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आज विश्व के प्रथम 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। देश में केन्द्र, राज्य सरकारों और निजी संस्थानों द्वारा 660 विश्वविद्यालय विभिन्न विषयों में शिक्षा के लिए चलाए जा रहे हैं। महाविद्यालयों की संख्या 33000 के ऊपर है जिनमें 1800 महिलाओं के ही लिए हैं। पहली से बारहवीं कक्षा में लगभग 23 करोड़ बच्चे शिक्षा पा रहे हैं।
आईआईटी, आईआईएम, एम्स जैसे शिक्षा संस्थान विश्वस्तर के हैं किन्तु उनमें सीटें बहुत कम हैं। लाखों छात्र प्रवेश से वंचित रह जाते हैं। विज्ञान और तकनीकी शिक्षा का स्तर अच्छा है किन्तु जो छात्र इन संस्थानों से निकलते हैं उनमें से एक बड़ी संख्या देश के बाहर चली जाती है। विकसित देशों जैसा वेतनमान और सुविधाएं न मिलने से भौगोलीकरण की प्रक्रिया के बाद इस स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। देश के आर्थिक विकास में तेजी आने से आगे बढ़ने के द्वार खुले हैं, किन्तु अभी भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। निजी क्षेत्रों में बहुत सारे तकनीकी और वैश्विक शिक्षा के संस्थान शिक्षा की दुकान बनकर रह गये हैं। एआईसीटी जैसे नियंत्रक संस्थानों की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं, भ्रष्टाचार तक के आरोप
लगे हैं।
विश्वविद्यालय अनुदान आयेाग (यूजीसी) उच्च शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल बनाने, पाठ्यक्रम को राष्ट्रीय स्तर का करने, अध्यापकों की नियुक्ति के मानक निर्धारित करने जैसे महत्वपूर्ण उद्देश्यों से बनायी गई है किन्तु उसकी भूमिका भी सन्तोषजनक नहीं रही। नियुक्तियों और पाठ्यक्रम में नेताओं और उच्च अधिकारियों के दखल और शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता में कमी, उच्च शिक्षा का स्तर बढ़ाने के रास्तों में आड़े आती रही। धन का अभाव तो रहा हीै, शिक्षा पर होने वाला खर्च विश्व के विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है।
उच्च शिक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर के पाठ्यक्रम अभी भी विकसित नहीं किये गए हैं। आजादी के 6 दशक से अधिक हो गए किन्तु इस देश की शिक्षा पद्धति राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने में उतनी सक्षम नहीं हुई जितनी अपेक्षित थी। इने-गिने विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर ऊंचा है किन्तु ऐसे बहुत से विश्वविद्यालय और महाविद्यालय हैं- सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों में जिनमें शिक्षा का स्तर सन्तोषजनक नहीं है, शिक्षा के लिए जो वातावरण और जो सुविधाएं चाहिए- भवन, वर्कशाप, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, खेल-कूद के मैदान, छात्रों के निवास की सुविधा आदि पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जो अपेक्षित था। प्रबंधन की शिक्षा के लिए देश में आईआईएम और विश्वस्तर के हैदराबाद संस्थान को छोड़ दें तो बहुत बड़ी संख्या में निजी क्षेत्रों में खुले संस्थानों में शिक्षा का स्तर सोचनीय है।
प्रारंभिक शिक्षा का विकास तो हुआ है, सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि हम 90 प्रतिशत के ऊपर पहुंच रहे हैं किन्तु जमीनी हकीकत कुछ और ही है। आज भी करोड़ों बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देखते, मां बाप छोटी मोटी नौकरियों और कामधन्धों में लगा देते हैं। बहुत बड़ी संख्या में छात्र प्रवेश लेते हैं किन्तु अधिक समय तक पढ़ाई चला नहीं पाते। आर्थिक और अन्य कारणों से विद्यालय छोड़ देते हैं। सरकारी प्राथमिक विद्यालय कुछ राज्यों को छोड़कर, अधिकांश राज्यों में निम्नस्तर के हैं। अध्यापकों की कमी, बिना भवन के विद्यालय चलना, विद्यालयों में छात्र-छात्राओं के लिए शौचालय तक का अभाव आदि समस्याएं आम हैं। गांव के ही नहीं छोटे-छोटे शहरों में भी प्राथमिक विद्यालयों की हालत खस्ता है। भारतीय संविधान 14 वर्ष तक के बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार की मानता है, किन्तु अभी तक यह कागजों पर है। धनी वर्ग अपने बच्चों को पब्लिक स्कूलों में दाखिला दिलाता है जहां फीस अधिक है और अंग्रेजी का वर्चस्व है।
राष्ट्रीय और राज्य स्तर के बोर्डों द्वारा समान पाठ्यक्रम और इम्तिहान ने शिक्षा के स्तर में सुधार किया है। किन्तु पाठ्यक्रमों में राष्ट्रीय संचेतना की कमी है। राजनीतिक दबाव और अन्य कारणों से एनसीईआरटी की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं। प्राविधिक शिक्षा पर भी जितना जोर होना चाहिए वह अभी तक नहीं है।
पिछड़े वर्गों के लिए कुछ वर्ष पूर्व आरक्षण के लिए जो आयोजन हुए उनका लाभ भी समृद्ध लोगों (क्रीमी लेयर) को अधिक मिल रहा है। मेधावी छात्र जो आरक्षण के दायरे में नहीं आते, उनके लिए दरवाजे बन्द हो जाते हैं।
नई सरकार शिक्षा क्षेत्र में परिवर्तन और सुधार के लिए आगे बढ़ती दिख रही है। अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए महामना मालवीय शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम, दक्ष भारत और ऐसे ही कुछ कार्यक्रमों की घोषणा हुई है। शिक्षा के आधुनिकीकरण, तकनीकी, वैज्ञानिक, मेडिकल और अन्य क्षेत्रों में नए राष्ट्रीय संस्थानों की स्थापना की भी घोषणा बजट में हुई है। शिक्षा के विकास के लिए अधिक धन और राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है।
-प्रो. लल्लन प्रसाद
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रबंधन विभाग के पूर्व प्रोफेसर हैं।
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