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हर्ष और विषाद एक साथ नहीं आते। 15 अगस्त 1947 का सूयार्ेदय ऐसा ही दिन था। भारत स्वाधीन हुआ। आह्लाद, उत्सव और समवेत उत्साह लेकिन साथ में राष्ट्रविभाजन की त्रासद व्यथा थी। साम्प्रदायिक रक्तचरित्र से भारत भूमि लाल थी। राष्ट्र विभाजन की अभियुक्त कांग्रेस को विभाजित भारत की सत्ता मिली और विभाजन के खास गुनहगार मो. अली जिन्ना की मुस्लिम लीग को नए मुल्क पाकिस्तान की हुकूमत। स्वतंत्र भारत की राजनीति साम्प्रदायिक तुष्टीकरण के राजमार्ग पर चल पड़ी। कांग्रेसी सत्ता राजनीति का बीजतत्व ही साम्प्रदायिक तुष्टीकरण था और है। कांग्रेसी धारा के राजनैतिक दल मजहबी सवार्ेपरिता को सेकुलरवाद कहते हैं। वैसे सेकुलर का अर्थ भौतिक या इहलौकिक होता है लेकिन भारतीय राजनीति में इसका मतलब मजहबी वरीयता है। यहां सेकुलरवाद अलगाववाद है और राष्ट्रवाद का विरोधी है। सो कांग्रेस ने तिलक, गोखले, डॉ. हेडगेवार, विपिन चन्द्र पाल, गांधी, डॉ. अम्बेडकर और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि का राष्ट्रवादी अधिष्ठान किनारे कर दिया। कांग्रेस दीर्घकाल तक सत्ता में रही। यही सबसे बड़ा दल थी। आदर्शवादी राजनीतिक संस्कृति गढ़ने की जिम्मेदारी उसी की थी लेकिन कांग्रेस ने राजनीति को सत्ता का उद्यम बनाया।
स्वतंत्र भारत की राजनीति का प्रस्थान बिन्दु ही मजहबी आक्रामकता है। सेकुलरवाद मजहबी साम्प्रदायिकता का ही पोषण संवर्द्घन है। राष्ट्रवाद के अधिष्ठान को लेकर भारतीय जनसंघ 1951 में बना थ। जनसंघ इसी राजनीति में राष्ट्रवादी हस्तक्षेप था। तब जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था। राज्य का अलग झंडा था और अलग संविधान। कश्मीर जाने के लिए सरकारी अनुमति जरूरी थी। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी आन्दोलन चला। उनका बलिदान हुआ। जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखने में डॉ. मुखर्जी के बलिदान की महत्ता है लेकिन विकृत सेकुलरवादी कश्मीर को अब भी स्वायत्त बनाने की मांग करते हैं। अनु. 370 के खात्मे का प्रश्न भी राष्ट्रवादी राजनीति ने ही उठाया।
राष्ट्रवाद बनाम विकृत सेकुलरवाद की टक्कर जारी है। वे मजहब आधारित आरक्षण और विशेषाधिकार के पैरोकार हैं। प्रधानमंत्री पद पर आसीन विद्वान अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय संसाधनों पर मुसलमानों का अधिकार बताया था। सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की मजहबी सिफारिशें स्वतंत्र भारत की राजनीति का कलंक अध्याय हैं। तब के केन्द्रीय गृहमंत्री शिंदे ने मुख्यमंत्रियों को चिट्ठी लिखकर निदार्ेष (?) मुसलमानों को मुकदमों में न फंसाने की अपील की थी। उ.प्र. की सरकार ने रिकार्ड तोड़ा। आतंकवाद के भी मुकदमों की वापसी की घोषणा हुई।
सरकार ने मृतकों के साथ भी मजहबी भेदभाव किया। कब्रिस्तान की बाउंड्री बनाने के लिए विशेष बजट का प्रावधान हुआ।
67 वर्ष कम नहीं होते। राजनीति की कलंक कथा और व्यथा अकथनीय है। राजनीति अब निन्दित क्षेत्र है। सब धान बाइस पसेरी हैं। ध्येयनिष्ठ आदर्शवादी राजनैतिक कार्यकर्ता भी निन्दित वर्ग में गिने जा रहे हैं। चुनाव में अरबों खरबों खर्च हो रहे हैं। राजनीति लाभ का उद्यम है। 'गरीबी की रेखा' की परिभाषा न राजनीति कर पाई और न ही योजना भवन में बैठे अर्थविद्। दलतंत्र दयनीय है। हजारों किसानों ने आत्महत्या की, गरीब तन बेच रहे हैं। करोड़पति बढ़ रहे हैं, गरीब मर रहे हैं। सत्तावादी राजनीति टी.वी. पर बाइट में व्यस्त है। चीखपुकार की काल प्रतीक्षा में है। नेटवर्क बिजी है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पहले से ही भारत को निर्माणाधीन राष्ट्र बता रहे थे। महात्मा गांधी ने 1909 में ही 'हिन्द स्वराज' लिखकर चेतावनी दी थी आपको अंग्रेजों ने सिखाया है कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। भारत अंग्रेजों के आने से पहले भी राष्ट्र था। कांग्रेस ने प्राचीन भारतीय संस्कृति को राष्ट्र का प्राण और घटक नहीं माना। कांग्रेस और ऐसी ही राजनैतिक धारा के अन्य दल देश को अनेक संस्कृतियों, सभ्यताओं और समूहों का गठजोड़ बताते हैं। वाम विचारकों ने भारत के भीतर अनेक देशों का हेय सिद्घांत बताया। ऋग्वेद के ऋषियों से लेकर विवेकानंद, डॉ. हेडगेवार तक सभी पूर्वजांे ने भारत में एक संस्कृति देखी और जानी थी। इस संस्कृति में भूमि माता है- हम सब इसके पुत्र हैं। अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त में यह पृथ्वी ही हमारी जननी, पोषक और संरक्षक है। बंकिम चन्द्र ने भी 'वंदेमातरम्' में इसी भारत माता का श्रद्घास्पद रूप गाया है। संविधान सभा ने इसे राष्ट्रगीत घोषित किया लेकिन छद्म सेकुलर राष्ट्रगीत का भी सम्मान नहीं करते।
सेकुलर गिरोह की राजनीति ने सत्ता को ही लक्ष्य बनाया। करेला नीम चढ़ गया। कोढ़ में खाज हो गया। मजहबी तुष्टीकरण का कोढ़ था ही, जाति, क्षेत्र, धनबल और बाहुबल भी राजनीति के मुख्य घटक बने। जातियों की पार्टियां बनीं, क्षेत्रीयता ने सीना तानकर राष्ट्रीयता को चुनौती दी। इसके पहले भारतीय राजनीति का मुख्य ध्येय लोकमंगल था। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान लुडविग ने ऋग्वैदिक काल की राजव्यवस्था को प्रजा के प्रति जवाबदेह बताया है। लिखा है समिति में जन हैं, सभा होमर काल जैसी संस्था है, गणतंत्र है। ऋग्वेद का अंतिम सूक्त समान समिति, मंत्रणा और सहमना जीवन का संदेश देता है। मैगस्थनीज ने 'इण्डिका' में भारतीय राजव्यवस्था की प्रशंसा की। चीनी यात्री फाह्यान ने 'फो-क्यो-कि' में भारतीय राजव्यवस्था को उदार, सौम्य और सुव्यवस्थित बताया था। इतिहासकार अलबेरूनी ने प्राचीन भारतीय राजव्यवस्था की प्रशंसा की। स्वाधीनता संग्राम के मूल्य और आदर्श सांस्कृतिक थे। तिलक 'गीता रहस्य' लेकर जनअभियान पर थे और गांधी गीता माता को लेकर। इसके पहले विवेकानंद ने उपनिषद वेदांत की विश्व विजय पताका फहराई थी। लेकिन आधुनिक राजनीति में मुस्लिम लीगी होने की प्रतिस्पर्धा है। संस्कृति को साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथी मजहबी आक्रामकता को सेकुलरवाद बताने की होड़ है।
संविधान निर्माताओं ने ब्रिटिश तर्ज की संसदीय व्यवस्था स्वीकार की। गांधी जी ने ब्रिटिश संसद को वेश्या (हिन्द स्वराज, 1909) लिखा था। यूरोपीय विद्वान ब्रिटिश संसद को विश्व संसदीय परिपाटी की जननी बताते हैं। सभा और संसद का जन्म भारत में ही हुआ। ऋग्वेद में सभा है, उत्तरवैदिक काल के अथर्ववेद में सभा है। महाभारत में सभापर्व है। भारतीय राजनीति का सारा जोर संसद और विधानमण्डल का चुनाव जीतने पर ही रहता है। लेकिन विधायिका में आरोपी अपराधियों की बढ़ती संख्या राष्ट्रीय चिन्ता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने राष्ट्रीय चिन्ता पर ध्यान दिया है। उन्होंने सदस्यों पर चल रहे मुकदमों की त्वरित सुनवाई पर बल दिया है। 16वीं लोकसभा अभी नई है। 15 लोकसभाओं का अध्ययन आहतकारी है। कामकाज के घंटे लगातार घटे हैं, शोरगुल बढ़ा है। संसद भारत का मन दर्पण और भाग्यविधाता है। संसद आश्वस्ति नहीं देती। संसदीय जनतंत्र का मूलाधार दलतंत्र है और दलतंत्र संस्कृतिनिष्ठ ध्येयनिष्ठ नहीं है। अधिकांश दल पार्टी नहीं प्रापर्टी जैसे हैं। यहां आजीवन राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, उनके अस्वस्थ होने पर पार्टी-प्रापर्टी पुत्रों/पुत्रियों के नाम हो जाती हैं। पं. नेहरू से पुत्री इंदिरा जी, इन्दिरा जी से पुत्र राजीव गांधी, राजीव जी से पत्नी सोनिया गांधी और अब राहुल-प्रियंका। लालू जी जेल में तो कुशल गृहणी राबड़ी जी मुख्यमंत्री। दक्षिण के दलों में भी ऐसा ही है। दल, दल-दल हैं, आमजन पीडि़त व्यथित।
15 अगस्त 2014 आश्वस्तिदायी है। सेकुलर दलतंत्र से खार खाए भारतीय लोकमन ने अंगड़ाई ली। हिन्दू हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद को साम्प्रदायिक बताने वाले दलतंत्र के अधोवस्त्र भी नहीं बचे। राष्ट्रवादी विचार विजयी हुआ। राजनीति का वातायन सगंधा हो गया है। लोकसभा में राष्ट्रवादी विचार के सांसदों का बहुमत है। नरेन्द्र भाई मोदी की लोकप्रियता से उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम समूचा राष्ट्र आकर्षित हुआ है। राजनीति को संविधान की उद्देशिका से जोड़ने और संस्कृतिनिष्ठ बनाने का अवसर आ गया है। उद्देशिका हम भारत के लोग – वी दि पिपुल आफ इण्डिया से प्रारम्भ होती है। इसमें भारत के लोगों को सामाजिक आर्थिक व राजनैतिक न्याय दिलाने का संकल्प है। लेकिन सेकुलर राजनीति ने पूरे 67 बरस 'हम भारत के लोगों' की पिटाई की है।
वे भारत के लोग की कल्पना के ही विरोधी हैं। उनके अनुसार भारत जातियों, क्षेत्रों, मजहबी और पंथिक आस्था वालों का गठजोड़ है। यहां समवेत जन नहीं जातियां हैं। यहां एक संस्कृति नहीं अनेक संस्कृतियां हैं। ताजा जनादेश राष्ट्रवादी राजनीति के पक्ष में आया है। राजनैतिक जीत हो चुकी है। राजनीति को भारतवादी बनाना होगा। भारत इण्डिया नहीं है। नाम का अनुवाद नहीं होता। भारत वस्तुत: प्रकाश अभीप्सु राष्ट्रीयता है। भा का अर्थ है प्रकाश और रत का अर्थ निष्ठ या संलग्न।
भारत जाति, क्षेत्र या राज्यों का जोड़ नहीं। भारत एक काव्य है, वैदिक ऋचा मंत्र जैसा। हम सबका गोत्र, वंश, परिचय, आत्म और सर्वस्व भारत ही है। सांस्कृतिक राष्ट्र भावभूमि का यही प्रवाह हरेक भौगोलिक व सामाजिक क्षेत्र तक राजनीति में भी ले जाने की आवश्यकता है।
मजबूती केे आयाम
भारतीय लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां सभी को समान रूप से अवसर प्रदान किये गये हैं और 'जनता का जनता के हित के लिए जनता द्वारा शासन है।' आज पूरे विश्व में भारतीय लोकतंत्र स्वयं में अनूठा उदाहरण है। स्वतंत्रता पश्चात देश में बहुत बार विषम परिस्थिति उत्पन्न हुईं, लेकिन लोकतंत्र शासन मजबूती से बना रहा। भारत में लोकतंत्रीय शासन प्रणाली से जनता के हितों और शक्तियों को सुरक्षित रखा गया है। यहां चाहे राजनेता हो या कोई अन्य, वह चाहकर भी किसी के अधिकारों का हनन नहीं कर सकता है। कार्यपालिका के अपने क्षेत्र से बाहर जाने पर उसकी सीमा बताने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को विशेष शक्तियां प्राप्त हैं। कई बार असमंजस की स्थिति उत्पन्न होने पर न्यायपालिका, कार्यपालिका को अपनी राय से अवगत कराकर परस्पर सहयोग भी देती है। राष्ट्रद्रोह या भ्रष्टाचार के दोष सिद्ध होने पर न्यायधीश, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने की व्यवस्था भी लोकतंत्र में है।
चुनौतियां और भी हैं
स्वतंत्रता के 67 वर्ष पूरे होने के बाद भी आज देश में अशिक्षा, बेरोजगारी, भूखमरी, और स्वास्थ्य सेवाओं की भयावह स्थिति बनी हुई है। इसी का दुरुपयोग कर राजनीतिक दल और उनके प्रत्याशी चुनावों में भोली-भाली जनता के मतों का अपने हितों के प्रयोग करते हैं, लेकिन चुनाव के उपरांत पलटकर उनकी मुख्य समस्याओं के निदान के लिए कोई विशेष कार्य नहीं करते हैं। लोकतंत्र आज राजनेताओं का सिर्फ एकमात्र लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना रह गया है।
सबके लिए अवसर
लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति के लिए सभी क्षेत्रों में समान अवसर उपलब्ध हैं। कोई भी लोकसभा, विधानसभा या अन्य चुनावों में प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ सकता है। इस प्रक्रिया से चुनाव में आमजन भी जनप्रतिनिधि बनने का अधिकार रखता है। साथ ही लोकतंत्र में संविधान द्वारा दिये गये अधिकारों का हनन करने पर व्यक्ति स्वयं उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में जाकर अपने अधिकारियों की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ सकता है। लोकतंत्र मंे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं और देश की जनता के प्रति उत्तरदायी हैं।
संक्रमणकाल का दौर
देश के विभिन्न राज्य आज नक्सलवाद, आतंकवाद, धर्म की राजनीति, वंशवाद की राजनीति, भ्रष्टाचार और संघर्ष के संक्रमणकाल से गुजर रहा है। इससे लोकतंत्र की जड़े कमजोर हो रही हैं। एक तरफ देश की सीमा पर शत्रु घात लगाए बैठे हैं तो दूसरी तरफ आये दिन नक्सली और आतंकवादी किसी न किसी बड़ी वारदात को अंजाम दे डालते हैं। राजनेता मौका मिलने पर कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते हैं और करोड़ों-अरबों रुपये का घोटाला कर रहे हैं। साथ ही धर्म-जाति और वंशवाद की राजनीति कर देश का अस्थिरता के कगार पर ला रहे हैं।
-हृदयनारायण दीक्षित
(लेखक उ.प्र. विधान परिषद में भाजपा विधायक दल के नेता हैं)
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