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अपने देश में राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग है और सभी राज्यों के अपने-अपने ऐसे आयोग हैं जो उन बच्चों की चिंता करते हैं जो लावारिस हैं, भिखारी हैं, स्टेशनों तथा फुटपाथों पर रात काटने को विवश हैं और दुर्भाग्य से अपराध की दुनिया में भी फंसे हैं। इसके साथ ही केंद्र सहित हर राज्य का महिला एवं बाल विकास विभाग है। माना यह जाता है कि महिलाओं और बच्चों की देखभाल, उनके स्वास्थ्य की चिंता तथा उन्हें कुपोषण से बचाने के लिए सभी मंत्रालय काम करेंगे। देखने-सुनने में तो यह सब बड़ा अच्छा लगता है, पर जब समाचार मिलता है कि देश के लाखों लापता बच्चों का और उनमें से भी विशेषकर लड़कियों का कोई पता-सुराग नहीं मिला तब यह चिंता अवश्य होती है कि ये सरकारी विभाग सोए रहते हैं या जानते हुए भी न जानने का नाटक करते हैं।
ऐसा ही आजकल हो रहा है जब केंद्रीय मंत्री श्रीमती मेनका गांधी ने यह चर्चा छेड़ दी कि हत्या और बलात्कार जैसा अपराध करने वाले बच्चों को वही दंड दिया जाए जो वयस्क अपराधी को दिया जाता है। 16 वर्ष से अधिक आयु के बच्चों को अब बच्चा ही न माना जाए, ऐसा उनका तर्क है। मुझे ऐसे नेताओं की सोच-समझ पर तरस आता है। यह निश्चित है कि जब वे बच्चों की बात करते हैं तब वे यह भूल जाते हैं कि देश के करोड़ों बच्चे ऐसे हैं जिन्हें न माता-पिता का स्नेह, न परिवार की छाया, न शिक्षा और न ही कोई संस्कार देने की व्यवस्था है। शिक्षा और संस्कार तो बहुत दूर की बात है, उन्हें तो अपने पेट की आग बुझाने के लिए कीड़ों की तरह कूड़े के ढेरों से रोटी चुननी पड़ती है और ऐसा भी होता है कि कोई बड़ा कबाड़ व्यापारी उन बच्चों को बंधक रखता है। उनसे सड़कों पर पड़े कूड़े के ढेरों से वस्तुएं बीनने का काम लेता है और फिर पेट भरने के लिए कुछ टुकड़े उन्हें देता है, पर साथ ही उन्हें नशेड़ी भी बना देता है जिससे वे सदा के लिए उसी पर आश्रित हो जाएं।
ऐसे भी गिरोह पूरे देश में सक्रिय हैं जो बच्चों को उठाते, बेचते अथवा उन्हें अपंग बनाकर भिक्षावृत्ति में लगा देते हैं। याद यह भी रखना होगा कि अपराध की दुनिया में फंसे अस्सी प्रतिशत से ज्यादा बच्चे वही हैं जो दूरदराज के प्रांतों से रोटी कमाने के लिए घरों से भागते हैं और महानगरीय भीड़ में खो जाते हैं। ये स्वयं भी छोटे-मोटे अपराध करते हैं और बड़े-बड़े अपराधी इन्हें अपराध की दुनिया में धकेलते तथा अपना स्वार्थ सिद्घ करते हैं। होना तो यह चाहिए कि देश और प्रदेश की सरकारें यह चिंतन-मनन करें कि इन बच्चों को कैसे सुसंस्कारित, सुशिक्षित व स्वाबलंबी बनाकर अपराध जगत से मुक्त करवाएं, पर ऐसा कभी नहीं हुआ। केवल इन्हें दंड देने की बात ही की जाती है।
पंजाब में ही इस समय चार बाल सुधार गृह सरकार ने बनाए हैं, जिनमें आज की तिथि में लगभग पौने दो सौ बच्चे बंदी हैं। सुधार गृह का बोर्ड तो केवल उस बिल्डिंग के बाहर लगा है जहां ये बच्चे रखे गए हैं। बिल्डिंग के अंदर सुधार नाम की कोई वस्तु नहीं। मैंने बहुत बार सरकार को लिखा कि इन बाल सुधार गृहों में सारी दौड़ भोजनालय से शौचालय तक की है। वहां भी अधिकतर भोजन वैसा नहीं मिलता जैसा बच्चों को स्वस्थ रखने के लिए चाहिए।
अगर इन्हीं बच्चों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो सहज ही यह ज्ञात हो जाएगा कि 90 प्रतिशत बच्चे बहुत गरीब, लावारिस या दूसरे प्रांतों से काम की खोज में आए थे और अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कोई चोरी कर बैठा, कोई लड़ाई-झगड़ों में फंस गया और कुछ बच्चों ने यौन अपराध भी किए। जिस तरह श्रीमती मेनका गांधी ने यह कह दिया कि 16 वर्ष पूरे कर चुके बच्चों को बच्चा ही न माना जाए उससे तो यह सिद्घ होता है कि 16 वर्ष के बच्चे को फांसी भी दी जा सकती है, आयु भर के लिए जेल में भी डाला जा सकता है तथा अन्य कोई भी कठोर दंड देकर सदा के लिए सलाखों के पीछे धकेलने की तैयारी हो सकती है।
क्या कभी यह विचार किया जाएगा कि इन मासूमों को इस अंधेरी दुनिया में धकेलने के लिए दोषी कौन है और इन्हें उजाले से भरी जिंदगी देने का दायित्व किसका है? मैं तो यह कह सकती हूं कि जिन्होंने इन अभागे बच्चों को निकट से नहीं देखा वे तो यह कह सकते हैं कि अधिक दंड देने की व्यवस्था की जाए, पर जो सहृदय व्यक्ति इनकी पीड़ा और विवशताओं को जानता है वह तो सुधार, प्यार और संस्कार देने की बात करेगा, अंधेरी जिंदगी में फेंकने की नहीं।
देश के कानूनविदें और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बड़ी सहानुभूति के साथ उन बच्चों की स्थिति का अध्ययन करना चाहिए जो तथाकथित बाल सुधार गृहों में बंद हैं और साथ ही उन बच्चों को भी कोई छाया देनी चाहिए जो सड़कों पर भिक्षा मांगते हैं। सरकारें आज तक क्यों नहीं देख पाईं कि पूरे देश में ऐसे अशक्त बच्चे हैं जो तीर्थ स्थानों पर भिखारियों के झुंड में अपाहिज बनकर भिक्षा मांगते देखे गए हैं। किसी ने यह चिंता नहीं की कि देश के जो बच्चे लापता हैं वे कहीं इसी भिखारियों के झुंड में पड़े हुए जीवन भर के लिए भिखारी, अशक्य अथवा अपाहिज बना तो नहीं दिए गए। मेरा तो इन नेताओं से, टीवी चैनलों पर गर्म-गर्म वाद-विवाद करने वालों से यह निवेदन है कि कभी उन तथाकथित सुधार गृहों में जाएं जहां जिंदगी की सारी आशा खो चुके बदकिस्मत बच्चे रोटी से पेट तो भर रहे हैं, पर उनके सामने उनका अनिश्चित भविष्य मुुंंह बाये खड़ा है। केवल भविष्य ही अनिश्चित नहीं, उन्हें तो यह भी नहीं पता कि किस छत के नीचे उनका रैनबसेरा होगा और किस हाथ से उन्हें रोटी मिलेगी। यह भी नहीं जानते कि रोटी मिलेगी अथवा उन्हें फिर छीनकर ही खानी पड़ेगी। बहुत अच्छा हो अगर ऐसे लोग समय निकालें और पूरे देश में अपराध की दुनिया में फंसे या फंसाए गए बच्चों के साथ कुछ समय बिताएं, उनकी पीड़ा को समझकर ही कोई नया कानून बनाएं। सरकारों को याद रखना होगा कि केवल आंगनबाड़ी केंद्रों में आधी अधूरी रोटी देकर और सिलाई सिखाने के लिए कुछ केंद्र चलाकर न तो बच्चों का कुपोषण रुक सकता है और न ही महिलाएं स्वावलंबी हो सकती हैं। वैसे जो सरकारें जनता को करोड़ों बोतलें शराब की हर साल पिला देती हैं उनके मुंह से महिला और बाल हित की बात निकलना ही बेमानी है। -लक्ष्मीकांता चावला
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