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2525 किलोमीटर कुल लंबाई
गोमुख गंगोत्री ग्लेशियार
गंगा का उद्गम स्थल। अविरल और निर्मल गंगा का स्वरूप यहां देखते ही बनता है।
हरिद्वार
यह शुरुआती स्थान है जहां गंगा में गंदगी दिखनी शुरू हो जाती है। प्रतिदिन करीब 8 से 9 करोड़ लीटर सीवर और उद्योगों का प्रदूषित पानी इसमें मिलता है।
गढ़मुक्तेश्वरकभी सूंसों का झुंड गंगा की शोभा बढ़ाता था आज वह पानी की कमी के चलते शायद ही दिखता हो।
कानपुर उ.प्र. में गंगा सबसे ज्यादा यहीं प्रदूषित है। प्रतिदिन 60 करोड़ लीटर से ज्यादा गंदा पानी गंगा में मिलता है।
इलाहाबाद संगम नगरी में यमुना के पानी मिलने से गंगा के पानी की कमी तो पूरी हो जाती है पर यह पानी उसे राहत नहीं देता। प्रतिदिन करीब 50 करोड़ लीटर गंदा पानी यहां से भी मिलता है।
वाराणसी -गंगा की अविरलता और निर्मलता का मुद्दा यहीं से जोर पकड़ता है। गंगा का हाल वाराणसी में वही है जो सभी जगह है। यहां करीब 50 करोड़ लीटर विषाक्त जल प्रतिदिन इसमें मिलता है।
पटना पटना से प्रतिदन करीब 30 करोड़ लीटर विषाक्त पानी इसमें मिलता है। साथ ही यहां अन्य रसायनों के मिलने से गंगा अत्यधिक प्रदूषित हो जाती है।
भागलपुर यहां भी गंगा की दशा अच्छी नहीं है। शहर के सीवेज को इसमें ऐसा छोड़ा जाता है जैसे यह कोई नाला हो।
कोलकाता कोलकाता में छोटी-बड़ी 400 से ज्यादा औद्योगिक इकाइयां हैं जो अपने साथ गंगा में प्रतिदिन लगभग 70 से 75 करोड़ लीटर गंदा पानी मिलाती हैं।
बंगाल की खाड़ी
गंगा के खिलाफ सरकारों का लम्बा षड्यंत्र
कांग्रेस ने सदैव से भारत की सांस्कृतिक विरासतों को चाहे वह गंगा हो या गाय को समाप्त करने का षड्यंत्र किया। इनके शासन में योजनाएं बनीं पर काम क्या हुआ जगजाहिर है। जब-जब देखा कि गंगा के बहाने हिन्दू भावना को उकसाकर उसका फायदा उठाया जा सकता है उसने गंगा जाप किया। असल में कांग्रेस की मानसिकता गंगा को स्वच्छ रखने की रही ही नहीं। देश की जनता को बहकाने के लिए जून 2009 में मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण बना दिया गया। इस प्राधिकरण का हाल ये रहा कि यह रस्म अदायगी के तौर पर साल में दो बैठकें तक नहीं कर पाया । 2012 में एक बैठक में गंंगा पर मनमोहन सिंह ने कहा कि गंगा को बचाने का समय जा रहा है,लेकिन किया क्या ये सभी के सामने है। गंगा संरक्षण इंदिरा गंाधी के प्रधानमंत्रिकाल में में भी राष्ट्रीय चिंता थी पर चिंता सिर्फ चिंता ही रही। प्रधानमंत्री राजीव गंाधी ने भी1986 में गंगा एक्शन प्लान की घोषणा की और कहा' गंगा आध्यात्मिकता की पहचान है,हम गंगा को निर्मल करेंगे।'पर राजीव गंाधी के एक्शन प्लान की हालत ये हुई की इसका पहला चरण 1990 में पूरा होना था जो 2000 में बंद कर दिया गया। दूसरे चरण को भी इसी तरीके से आगे बढ़ाते हुए 2009 तक चलाया गया। संकल्प हीनता और भ्रष्टाचार के चलते इन एक्शन प्लानों की क्या दुर्गति हुई ये देश के सामने है।
पुराना समझौता सन 1913 में गंगा के जल का नहरों में और अधिक प्रयोग करने के लिए प्रश्न उठा था,जिसके विरोध में सम्पूर्ण हिन्दू समाज ने महामना मदनमोहन मालवीय के सान्निध्य में आक्रोश व्यक्त किया था। लाखों लोगों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किया,जिसके फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने हिन्दू समाज के प्रतिनिधियों से वार्ता की तथा 19दिसम्बर 1916 को एक समझौता अस्तित्व में आया तथा 26 दिसम्बर,1917 को भारत सरकार ने वादा किया कि गंगा का निर्मल मुक्त प्रवाह बनाये रखा जायेगा। साथ ही हिन्दू समाज की अनुमति के बिना गंगा के अबाधित प्रवाह में कोई परिवर्तन नहीं किया जायेगा। भारतीय संविधान के अनु.372 व अनु.13 के अन्तर्गत ये सभी समझौते व आदेश विधि मान्य व लागू हैं तथा सरकार पर बाध्यकारी हैं।
सरकारें गंगा को मां कहकर अच्छी-अच्छी बातें तो करती हैं लेकिन असल में हकीकत कुछ अलग है। मां गंगा की स्थिति अच्छी नहीं है। आज तक किसी भी सरकार ने गंगा के लिए कोई कानून नहीं बनाया,जिसके कारण यह मैला ढोने वाली गाड़ी बनती जा रही है। केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह राज्य सरकारों पर कड़ाई करे और कड़े से कड़े कदम उठाये। गंगा के लिए ऐसा कानून बने जिससे उसका रक्षण, सुरक्षा और अविरलता बनी रहे।
—राजेन्द्र सिंह, अध्यक्ष,तरुण भारत संघ
आज तक गंगा के लिए सरकार द्वारा जितने भी कार्य हुए वह अंतिम स्तर पर नहीं पहुंचे,जिससे इसकी हालत दयनीय होती गई। दूसरी ओर गंगा की दुर्दशा के लिए काफी हद तक हमारा समाज भी जिम्मेदार है। वह श्रद्धा के नाम पर उसके साथ क्या-क्या नहीं करता है,लेकिन उसे समझना चाहिए कि निष्ठुरता की भी एक पराकाष्ठा होती है। सरकारों को चाहिए कि वे गंगा को अविरल रहने दें। इसे अपने लोभ के लिए प्रयोग में न लें।
—प्रो. तपन चक्रवर्ती
पूर्व निदेशक,राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी शोध संस्थान,एन.ई.ई. आर.आई.
बांधों की बेडि़यां
कुछ लोग कहते हैं कि गंगा के प्रदूषण की सारी हाय-तौबा उत्तराखंड में ही क्यों मचाई जाती है? जबकि उत्तर प्रदेश के कई शहरों में इससे कई गुना ज्यादा प्रदूषण गंगा में विद्यमान है।
वास्तविकता में यह है कि गंगा की अविरलता और निर्मलता का प्रश्न बांधों से जुड़ा है,जिनका निर्माण सिर्फ उत्तराखंड में ही हो रहा है। वैज्ञानिक लिहाज से देखें तो गंगा पर बने बंाध पर्यावरण एवं निर्मलता दोनों के हिसाब से अवांछित हैं। लेकिन सभी सरकारों ने इसको मात्र पानी समझा और अपने स्वार्थ के लिए इसका दोहन किया। पहाड़ का सीना चीरकर आकार ले रही जल विद्युत परियोजनाएं गंगा की अविरल धारा को खंडित कर रही हैं। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की कुछ समय पहले की रपट के मुताबिक गोमुख से हरिद्वार के बीच गंगा बांधों से जकड़ी है। गोमुख से हरिद्वार के बीच 294 किमी. का सफर तय करने वाली गंगा के 82 किमी. के हिस्से को सुरंग या जलाशयों में तब्दील कर दिया गया है। मुश्किल से यह 80 कि.मी का स्वच्छंद सफर तय करती है। ऊपरी हिस्से में तपोवन,थारली,मिवारा,उरगम,विष्णुप्रयाग,बद्रीनाथ,मनेरीभाला में करीब ,एक लाख तीस हजार करोड़ की जलविद्युत परियोजनाएं जहां निर्माणाधीन हैं वहीं दर्जनों प्रस्तावित हैं। साथ ही जिन निर्बाध विद्युत परियोजनाओं के नाम पर उत्तराखंड सरकार फूलती है वह इन परियोजनाओं से अपने लक्ष्य का आधा भी विद्युत उत्पन्न नहीं कर पाती है।
गंगा पर दशकों से अपनी नजर बनाये हुए मदनमोहन मालवीय पत्रकारिता संस्थान,वाराणसी के प्रो. ओमप्रकाश सिंह कहते हैं 'उत्तराखंड में विद्युत परियोजनाओं के अंधाधुंध निर्माण कार्य से हिमालय का नाजुक पर्यावरण प्रभावित हो रहा है। असल में भू-वैज्ञानिको ंका मानना है कि यहां पर राख के पहाड़ हैं। अगर कहीं भूस्खलन या भूकम्प आता है तो इसके कारण कितनी क्षति होगी इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता।' असल में हिमालय की गोद से निकलने के कारण गंगा प्रतिवर्ष करोड़ों टन ऊपजाऊ मिट्टी अपने साथ ले आती है। इसी मिट्टी से गंगा-यमुना का दोआब बना है जो भारत की खाद्य सुरक्षा की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी वहन करता है। बांध बन जाने से यह मिट्टी बांध में ही रह जाती है और आगे तक नहीं आ पाती है जिससे कृषि भी इन बांधों का शिकार हो रही है।
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