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इराक में संकट

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Jul 21, 2014, 12:00 am IST
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आवरण कथा संभंधित – प्रथम सत्र

दिंनाक: 21 Jul 2014 12:37:43

इंडिया फाउंडेशन से जुड़े जम्मू-कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ श्री आलोक बंसल ने इस सत्र का विषय रखते हुए कहा कि सद्दाम हुसैन के पतन के बाद से इराक में शिया-सुन्नी का संघर्ष चरम पर पहुंच गया। बहुसंख्यक शियाओं के देश इराक में 20 प्रतिशत सुन्नी सत्ता पर अपना पुश्तैनी अधिकार मानते रहे हैं और अब अल्पसंख्यक कुर्द भी स्वयं को मुख्यधारा में लाने की फिराक में हैं। इराक में सत्ताधारी बाथ पार्टी स्वयं को माइकल अफलाक के नेतृत्व में सेकुलर कहने का दावा तो करती है किन्तु सीरिया के संबंध नकारने के बावजूद उनको ऐसा प्रमाणपत्र देना जल्दबाजी होगी। इराक में स्थिति चिंताजनक है। जरकारी को मानने वाले बगदादी ने अलकायदा और आईएसआईएस की मदद से इराक के नजब और कर्बला तक घुसने का फरमान जारी कर दिया है। प्राथमिक तौर पर देखें तो सीरिया की आर्थिक मदद बिना यह असंभव लगता है। स्वयं को खलीफा घोषित करने वाले बगदादी ने जहां कर्बला, मक्का, मदीना तक पहुंचने की धमकी दी है वहीं दुनिया के सारे सुन्नी इन पवित्र स्थलों की रक्षा के नाम पर अलग-अलग देशों से पहुंचने शुरू हो गए हैं, जिनमें कुछ भारतीय भी हैं।

ले.ज. (से.नि.) ए.ए. हसनैन ने कहा कि भारत के संबंध चाहे आर्थिक हों या सैन्य-इराक के साथ हमेशा ही अच्छे रहे। इराक में 40 से 50 फीसदी सुन्नी हैं और जहां तक आपसी संघर्ष का प्रश्न है तो यह खाड़ी युद्ध के बाद ज्यादा दिखाई देता है। आज स्थिति विस्फोटक है। इन्हें सुन्नी की बजाय बहावी कहना ठीक होगा और शिया तो जुनून का पर्याय बन गया है, नजफ और कर्बला इलाके में इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। इस्लाम की संपूर्ण अवधारणा ही नई आस्था की खोज है, वहां महत्व राष्ट्र या राष्ट्रवाद का नहीं बल्कि खुदा के पैगाम का है। बहावी आंदोलन के बाद खिलाफत का एक नारा बन गया है कि मौलिक विचार केवल पैगंबर मोहम्मद के हैं इसलिए 10,000 लड़ाकों के दल को लेकर चलने वाला विश्व का यह सबसे धनी और तकनीक से मजबूत उग्रवादी संगठन समूचे विश्व के लिए चुनौती बन रहा है।


पाञ्चजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर ने प्रश्न उठाया कि मजहबी आग्रह अपनी जगह हो सकते हैं लेकिन शियाओं की हत्याओं के जैसे वीभत्स वीडियो सोशल मीडिया के माध्यम से जारी हो रहे हैं यह सभ्य मानव समाज को बर्बर आदिम व्यवस्था का स्मरण दिलाते हैं।


मे.ज. (से.नि.) ध्रुव सी. कटोच ने कहा कि इस्लामिक खिलाफत केवल विनाश की ओर ले जाएगा, जिस विचारधारा के डीएनए के अंदर हिंसा और संघर्ष हो उससे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। इराक में बाथ पार्टी का गठबंधन प्रभावहीन हो गया, ऐसे में मौका पाकरआईएसआईएस स्वतंत्र कुर्दिस्तान की मांग के साथ खिलाफत के बड़े खेल तक पहुंच गया है।


पूर्व आईएएस डा. शक्ति सिन्हा ने कहा कि इस्लाम राजनीति को मजहब से अलग करता है लेकिन बगदादी द्वारा स्वयं को खलीफा घोषित करना क्या प्रमाणित करता है। जिस खलीफा के लिए सौ साल पहले खिलाफत चला था उसको भी अंग्रेजों ने नहीं तुर्की के लोगों ने हटाया था। इराक के बजाय अफगानिस्तान में राष्ट्रवाद ज्यादा मजबूत दिखाई पड़ता है। किसी भी देश में आर्मी 5 या 10 साल में नहीं बनती। खाली बंदूक और धन के बल पर भी सेना खड़ी नहीं होती, एक व्यापक वातावरण है जो इस क्षेत्र में कई वर्षों से पकता दिख रहा था। अमरीका ने तो सद्दाम के सफाए के बाद सेना वापस बुलाकर इराक को बाथ पार्टी के हवाले कर दिया था।


चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रश्न के लहजे में आर्गनाइजर के सम्पादक श्री प्रफुल्ल केतकर ने कहा कि अमरीकी सेना से मुक्ति के बाद इराक में जो कुछ हो रहा है उसे शिया-सुन्नी संघर्ष का स्वाभाविक रूप माना जाए अथवा सरकार की गुप्तचर एजेंसियों की असफलता?


इस प्रश्न के साथ अपनी बात जोड़ते हुए ले.ज. (से.नि.) एस.ए. हसनैन ने कहा कि अमरीकी सैन्य उद्योग बिना किसी बड़े झमेले में पड़े नहीं रह सकता, उनको हस्तक्षेप के लिए कुछ न कुछ अवश्य चाहिए। इराक युद्ध के समय वहां के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा था कि अमरीकी जनता को इस्लाम के खिलाफ 100 वर्ष तक के लंबे युद्ध के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

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