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वर्ष: 9 अंक:7 22 अगस्त ,1955
बम्बई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गोलवलकर(गुरुजी)ने एक वक्तव्य में कहा है कि 'गोआ पुलिस के कार्रवाई करने और गोआ को मुक्त कराने का इससे ज्यादा अच्छा अवसर कोई न आएगा। इससे हमारी अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और आसपास के जो राष्ट्र सदा हमें धमकाते रहते हैं,उन्हें भी पाठ मिल जाएगा।'
श्री गोलवलकर जी ने अपने वक्तव्य में आगे कहा है कि 'भारत सरकार ने गोआ-मुक्ति-आंदोलन का साथ न देने की घोषणा करके मुक्ति-आंदोलन की पीठ में छुरा मारा है। भारत सरकार को चाहिए कि भारतीय नागरिकों पर हुई इस अमानुषिक गोलीबारी का प्रत्युत्तर दे और मातृभूमि का जो भाग अभी तक विदेशियों की दासता में सड़ रहा है, उसे अविलम्ब मुक्त करने का उपाय करे। झूठी अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा का विचार हृदय से निकाल कर कदम आगे बढ़ाना चाहिए। आज से अच्छा मौका फिर न मिलेगा। यदि इस समय उचित कदम नहीं उठाया गया तो वर्तमान शासकों के ध्येय,उनकी देश- भक्ति और योग्यता के बारे में जनता का मन सशंक हो जाएगा'।
मुक्ति-आंदोलन में वीरगति को प्राप्त हुए सत्याग्रहियों को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उन्होंने वक्तव्य में कहा कि 'जिस उद्देश्य से इन वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी है,उसकी पूर्ति ही उन्हें सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी। मातृभूमि के जरा से अंश पर विदेशियों की सत्ता भारतीयों को मान्य नहीं है।'
बम्बई में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर जो गोली चलाई,उसके संबंध में श्री गुरुजी ने कहा कि 'यह वीरता गोआ सीमा पर दिखाई जाती। तो आठ दिनों में पुर्तगाली गोआ से भाग खड़े होते। घर के लोगों पर ही गोली चलाने में कोई वीरता नहीं है।'प्रदर्शनकारियों से उन्होंने अपील की है कि हड़ताल और प्रदर्शनों के समय किसी भी अवस्था में शांति भंग न होने दें।
गोआ में भारतीयों का कत्लेआम
देशभर में रोष : पुलिस कार्रवाई की मांग
जनसंघ के जत्थे गोआ की ओर
15 अगस्त को जिस समय समस्त भारत में स्वतंत्रता की 9वीं वर्षगांठ की खुशियां मनाई जा रही थीं उस समय अखण्ड भारत के पुजारी, माता के लाड़ले,वीर देशभक्त बर्बर पुर्तगालियों की बन्दूकों के सामने सीने खोलकर बढ़ रहे थे तथा उन पर निरंतर गोलियां बरसाई जा रही थीं। एक दो नहीं ठीक 51 वीरों ने उस दिन मां की वेदी पर स्वजीवन की आहुति चढ़ाई। घायलों की संख्या तो 300 के लगभग पहुंच गई। एक छोटे से क्षेत्र में एक दिन में निहत्थे लोगों की इतनी बड़ी संख्या में हत्या की गई हो, इसका उदाहरण संसार के इतिहास में ढूंढ़ने पर शायद ही मिल सके।
15 अगस्त को इधर गगन मण्डल में सूर्य का आगमन हुआ उधर सत्याग्रहियों की टोलियों ने 'पुर्तगालियो, भारत छोड़ो'के जयघोष के साथ गोआ की सीमा में प्रवेश किया। सीमा पर तैनात पुर्तगाली सैनिकों ने निहत्थे सत्याग्रहियों पर अपनी बे्रनगनों,स्टेनगनों,रायफलों तथा बन्दूकों के मुंह खोल दिये। एक के बाद दूसरा सत्याग्रही शहीद होने के लिए बढ़ने लगा। मौत से जूझने की होड़ लग गई। एक दिन में 5000 सत्याग्रही गोवा की सीमा में प्रविष्ट हुए जिनमें से 51 के लगभग घटनास्थल पर शहीद हुए तथा तीन सौ से ऊपर घायल। इस अहिंसात्मक संग्राम में पुरुषों ने जिस वीरता का परिचय दिया उससे कहीं अधिक वीरता का प्रदर्शन महिलाओं ने किया। 40 वर्षीय श्रीमती सुभद्रा बाई ने तो झांसी की रानी की ही स्मृति जाग्रत कर दी। अपने पुरुष सत्याग्रही से झण्डा छीनकर स्वयं छाती पर गोली खाकर अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।
पुर्तगालियों की अभद्रता सहन करना अनुचित
जनसंघ अधिवेशन में श्री वाजपेयी की गर्जना
'हमारे प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने कहा था कि वे गोआ के संबंध में किसी भी प्रकार की बेहूदगी बर्दाश्त नहीं करेंगे। शांत तथा नि:शस्त्र सत्याग्रहियों को गोली से उड़ाये जाने से बढ़कर और क्या बेहूदगी हो सकती है? आखिर भारत सरकार कब तक हाथ पर हाथ रखकर पुर्तगाल सरकार के बर्बर अत्याचारों को चुपचाप देखती रहेगी? समय आ गया है जब भारत सरकार को प्रभावी कदम उठाकर गोआ-समस्या को सदासर्वदा के लिए हल कर देना चाहिए।'
दुरंगी-दुनिया
गत सप्ताह देशभर में 15 अगस्त के उपलक्ष्य में समाचार पत्रों ने भारी -भरकम विशेषांक निकाले । इनमें से अधिकांश राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों तथा मंत्रियों के संदेशों तथा लेखों से भरे दिखाई पड़ते हैं।
इससे राम के मन में एक संदेह पैदा हो गया है। वह यह कि क्या 15 अगस्त 1947 के बाद अचानक 'अलादीन के चिराग'के जादू से सभी मंत्री,मुख्यमंत्री या राज्यपाल साहित्यकार तथा लेखक बन गये या फिर पुराने गणमान्य लेखकों तथा साहित्यकारों पर सरस्वती का प्रकोप हो गया। आखिर विशेषांकों में मंत्रियों तथा राज्यपालों के लेखों की भरमार का और कारण ही क्या हो सकता है? बेचारे संपादक भी क्या करें? जब प्रतिष्ठित सात्यिकारों की प्रतिभा कुंठित पड़ गई हो और मंत्रीगण सरस्वती के लाड़ले बन जाएं तो उन्हंे बरबस विशेषांकों में स्थान देना ही पड़ेगा।
अब तनिक इन विशेषांकों के भारी भरकम कलेवर पर भी गौर फरमाइये। अधिकांश में यह विशेषता दिखाई पड़ेगी कि जिस उपलक्ष्य में वे निकाले गये हैं अर्थात स्वतंत्रता-संग्राम के शहीदों का पुण्यस्मरण करने तथा उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उसकी कहीं धोखे से चर्चा नहीं मिलेगी। फिर आप पूछेंगे कि उनमें आखिर रहता क्या है? इसका उत्तर है, 8 वर्षों में विभिन्न कांग्रेस सरकारों द्वारा नहरें-बांध बनवाने,वन महोत्सव तथा अधिक अन्न उपजाओ आन्दोलन चलाने,कल कारखानों की कागजी योजनाओं की रिपोर्ट तैयार करने,विभिन्न आयोगों की नियुक्तियों और विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा वृद्धि की अतिरंजित कथा-कहानियों का वर्णन! कागजी योजनाओं और काल्पनिक सफलताओं के संसार का मनमोहक चित्र!
किन्तु इस काल्पनिक संसार में विचरण करने वाला पाठक जब अचानक गोआ में भारतीयों के कत्लेआम के ठोस सत्य से टकराता है,श्रीलंका और अफ्रीका में भारतीयों की दुर्दशा का स्मरण करता है और पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं की गुलामी तथा नारकीय यातनाओं की याद करता है। तो बरबस उसका मोहावरण छिन्न-भिन्न हो जाता हैउसे लगता है कि इन विशेषंाकों में सरकारी सफलताओं के अतिरंजित वर्णनों से जो पृष्ठ रंग गए हैं उनका उपयोग यदि अन्य किसी काम के लिये किया गया होता तो अच्छा होता।
-लखनवी
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