की चढ़ती-उतरती बाजार कीमतों का हानिकर प्रभाव भी उन पर कम ही पड़ता है। हां, अलबत्ता ये किसान अपनी सारी आवश्यकताएं पैदा नहीं कर सकते। कुछ फसलें, जैसे, गेहूं, आलू, लहसुन, बे मौसमी सब्जियां बिना सिंचाई के उत्पन्न नहीं कर सकते।
उत्पादन और किसानों की आमदनी समय के साथ-साथ बढ़ी है। जैसे-जैसे जमीन की उर्वरता बढ़ी, किसानों ने प्रबंधन के तरीकों को भी सुधारा। मिट्टी में केंचुओं की संख्या बढ़ी है। वर्षा के मौसम में एकत्रित किया गया पानी ठहरने लगा तथा बाद में सूखे में जमीन में कम दरारें पड़ने लगीं। किसानों के स्वावलंबी खेती के तरीकों को अपनाने के बाद शुष्क मौसम में भी अधिक समय तक मिट्टी में नमी बनी रहती है। इस कारण किसान (गेंहू छोड़कर) अनाज और मसालों की अधिक पैदावार कर सकते हैं और इन वस्तुओं में पूर्णरूप से आत्मनिर्भर हो सकते हैं।
इस नयी खेती में प्रयुक्त कई तरीके अपनाने से फसल पर कीटों और बीमारियों के प्रकोप कम होने से कीटनाशकों का प्रयोग कम हुआ है। ये तरीके हैं, बीजों की प्रतिरोधी किस्सों का प्रयोग, विभिन्न सहयोगी फसलों को मिलाकर उगाना। आंतर फसल से ये भी लाभ होता है कि पौधे जल्दी ही फैलकर जमीन को अच्छी तरह से ढक लेते हैं जिससे वे सूर्य के प्रकाश के माध्यम से अधिक से अधिक उत्पादक तत्व प्राप्त करते हैं, और खेत का जल प्रबंधन भी बेहतर होता है।
वर्धा जिले में और महाराष्ट्र के अलग-अलग क्षेत्रों में कई किसानों ने आत्मनिर्भरता के इस नमूने को अपनाना शुरू कर दिया है। उन्होंने फसलों के विभिन्न संयोजनों को आजमाना आरंभ किया है। पहले वर्ष में छ: से लेकर पच्चीस फसलों के संयोजनों का प्रयोग किया गया। कम व्यय के कारण किसान इस तरफ आकर्षित हुए हैं। वे इस बात से भी प्रभावित हुए हैं कि इस नये नमूने में उन्हें महंगे बीजों, उर्वरकों खरपतनाशी दवाओं और कीटनाशक दवाइयों के लिए कर्ज नहीं लेना पड़ेगा और उन्हें खाद्यान्नों की सुनिश्चित आपूर्ति होती रहेगी। इस विधि द्वारा मौसम के पूर्वानुमान से किसान फसल की हानि को रोककर समयानुसार गतिविधियों से अच्छी फसल ले सकता है। -निरंजना बंग

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