श्रावण मास का महत्वइन्द्रधनुष - अनेक पर्वों वाला है श्रावण मास
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श्रावण मास का महत्वइन्द्रधनुष – अनेक पर्वों वाला है श्रावण मास

by
Jul 28, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Jul 2014 16:37:33

 

वैदिक परम्परा में 'श्रावणे पूजयेत शिवम्' के नियमानुसार श्रावण मास में भगवान शंकर की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। श्रावण मास के आरंभ होते ही शिव भक्त कांवडि़ये हरिद्वार, ऋषिकेश और गोमुख से गंगाजल भरकर कांवड़ उठाये अपने-अपने घर को लौटते हैं। ऐसे में 'बम-बम भोले' के उद्घोष से पूरा वातावरण शोभायमान हो जाता है।
भगवान शंकर अपने भक्तों को इस कठिन साधना का सुफल अवश्य देते हैं। कांवड़ के अतिरिक्त श्रावण मास में अमरनाथ यात्रा, श्रावण की शिवरात्रि, नागपंचमी, हरियाली तीज और अंत में राखी का पर्व मुख्य रूप से आते हैं। श्रावण में सोमवार के व्रत और रुद्राभिषेक का विशेष महत्व है और इसीलिए इस माह को शिव आराधना का 'मास सिद्ध' कहते हैं। मंदिर में शिव परिवार पर जलाभिषेक विशेष महत्व रखता है और गंगाजल से भगवान शंकर का अभिषेक सर्वोत्तम माना गया है। जो श्रद्धालु मंदिर नहीं जा पाते हैं, वे घर में रखी शिवलिंग की पूजा कर सकते हैं। शिव पुराण में विभिन्न द्रव्यों से भगवान शिव का रुद्राभिषेक करने का फल बताया गया है। गन्ने के रस से धन प्राप्ति, शहद से अखण्ड पति का सुख, कच्चे दूध से पुत्र सुख, सरसों के तेल से शत्रु दमन और घी से रुद्राभिषेक करने पर सर्वकामना पूर्ण होती है। भगवान शिव की पूजा का सर्वश्रेष्ठ काल प्रदोष समय माना गया है। किसी भी दिन सूर्यास्त से एक घंटा पूर्व तथा एक घंटा बाद के समय को प्रदोषकाल कहते हैं।
श्रावण मास में त्रयोदशी, सोमवार और शिव चौदस प्रमुख दिन हैं। भगवान शंकर को भस्म, लाल चंदन, रुद्राक्ष, आक का फूल, धतूरा फल, बिल्व पत्र और भांग विशेष रूप से प्रिय हैं। भगवान शिव की आराधना वैदिक, पौराणिक या नाम मंत्रों से की जाती है। सामान्य व्यक्ति भी 'ऊंॅ नम: शिवाय या ऊंॅ नमो भगवते रुद्राय' मंत्र से शिव पूजन तथा अभिषेक कर सकते हैं। शिवलिंग की आधी परिक्रमा करनी चाहिए।
हिमालय नरेश की पुत्री देवी पार्वती ने भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए श्रावण मास में ही कठोर तपस्या की थी। इसी मास में समुद्र मंथन से हलाहल विष का पान कर भगवान शिव ने पूरी सृष्टि को बचाया था। इस माह में लघु रुद्र, महारुद्र और अतिरूद्र पाठ कराने का भी विधान है। श्रावण मास में जितने भी सोमवार पड़ें,यदि संभव हो तो श्रद्धालुओं को व्रत रखना चाहिए।
श्रवण कुमार के नाम पर है 'श्रावण मास'।
त्रेता युग में महाराजा दशरथ के हाथों भूलवश मारे गए श्रवण कुमार अपने नेत्रहीन माता-पिता को तीर्थ कराकर लौट रहे थे। श्रवण कुमार क ी मृत्यु उपरान्त ही उनके माता-पिता ने भी पुत्र के वियोग में अपने प्राण त्याग दिए थे और उससे पूर्व महाराजा दशरथ को श्राप भी दिया था कि उनकी भी पुत्र के वियोग में मृत्यु होगी। उस समय अपनी भूल का प्रायश्चित करते हुए महाराजा दशरथ ने वचन दिया था कि श्रवणा कुमार को सदा याद रखा जाएगा। तभी से श्रावण मास की परम्परा शुरू हुई थी। श्रावण नक्षत्र भी होता है और राखी वाले दिन घरों में जो सतिया बनाया जाता है, वह श्रवण कुमार से ही संबंधित है। इसकी शुरुआत के बाद से ही कांवड़ लेकर आने की परम्परा शुरू हुई थी।
मंगला गौरी व्रत
श्रावण मास में प्रत्येक मंगलवार को शिव-गौरी का पूजन करना चाहिए जिसे मंगला गौरी व्रत कहते हैं। यह व्रत विवाह के बाद पांच वर्ष तक प्रत्येक स्त्री को करना चाहिए। विवाह के उपरान्त पहले श्रावण मास में पीहर में रहकर तथा अन्य चार वर्ष ससुराल में रहकर यह व्रत संपन्न किया जाता है। मंगल गौरी पूजा में 16-16 प्रकार के पुष्प, मालाएं, वृक्षों के पत्ते, दूर्वा, धतूरे के पत्ते, अनाज पान के पत्ते सुपारी और इलायची पूजा में चढ़ाई जाती है। पूजन के उपरान्त परिवार में सबसे बुजुर्ग महिला को 16 लड्डुओं का बायना देने की परंपरा है।
इन्द्र को बांधी थी सबसे पहले राखी
देवराज इन्द्र जब बार-बार असुरों से युद्ध में पराजय का मंुह देख रहे थे तो सबसे पहले उन्हें इन्द्राणी ने राखी बांधी थी। उस दिन पूर्णिमा का ही दिन था और राखी बंधवाने के बाद इन्द्र ने असुरों पर विजय प्राप्त की थी। तभी से राखी या रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता है। उसके बाद से बहन अपने भाई और भतीजों की दीर्घायु और रक्षा के लिए उन्हें राखी बांधने लगीं। राखी को मुख्य रूप से ब्राह्मणों का त्योहार माना जाता था। लेकिन आज इसे सभी वर्ग के लोग मनाने लगे हैं। वेद परायण के शुभारंभ को उपाकर्म कहते हैं। पूर्व में राखी के ही दिन पिछले वर्ष के वेदाध्ययन की समीक्षा और अध्ययन के नये सत्र का आरंभ विशेष रूप से किया जाता था। –आचार्य कृष्ण दत्त शर्मा

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