|
हाथ पांव के लंगड़े, नाम सलामत खां…कुछ विसंगतियां चुटीली होती हैं, कुछ वाकई चोट पहुंचाती हैं। इस्लाम को मानवता का मजहब बताने वालों की बोलती आज कुछ ऐसी ही विसंगतियों के कारण बंद है।
'मुसल्लम ईमान' वालों की दुनिया में मची खलबली में कोई सलामत नहीं है। गैर- मतावलंबियों की तो बात छोडि़ए, फिरकों में बंटी मुस्लिम जमात भी उस वहाबी पागलपन से थर्रा रही है जिसके लिए जिंदा इंसान का खालिस मुसलमान होना ज्यादा जरूरी है। यहां निदार्ेष चुटीलेपन जैसा कुछ नहीं है। यह चोट घातक है और मानवता के अलावा सीधे-सीधे इस्लाम पर भी है।
सीरिया, इराक और अब लीबिया में खून सने आतंकी, उन्मादी इस्लाम के नए 'ब्रांड एम्बेसडर' हैं। शासन की कुर्सी को मजहब की रस्सी से बांधते और विरोधियों के लिए मौत के फंदे तैयार करते इन निर्मम हत्यारों के उभार की वजह भले स्थानीय हो, मत और जहरीली व्याख्याएं एक हैं। वहाबी जिहादी एक होकर इंसानियत के शिकार पर निकले हैं।
इस्लामी देशों के कट्टरवादी उफान में फंसे, अपहृत, जिबह किए जाते अन्य मतावलंबियों की चीखें विश्व को सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि 21 वीं सदी में कबायली सोच की जगह क्या होनी चाहिए।
वैसे, इस्लाम का यह रूप औपनिवेशिक शासन की विचार छाया में कितना पला-बढ़ा अब इस पर भी विमर्श होना चाहिए। यह सिद्ध तथ्य है कि बांटो और राज करो की नीतियों का चश्मा चढ़ाए पश्चिम ने पूरी दुनिया में जगह-जगह अंतर- सामुदायिक द्वंद्व खड़े किए हैं, समाज का विभाजन किया है और अपने क्षुद्र हितों की दुकान चलाई है। ब्रिटिश जासूस की स्वीकारोक्ति (उङ्मल्लाी२२्रङ्मल्ल२ ङ्मा ं इ१्र३्र२ँ रस्र८ या ट१. ऌीेस्रँी१, ळँी इ१्र३्र२ँ रस्र८ ३ङ्म ३ँी ट्रिि'ी एं२३) के तौर पर चर्चित दस्तावेज बताते हैं कि किस तरह ब्रिटिश राज में उपनिवेश कार्यालय खुलने से पहले औपनिवेशिक मामले देखने वाले सदर्न डिपार्टमेंट ने इस्लाम की अन्यान्य व्याख्याओं और अन्य मतावलंबियों को नकारने वाले असहिष्णु वहाबी इस्लाम का बीज रखा। बाद में इस विभाग का विलय विदेश एवं राष्ट्रमंडल कार्यालय में कर दिया गया। इसलिए वहाबी लावे का लेखा-जोखा करने के दौरान देखने वाली बात यह भी है कि इससे हो रहे वैश्विक विध्वंस में मानवीयता की हानि किन देशों के बही-खातों में मुनाफा बनकर चढ़ी या चढ़ने जा रही है। लेकिन सिर्फ पश्चिम का दोष गिनाने से मुस्लिम जगत का कट्टरवाद को पोसने का अपराध ढक नहीं सकता। असहिष्णुता का जहर फैलाते निर्मम हत्यारे क्यों एक ही मजहब के ठेकेदार हैं? क्यों इनके पीछे पूरा नहीं तो अधिकतर मुस्लिम समाज लामबंद नजर आता है? नफरत के इन सौदागरों पर खुद मुस्लिम समाज से उंगलियां क्यों नहीं उठतीं? मजहबी शुद्धता की जहरीली व्याख्याओं पर लगाम लगाने के लिए इस्लामी दुनिया में कोई व्यवस्था तो छोडि़ए, इच्छा तक क्यों नहीं दिखती? ये कुछ सवाल हैं जो दुनियाभर में मुसलमानों से पूछे जाते हैं और जिनका जवाब अब उन्हें देना ही होगा। पश्चिम एशिया की यह जिम्मेदारी पूरी तरह यूरोप-अमरीका पर नहीं टाली जा सकती।
सऊदी अरब से पनपे और फैले वहाबी आंदोलन में दुनिया भर के मुसलमानों का बहना पूरी दुनिया ने देखा है। ब्रिटेन, सोमालिया और भारत तक में कट्टरवाद की पाठशालाओं में अच्छे घरों के उच्च शिक्षित युवाओं का उमड़ना बताता है कि मुस्लिम समाज आज ऐसे कगार पर है जहां जमाने से तालमेल बैठाने में उसे दिक्कत आ रही है। कहीं मुसलमान खुद एक दूसरे के घर फूंक रहे हैं तो कहीं उनके पढ़े-लिखे बच्चे घर वालों को अधर में छोड़ जिहाद की आग में कूद रहे हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि 73 फिरकों में बंटी इस्लामी विरासत में से 72 को खारिज किए जाने का शाश्वत भय मुस्लिम समाज में है और रहेगा। लेकिन फिलहाल इस भय को वहाबी कट्टरवादियों ने और गहरा दिया है। अपने फिरके को सही ठहराने और बाकियों को रौंदने की आंधी उस बवंडर में बदलती दिखती है जो किसी एक फिरके या समुदाय के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए खतरा है।
पूरी दुनिया को इस आंधी के खिलाफ खड़ा होना ही होगा। इस्लाम को मानवता का मजहब बताने वाले लोग यदि चाहते हैं कि उनकी परिभाषाएं, खुद उनके घरों के बच्चे इस आंधी से बचे रहें, तो उन्हें मानवता के पक्ष में यह लड़ाई आगे आकर लड़नी होगी… वरना सब उड़ जाएगा।
टिप्पणियाँ