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दिल्ली में 'नमो सरकार' बनने से सामाजिक संस्थाओं का रुख भी बदला है। जिस संस्था ने मुझे कभी श्रोता के रूप में भी बुलाने लायक नहीं समझा, पिछले दिनों उन्होंने स्वाधीनता दिवस पर भाषण के लिए आने को कहा। मैं इसे सुअवसर मानकर भाषण तैयार करने लगा। विषय बड़ा रोचक था। 1897 में स्वामी विवेकानंद ने विदेश से लौटकर मद्रास में दिये गये एक भाषण में देशवासियों से कहा था कि अगले 50 साल सब देवी-देवताओं को छोड़कर केवल भारतमाता की पूजा करें। उनकी बात कितनों ने मानी, यह तो पता नहीं; पर 50 साल बाद 1947 में देश स्वतन्त्र जरूर हो गया।
उस संस्था के सचिव ने कहा कि मैं इस संदर्भ में यह बताऊं कि अब किन नये देवी-देवताओं की पूजा होनी चाहिए ?
सबसे पहले मुझे 'दशावतार कथा' याद आयी। कहते हैं कि मत्स्य से लेकर गौतम बुद्घ तक नौ अवतार तो हो चुके हैं; पर दसवें अवतार 'कल्कि' की अभी प्रतीक्षा ही है। मैंने कल्कि भगवान से निवेदन किया कि हो सके, तो मेरे सामने ही अवतरित हो जाएं। वरना मेरे लिए तो आपका आना और न आना एक सा ही होगा।
फिर मुझे ध्यान आया कि भारत में 33 करोड़ देवी-देवताओं की बात भी कही गयी है। कुछ विद्वानों का मत है कि इस हिसाब के समय दुनिया की जनसंख्या ही 33 करोड़ थी। अत: सभी को देवी-देवता मान लिया गया। भारत में माता, पिता, आचार्य और अतिथि को देवता कहा गया है। यद्यपि अब तो 'पैसा देवो भव' का ही चलन है। 'जय संतोषी मां' फिल्म से संतोषी माता प्रसिद्घ हो गयीं, तो 'शिरडी वाले साईं बाबा' के कारण साईं बाबा के हजारों मंदिर बन गये। दूरदर्शन के कारण 'शनि देवता' का प्रभाव भी लगातार बढ़ रहा है।
अमिताभ बच्चन के एक प्रशंसक ने कोलकाता में उनका मंदिर बनाया है, तो एक राजनेता अंग्रेजी देवी के मंदिर की वकालत कर रहे हैं। आशा है शीघ्र ही कुछ और देवी-देवता भी प्रकट होंगे। क्योंकि जब दुनिया की जनसंख्या बढ़ रही है, तो उन्हें संभालने के लिए नये देवता भी चाहिए। धर्म वाले इस मामले में पीछे क्यों रहें ?
पहाड़ों में कुछ देवता गांव के होते हैं, तो कुछ क्षेत्र के। कुछ स्थिर होते हैं, तो कुछ चलायमान। कुछ नदी पार नहीं करते, तो कुछ घाटी नहीं छोड़ते। कुछ भव्य मंदिर में रहना पसंद करते हैं, तो कुछ खुले में या फिर पेड़ के नीचे। कुछ खड़े हैं, तो कुछ बैठे या लेटे। कुछ अकेले रहते हैं, तो कुछ सपरिवार। इनके रंग-रूप, खान-पान और वेशभूषा भी अलग-अलग हैं। जाति और बिरादरी से लेकर खेती, मौसम और पवोंर् तक के देवता हैं। भीम, कर्ण और दुयार्ेधन के मंदिर भी हैं। मेलों में ये देवता भी आते हैं। हरिद्वार के पिछले पूर्ण कुंभ में पहाड़ के सैकड़ों देवी-देवता स्नान करने आये थे।
शाम को मैं घूमने निकला, तो नुक्कड़ पर एक चुनावी सभा हो रही थी। नेता जी बड़े श्रद्घाभाव से हाथ जोड़े, सिर झुकाए बार-बार वोट देवता, वोटर माई बाप, वोट भगवान आदि का मंत्र जप रहे थे। इससे मुझे एक नयी दृष्टि मिली। जो नेता जी पिछले कई साल से दिखायी नहीं दिये, वे आज गंदगी से बजबजाती हमारी गली में पधारे हैं। कार से नीचे न उतरने वाले आज झनकू मोची से गले मिल रहे हैं।
मैं समझ गया कि इस युग का असली भगवान वोट ही है। इसके लिए नेताओं को मठ, मंदिर और गुरुद्वारे से लेकर मजारों तक में सिर झुकाना पड़ता है। जाति, भाषा, प्रान्त, मजहब और माफिया के गीत गाने पड़ते हैं। भ्रष्टाचार करना और करते हुए देखना पड़ता है। गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए कभी इस, तो कभी उस डाल पर जाना पड़ता है। एक वर्ग के थोक वोट पाने के लिए आतंकियों को कबाब और बिरयानी खिलाने पड़ते हैं। मरने पर उनके नाम में 'श्री' और 'साहब' लगाते हुए उनके गांव में हाजिरी देनी पड़ती है। वीर सैनिकों और उनके परिजनों की उपेक्षा करनी पड़ती है। मजहबी दंगांे में मामला बैलेंस करने के लिए कुछ लोगों को झूठे आरोप में भी जेल भिजवाना पड़ता है।
वोट के लिए गधे को बाप और बाप को गधा बनाते देर नहीं लगती। चुनाव के समय लोग बाप को छोड़कर बीमार वोटर को देखने चल देते हैं। इस नवदेवता की प्रशंसा में जो भी कहें, कम है। आप भी उनकी जयकार करें और जीवन धन्य बनाएं। -विजय कुमार
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