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कानपुर- उन्नाव में रोती-कराहती गंगा बस एक ही शब्द कहती होगी कि जिस मनुष्य के उद्धार के लिए मैंने स्वर्ग से नर्क का रुख किया और अपने बेंटों के मोक्ष की कामना को पूरा किया आज यही जान के दुश्मन बन बैठे हैं। कानपुर और उन्नाव में गंगा के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोनों शहरों ने गंगा का गला घोटने की कसम खा ली है। उन्नाव से कानपुर के बीच गंगा की हालत उस मरीज की भांति है जो सिर्फ बयान देने के लिए ही जिंदा हो।
कानपुर गंगा किनारे बसा पहला औद्योगिक शहर है। एक अनुमान के मुताबिक यहां 400 ट्रेनरियां एवं अनेक औद्योगिक इकाइयों के अलावा अस्पतालों एवं शहर के सीवर को गंगा में उड़ेल दिया जाता है।आंकड़ों के मुताबिक करीब 60 से ज्यादा करोड़ लीटर गंदा पानी गंगा में गिराया जाता है,जिसमें कुछ का ही शोधन हो पाताा है। इसके अतिरिक्त अनेक उर्वरक सयंत्र,कपड़ा मिल,शराब की फैक्ट्री अस्पतालों का कचरा जाह्नवी में विष घोलता है।
कानपुर होते हुए उन्नाव के शुक्लागंज के गंगा किनारे पहुंचे तो मानो ऐसा लगा कि यह मोक्ष दायिनी नहीं बल्कि मल से लबालब कोई ताल-तलैया हो। हर गली -बस्ती से खुलेआम मल बड़े नालों से गंगा में गिरता है। गंगा घाट एवं मिश्रा कालोनी के पास खुद नगर निगम ने गंगा की तलहटी के पास मल के टैंक बना रखे हैं,जिससे अंधाधुंध मल गंगा में रिस-रिस कर जाता है। उन्नाव के शुक्ला घाट और भगवा घाट का भी यही हाल है।
हालत इतनी नाजुक है कि देखने मात्र से गंगा मोक्षदायिनी नहीं मलवाहिनी लगती है। साथ ही उन्नाव में प्रतिदिन ट्रकों नमक आता है। इस नमक का कार्य यह होता है कि यह नमक बीसों बार चमड़े पर सुखाने के लिए डाला जाता है,जिससे चमड़ा जल्दी सूख जाता है। उसके बाद यही नमक का पानी सीधे गंगा में डाल दिया जाता है जिससे पानी दूषित हो जाता है। शुक्लागंज के घाट पर बैठे पं. श्रीकान्त दीक्षित गंगा की दुर्दशा पर पूरे कानपुर वाासियों को दोषी ठहराते हैं। साथ ही कहते हैं 'क्या नगर निगम को इन गंदे नालों के बारे में नहीं पता? नगर निगम जान बूझकर ऐसा करता है। इतनी सरकारें आइंर् पर किसी ने गंगा के पास लगी चमड़े की फैक्ट्रियों को हटाने की दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखाई,इसलिए यह विष फेंकती हैं तो उसमें हर्ज क्या है?'
असल में कानपुर में गंगा की सफाई का सफर 1889 में शुरू हुआ था। इन 25 सालों में सफाई के नाम पर सात अरब रुपए खर्च हो चुके हैं पर गंगा रही वैसे की वैसी। उ.प्र प्रदूषण बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार कानपुर में गंगा पहले से और मैली होती जा रही है। कानपुर के जाजमऊ क्षेत्र में टे्रनरियों से निकलने वाले रासायनिक उत्प्रभाव के लिए जल निगम ने 36 एम.एल.डी. का प्लान्ट लगाया है लेकिन वह नाकाफी है,जिससे गंदा पानी सीधे गंगा में जाता है। सवाल है कि गंगा की सफाई के नाम पर जो पैसा आया वह गया कहां?
कानपुर से लेकर वाराणसी तक जितने भी शोधन प्लांट लगे हुए हैं वह हैवी मैटल को शोधित करने के लिए नाकाफी हंै। गंगा में अत्यधिक प्रदूषण हैवी मैटल से ही होता है। क्योंकि शोधित प्लांट में यह पानी शोधित होने के बाद भी इसमें केमिकल और अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा रह जाती है। सरकार को चाहिए कि वह सभी प्लांटों में पानी का जहां अंतिम बहाव होता है वहां आर.ओ प्लांट लगवाए तो काफी हद तक हैवी मैटल का शोधन हो सकता है।
—प्रो. पी.के. मिश्रा, रासायनिक अभियंत्रिकी विभाग भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान,बी.एच.यू.
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