|
अमरीका ने 2003 में घातक परमाणु हथियार रखने के बहाने न केवल सद्दाम हुसैन का खात्मा किया बल्कि इराक में सत्तासीन बाथ पार्टी की सरकार को भी हटा दिया। यह अस्थिरता वहां आज तक बनी हुई है। सद्दाम के पतन ने इराक में दबे कुचले बहुसंख्यक शियाओं और अल्पसंख्यक कुर्दों में प्रशासन व सरकार में महत्व पाने की ललक को जगा दिया था। जबकि सुन्नी अरब, जो कि सत्ता का भोग लगातार करते आए हैं, अपने प्रभुत्व को किसी भी कीमत पर कम होने नहीं देना चाहते हैं। इन सभी परिस्थितियों ने अलकायदा को 'तालाब की मछलियों' को पाने के लिए परस्पर जातीय संघर्षों की जमीन उपलब्ध करवा दी। अक्तूबर 2004 में अबू मुसाब अल-जरकावी का इस्लामी उग्रवादी समूह जमायत अल तावहिदवल- जिहाद, अलकायदा बन गया। अलकायदा ने गठबंधन सेनाएं बनानी शुरू कर दीं और इसी क्रम में शिया मुसलमान उनका पहला लक्ष्य बने। इसके बाद से ही इस क्षेत्र में गुटीय संघर्ष और तनाव का दौर शुरू हो गया। इराक में अमरीकी सेना की उपस्थिति ने शिया नेताओं में राष्ट्रवाद का भाव उत्पन्न कर दिया और इन्हें विदेशी आक्रमणकारियों के साथ गलबहियां करते देखा जाने लगा। सद्दाम की मौत ने इस समूचे क्षेत्र में आपसी टकराव व संघर्ष को खूनी रूप दे दिया। जहां शियाओं और कुर्दों ने सद्दाम की मौत का जश्न मनाया वहीं सुन्नी अरबियों ने एक बलिदानी की तरह उसका शोक मनाया।
अमरीकी सेनाओं की वापसी से इराक को विदेशी कब्जे से मुक्ति और इस क्षेत्र में शांति का विकल्प खुलना चाहिए था। अलकायदा को भी यह लग रहा था कि वहां उसकी दाल अब ज्यादा नहीं गलेगी। यहां एक लोकतांत्रिक सत्ता की स्थापना हो रही थी जिसमें सभी समुदायों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो रहा था और आगे विपक्षियों के लिए भी रास्ता खुलना था। बहुलवादी लोकतांत्रिक इराकी सल्तनत अरब दुनिया के लिए एक मिसाल बन रही थी। लेकिन इस कारण कई मध्य पूर्वी देशों की उत्सुकता बढ़ने लगी, 'अरब उभार' का यह पहला संकेत था। यह अरब उभार ट्यूनीशिया से प्रारंभ हुआ और इजिप्ट एवं लीबिया में कई सत्ता केन्द्रों को उखाड़ता हुआ खून-खराबे की शक्ल में सीरिया तक पहुंच गया। सीरिया में राष्ट्रपति असद की सत्ता के विरुद्ध मोर्चा खोला गया, इसमें ज्यादा कुछ नहीं एक लोकतांत्रिक विकल्प का मसला था जो शिया-सुन्नी संघर्ष में बदल गया। सऊदी अरब के बाद कतर और तुर्की ने भी विद्रोहियों को समर्थन देना शुरू कर दिया। इन स्थितियों में ईरान और हिजबुल्ला को शासन के समर्थन में आना पड़ा। इराक वैसे तो तटस्थ बना रहा, लेकिन शिया सरकार ने असद के प्रति झुकाव शुरू कर दिया। ठीक इसी समय पर इराक में नूरी अल मलिकी सत्ता में आ गए और सुन्नी संवेदनाओं के प्रति कोई चिन्ता किए बिना शियाओं की प्रतिष्ठा की स्थापना में लग गए। इससे उन सुन्नी अरबों में अलगाव की भावना पैदा होने लगी जो बीते समय में इराक पर राज करते रहे थे। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि सुन्नी अरबों के प्रभाव वाले क्षेत्रों में तेल भंडारों की कमी है और इसी कारण उन क्षेत्रों में राजस्व कम है। इन सभी बातों ने सुन्नी अरबों के दर्द को बढ़ाया है। इससे क्षेत्रीय विभाजन की मांग पर संघर्ष बढ़ा और संयोग से इस्लामिक स्टेट आफ इराक एण्ड अल शाम (आईएसआईएस) को सीरिया से निकलकर इराक में पांव जमाने का अवसर प्राप्त हो गया। इसे निराश और हताश सुन्नी सैन्य समूहों के साथ पुराने बाथ पार्टी समर्थकों और जनजातियों का समर्थन प्राप्त हो गया और उन्हें भी आईएसआईएस के कंधों पर चढ़कर निशाना साधने का मौका मिल गया।
इराक में आईएसआईएस की गतिविधियों की वैश्विक समुदाय ज्यादातर अनदेखी करता है क्योंकि इनके द्वारा नियंत्रण में लिया गया क्षेत्र खास आर्थिक महत्व का नहीं, बल्कि रेगिस्तानी इलाका है। मात्र यह मान लिया गया कि सीरिया में सक्रिय रहने के बाद अब ये इराक की ओर बढे़ेंगे। ये सब अनुमान तब उल्टे पड़ गए जब आईएसआईएस ने 1.8 मिलियन की जनसंख्या वाले इराके के दूसरे बड़े शहर मोसुल को अपने कब्जे में ले लिया।आईएसआईएस ने जिस तरीके से शहर को अपने कब्जे में लिया- उत्तरी और पश्चिमी इराक के ही तिकरित, तलअफार और वास्तस्वात क्षेत्र के लड़ाकों के समूह को साथ में लेकर-उससे सारी दुनिया का ध्यान इस ओर गया। इससे इराकी सेना की युद्ध लड़ने की क्षमता पर भी गंभीर प्रश्न खड़े हुए हैं। इराक से छनकर आईं रपटों से पता चलता है कि मलीकी की नीतियों ने सुन्नियों में इतना अलगाव पैदा कर दिया था कि सुन्नी सेनाओं ने आईएसआईएस के खिलाफ लड़ने की बजाय उसका साथ देना शुरू कर दिया। इससे शिया सैनिकों में अपने सुन्नी सहयोगियों की निष्ठा के प्रति आशंका का भाव स्वत: जागृत हो गया।
नक्शबंदी जमात में सद्दाम हुसैन की बाथ पार्टी के पुराने सदस्य शामिल हैं। इनमें नक्शबंदी नेता इज्जत इब्राहिम-अल-दाउदी हैं, जो खाड़ी युुद्ध के दौरान छठे वांछित व्यक्तियों में से एक थे। अमरीकी नेतृत्व वाली सुरक्षा सेनाओं ने 2003 में इनको पकड़ने का अभियान चलाया था। उन्होंने आईएसआईएस और उसकी ऐतिहासिक विजय की प्रशंसा करते हुए कहा था कि यह देश के इतिहास में नई पीढ़ी के लिए जिहाद के मकसद से स्वतंत्रता, एकता और उन्नत भविष्य का ऐतिहासिक मौका है।
आठवीं शताब्दी में मंगोलों द्वारा इराक रौंद दिया गया था। आज 90 हजार से अधिक इराकी सैनिक आईएसआईएस के साथ दिखते हैं। उन्हें लगता है कि देश को एकीकृत करने के लिए आईएसआईएस एक प्रभावी संगठन है। समर्थन पाकर आईएसआईएस ने इस क्षेत्र में कबीलायी घृणा फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और लड़ाकों को कह दिया कि अब जान देकर ही इस इलाके को छोड़ना है। साथ ही सुन्नियों के प्रति अतिरिक्त सहानुभूति रखनी है। शियाओं को धमकी दी गई कि आईएसआईएस केवल उनके पवित्र स्थलों, जैसे बगदाद व बुटालसो तक ही नहीं, बल्कि नजफ और कर्बला तक भी घुसेगा। तथ्य है कि कर्बला बीते समय में वहाबियों द्वारा ध्वस्त किया गया था और इसी कारण विश्व भर में शियाओं की चिंताएं बढ़ रही हैं।
आईएसआईएस को मिली सफलता के बाद उन्होंने पूरे विश्व में इस्लामिक खिलाफत स्थापित करने की घोषणा कर दी और इस्लामिक राज्य में से इराक और लेवान्त का नाम हटा दिया। अपने मुखिया, अबू बकर अल बगदादी को नया खलीफा घोषित कर दिया। संयोग की बात यह है कि ऑटोमन सल्तनत के पतन के बाद तुर्की में 100 साल पहले खलीफा हटाया गया था। इसके वैश्विक परिप्रेक्ष्य में दूरगामी परिणाम होंगे। सीरिया और इराक के हिस्सों में अपने नियंत्रण में आईएसआईएस ने इस्लामिक खिलाफत को स्थापित किया गया है और स्वयं को राष्ट्रीय सीमाओं से मुक्त कर दिया है। उपनिवेशवादी व्यवस्था या उत्तराधिकार में जो नियम-कानून होते हैं, वे अपवाद रहेंगे। अबू बकर अल बगदादी को खलीफा इब्राहिम का नाम देकर इसे सारे मुस्लिम जगत में अलकायदा नेता आयमन-अल-जवाहिरी से अधिक ताकतवर तो बना ही दिया। इनके पास लड़ाई लड़ने के लिए वैसे भी संसाधनों की कमी नहीं है। मोसुल में कई बैंकों में नकद और सोने के भंडार सहित 429 मिलियन डॉलर मौजूद है। इनके पास बड़ी मात्रा में हथियार व विस्फोटक सामग्री आदि मौजूद है।
इस्लामिक राज्य ने अलकायदा और अन्य उग्रवादी सुन्नी गुटों से कहा है कि वे जल्द से जल्द इससे जुड़ें। अलकायदा से जुड़े अलनुसरा फ्रंट ने भी नये खलीफा की ताजपोशी में सहमति दी है। पाकिस्तानी में एक इस्लामी संगठन और नाइजीरिया में सक्रिय बोको हराम पहले ही इस नई खिलाफत के साथ जुड़ चुके हैं। जैसे-जैसे इसको अधिक से अधिक सैद्धांतिक मान्यता प्राप्त हो रही है, वैसे-वैसे विश्व भर के सुन्नी युवा इससे जुड़ने को आतुर दिखाई पड़ रहे हैं। सब कहते हैं कि हम इस 'पवित्र जंग' को लड़ेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि रूस और अमरीका की सलाह पर चलने वाली इराकी सेना आईएसआईएस पर काबू करने में सफल नहीं हो सकी और इन्होंने जिस क्षेत्र पर कब्जा किया है उसको मुक्त करने में असफल है। इराकी कुर्द, जो कि लंबे समय से स्वतंत्रता पाने की आस में लगे हुए थे और पहले ही से स्वायत्तता की मांग कर रहे थे, वे भी इस खून-खराबे का लाभ उठाकर किर्कुत पर अपना कब्जा करना चाहते हैं जिस पर वे हमेशा से ही अपनी राजधानी होने का दावा करते हैं। सीरिया में कुर्दों को अपने क्षेत्र में पहले से ही पूर्ण संप्रभुता प्राप्त है। यह समय पर निर्भर करता है कि कुर्दों को किसी दूसरे राज्य में ऐसा अवसर मिल जाए। ठीक इसी प्रकार अब इनके नाम और उद्देश्य इराक एवं लेवांत के नाम से लंबे समय तक न देखे जाएं, लेकिन इस्लामिक राज्य अपने प्रभाव को तुर्की और पश्चिमी एशिया के अन्य भागों में भी फैलाना चाहता है। इसलिए वे इस सारे क्षेत्र को अस्थिर करना चाहते हैं। पश्चिम में ईरान एक ऐसा देश है जो अपने आप को पश्चिम में शिया विरोधी अभियान होने के कारण भी इस्लामिक खिलाफत से अलग पाता है और पूर्व में मुल्ला उमर के नेतृत्व वाली उसकी तालिबान सेना निष्ठावान है और विकास उसका मुख्य मुद्दा है। हो सकता है कि ईरान शिया गठबंधन को ज्यादा ठोस बनाने की कोशिश करेगा। जिस प्रकार इराकी और सीरियाई हिजबुल्ला की तरह इस सुन्नी वहाबी खिलाफत की धमकी का प्रतिरोध कर रहे हैं। यह खिलाफत केवल पश्चिम एशिया को प्रभावित नहीं करेगी, बल्कि सारे इस्लामिक विश्व के साथ दक्षिणी एशिया समेत सारे वैश्विक परिदृश्य को प्रभावित करेगी।
(लेखक सुरक्षा और रणनीतिक विषयों से जुड़े इंडिया फाउंडेशन के निदेशक हैं)
टिप्पणियाँ