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हिमाचल प्रदेश में तेजी से जैविक खेती का विस्तार हो रहा है। हालांकि हिमाचल सरकार ने 2 दिसंबर 2011 को प्रदेश में जैविक नीति जारी की थी, पर प्रदेश का अधिकतर हिस्सा पहले ही से प्राकृतिक खेती करता आया है। आज भी ऐसे गांव हैं जहां कोई सड़क नहीं जाती, जो दुर्गम होने के कारण रसायनों के दुष्प्रभाव से आज भी बचे हुए हैं। प्रदेश के वनवासी और अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों, जैसे लाहौल स्पीति, किन्नौर और चंबा में आज भी प्राकृतिक खेती ही हो रही है।
जैविक खेती के प्रमाण
करसोग घाटी, जिला मंडी में मुख्यत: सेब, सब्जी, धान की फसलें देखने को मिलती हैं। प्रदेश में जैविक खेती के कुछ अच्छे प्रमाण यहां दिखते हैं। एक सफल प्रयास करसोग में देखने को मिलता है, वह यह कि किसानों के दो समूह, धरणी और जाग्रति, जो करसोग वैली फार्मर्स ग्रुप से जुड़े हैं, इस प्रणाली के चलते अपने जैविक उत्पाद दिल्ली के बाजार तक ले जाते हैं। इस के अतिरिक्त कलाशन गांव के विक्रम रावत
और उनकी पत्नी उन्नत किस्म के सेब
जैविक तकनीक से उगा रहे हैं और ये सारे उत्पाद नार्थ हार्वेस्ट ओर्गेनिक्स के ब्राण्ड नाम से बिक्री कर रहे हैं।
नांज गांव के नेकराम शर्मा बीते कई वषोंर् से पारंपरिक खेती और वन संरक्षण में लगे हैं। कुछ सालों से, अनेक किसानों ने फिर से मोटे अनाज, जैसे कोणी, रागी उगाने शुरू किये हैं। वे इनके उन्नत किस्म के जैविक सब्जियों के बीज तैयार करने की पहल भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि देर से ही सही, जन सामान्य को अपने पारंपरिक बीजों और खेती की याद जरूर आयेगी और कीटनाशक व अन्य जहरीले रसायनों से तंग होकर जनता सरकार पर दबाव डालेगी तो यहां किसान भी और सक्षम होंगे।
बिलासपुर-घुमारवीं क्षेत्र
बिलासपुर-हमीरपुर क्षेत्र में करीब 500 किसान 365़ 78 हेक्टेयर भूमि पर जैविक खेती कर रहे हैं। प्रमाणीकरण का सारा खर्च हिमाचल प्रदेश सरकार उठा रही है। सरकार गैर सरकारी संस्थानों के साथ मिल कर तकनीक, मार्केटिंग प्रदान कर रही है।
किसान अनेक तरह की जैविक तकनीकें, जैसे वर्मिवाश, कम्पोस्ट, नीम आदि उपयोग कर रहे हैं। इस के अतिरिक्त मटका खाद और बायोडायनेमिक प्रयोग भी जारी हैं। इस
क्षेत्र में गेहूं और कुछ अन्य अनाजों के अलावा भिन्डी, बंद गोभी, कद्दू, अदरक, हल्दी आदि सब्जियां उगाई जाती हैं। फलों में आम उपलब्ध है। भाद्रोग गांव के खेतिहर श्री बलबीर सिंह10 बीघा भूमि पर सब्जी और अन्य अनाज और दालें उगाते हैं।
गांव कलोह में किसान छोटी भूमि पर खेती करते हैं। यह सारी भूमि वर्षा पर निर्भर है। यहां आम, हल्दी, लहसन, अदरक, आलू, मक्का और अरबी उगाई जाती है। लेकिन उन्हें सही दामों की जानकारी न होने से ठेकेदार जो मूल्य दे देते हैं वही लेना पड़ता है इसीलिए वे चाहते हैं कि किसी तरह से जैविक उत्पादों की उपभोक्ता तक पहुंच बने ताकि उन्हें सही दाम और उपभोक्ता को सही उत्पाद मिल सके।
कुल्लू घाटी क्षेत्र
कुल्लू घाटी अपने सुन्दर नजारों के लिए जानी जाती है। कुल्लू में मुख्यत: सेब की बागवानी होती है। कुछ गैर सरकारी और निजी संगठन यहां जैविक खेती का प्रयास कर रहे हैं, परन्तु ज्ञान और संगठन के अभाव में इसका प्रचलन कुछ ही खण्डों में है। इन में से एक गैर सरकारी संगठन है जागृति, जो पहाड़ की महिलाओं के लिए काम करता है। यहां के किसान मुख्यत: मोटा अनाज, आटा, आचार और पहाड़ी चाय और काढ़ा इत्यादि उत्पाद छोटे उद्योग के माध्यम से विक्रय करते हैं। शालांग गांव में जैविक खेती के कुछ प्रारूप दिखते हैं। शालांग में रसायन और यूरिया वर्जित है, परन्तु अब लोग इस मान्यता को छोड़ रासायनिक खादों का प्रयोग कर रहे हैं। सरकार की नीति और संस्थागत सहायता के अभाव में किसनों को इन पर निर्भर होना पड़ रहा है।
सोलन घाटी
सोलन क्षेत्र में 383 किसान लगभग 435 हेक्टेयर भूमि में जैविक खेती की ओर अग्रसर हैं, परन्तु पूरी तरह से जैविक खेती करने में अभी कई चुनौतियां हैं। यहां के किसान भी स्थानीय बाजार में ही सारी उपज बेचते हैं। यहां किसान तो पारंपरिक खेती करना चाहते हैं, लेकिन प्रदेश सरकार की नीतियां दमदार नहीं हैं। वैसे रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों की कमी, ऊंचे दाम और उपभोक्ताओं के दबाव के कारण स्थिति केवल जैविक खेती की ओर ले जायेगी। किसान आज भी रसायनों की ओर इसलिए देखते हैं क्योंकि वह संस्थागत अभाव से चिंतित हैं। यदि सरकार इस अभाव को पूरा करती है तो किसान जैविक खेती करने को भी तैयार हैं। आज जैविक पदार्थ, जैसे नीम खली, माइक्रोब इत्यादि का बाजार में भी अभाव है।
जिला किन्नौर प्रदेश का सबसे ऊंचाई पर स्थित जिला है। इस जिले का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा एक ऊंचा रेगिस्तान है जहां थोड़ी ही वनस्पति उगती है। किन्नौर के ऊपरी क्षेत्रों में पर्याप्त हिमखंड हैं, जो पूरे क्षेत्र में सेबों के लिए ठंड प्रदान करते हैं। मुख्य उपज सेब, बादाम, चिलगोजा और खुमानी (चूली) हैं। इस के अतिरिक्त किसान कुछ अनाज, जैसे फाफड़ा, ओगला, जौ और अन्य सब्जियां उगाते हैं। किसान आपस में चर्चा करके यह सत्यापित करते हैं कि उगाया उत्पाद जैविक ही है। वर्मीकम्पोस्ट विधि के द्वारा बनाई गई कम्पोस्ट से मिट्टी की शक्ति को कई गुना बढ़ाया जा सकता है। कच्चे गोबर को खेतों में न डाल कर उससे अच्छी खाद बना कर उसका अधिक लाभ उठाया जा सकता है। खाद बनाते समय नमी बनाये रखने के लिए ढेर को चीड़ के पत्तों, घास व टाट आदि से ढका जा सकता है, ढेर की ऊंचाई 1़.5 फुट से ज्यादा न हो।
इसी तरह सांगला की सुन्दर घाटी में कुछ बागवानांे ने मिलकर जैविक खेती और पर्यटन का एक बहुत अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है। सांगला घाटी में सेब के अतिरिक्त अन्य जड़ी-बूटियों और स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने की चिंता भी की जा रही है। यहां कुछ विशेष अनाज, जैसे फाफड़ा और ओगला भी उगाए जाते हैं। -आशीष गुप्ता
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