इराक में उथल-पुथल पर कार्यशाला
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इराक में उथल-पुथल पर कार्यशाला

by
Jul 14, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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खिलाफत के ऐतिहासिक सरोकार और तीखे विरोधाभास

दिंनाक: 14 Jul 2014 14:23:40

अलकायदा हमेशा से कहता आया है, कि पिछली सदी में विश्व भर में मुस्लिम 'परेशान' हुए हैं, क्योंकि मुस्लिम हितों की रक्षा करने वाली कोई खिलाफत नही थी। इस स्वप्न की एक व्यापक अपील है, और आइएसआइएस उसे भुना रहा है।

खिलाफत ऐतिहासिक भी है, और सैद्धांतिक भी। ये जंगों और अंतर्द्वंदों की कठोर सच्चाई से निकला रूमानी ख्वाब है, जिसका कोई निश्चित रंग, रूप, आकार नहीं है। अधिकांश मुसलमानों के लिए खिलाफत मुस्लिम शक्ति का वो स्वर्णकाल है, जब खलीफा की तलवार के नीचे 'शुद्ध इस्लामी कानूनों' का शासन चलता था। परंतु इसी खिलाफत में मुस्लिम जगत के विभाजन के बीज छिपे हुए हैं। इस्लाम की सारी अंतरधाराओं के घर्षण, शिया सुन्नी विभाजन और भौगोलिक विशेषताओं का इतिहास इसी स्रोत से निकला है।
'खिलाफत' शब्द अरबी शब्द खिलाफा से बना है, जिसका अर्थ है 'उत्तराधिकार'। खिलाफत का आशय हुआ 'मोहम्मद के उत्तराधिकारी का शासन'। शासक खलीफा कहलाया, जो सैद्धांतिक रूप से संसार के सारे मुसलमानों का मजहबी नेता और नायक होता है। परंतु यह कहने में जितना सीधा-सरल लगता है, व्यवहार में उतना ही जटिल सिद्ध हुआ। खिलाफत का इतिहास संसार की जटिलतम पहेलियों और उलझनों की वो कहानी है, जिसकी विरासत शिया-सुन्नी खंडों और उनके दर्जनों उपखंडों और आधा सैकड़ा मुस्लिम देशों में बिखरी हुई है।
632 ईसवी में मोहम्मद की मृत्यु तक अरब में इस्लाम सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य और सैनिक शक्ति बन चुका था। मोहम्मद के बाद मोहम्मद के साथियों ने अबू बकर को प्रथम उत्तराधिकारी या प्रथम खलीफा के रूप में चुना। अबू बकर की मृत्यु के बाद उमर के हाथ सत्ता आई, जिसे संभवत: मोहम्मद के दामाद और चचेरे भाई अली ने पसंद नही किया। अली इस्लाम स्वीकार करने वाले प्रथम पुरुष भी थे।
उमर की मृत्यु के बाद जब मक्का के पुराने शासक वर्ग उमैय्या से उस्मान को तीसरा खलीफा चुना गया तो अली का विरोध खुलकर सामने आया। उस्मान ने अली को दरकिनार करते हुए नवविजित प्रांतों में अपने रिश्तेदारों और उमैय्या खानदान के लोगों को नियुक्त किया। अंतत: 656 ईसवी में उस्मान अली समर्थकों के हाथों मारा गया और अली को नया (चौथा) खलीफा बनाया गया।
इसके खिलाफ मोहम्मद के पुराने साथियों ने विद्रोह कर दिया। इन बागियों का साथ दिया स्वर्गीय मोहम्मद की दसवीं पत्नी आयशा ने। बसरा के निकट हुई इस लड़ाई में आयशा ने स्वयं ऊंट पर सवार होकर अली के विरुद्ध बागियों का नेतृत्व किया। बागी परास्त हुए और मारे गए। मोहम्मद की पत्नी होने के कारण आयशा को मुत्यदंड न देकर नजरबंद क र दिया गया। परंतु सत्ता के पांचवे साल में ही 660 ईसवी में अली विरोधियों द्वारा मार दिए गए और सत्ता में आ गए। अली के बेटों ने इसे स्वीकार नहीं किया और करबला की लड़ाई में पराजित होकर कत्ल कर दिए गए। (इन्हीं की याद में शिया मोहर्रम मनाते हैं।) यहीं से इस्लाम में पहली बार दरार पड़ी।
अली के समर्थक शिया अर्थात साथी (आशय-मोहम्मद के साथी) कहलाए। उनके विरोधी सुन्नी (उद्गम सुन्ना, मोहम्मद का अनुसरण करने वाले) कहलाए। शियाओं और सुन्नियों की अलग-अलग खिलाफतें कायम हुईं अरब में सुन्नी तो ईरान, जार्डन आदि में शिया शासन में आए। कालांतर में खिलाफतें वंशानुगत हो गईं। सुन्नियों में प्रथम चार खलीफाओं (अली सहित प्रथम तीन) के बाद उम्मेद वंश की खिलाफत आई, खिलाफतों का यह सिलसिला तुर्की की ओट्टोमान खिलाफत (1920 में समाप्त) और आज भी जारी अहमदिया खिलाफत (1908 से आज तक जिसका किसी भूभाग पर शासन नहीं है, पर संसार भर के अहमदी इसे मान्यता देते हैं) तक आता है। 14 सौ सालों में धरती के अलग-अलग भूभागों में दर्जनों खिलाफतें आईं और उनकी विरासतें आज मुस्लिम जगत में बिखरी हुई हैं। फिर और भी शासन परंपराएं अस्तित्व में आईं। मोरक्को के शासक स्वयं को अमीर कहते आए हैं, पर खिलाफत का दावा नहीं करते। वहीं सोमालिया, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देश कभी खिलाफत का हिस्सा नहीं रहे। इनके अपने सुल्तान व शासक रहे हैं।अलकायदा हमेशा से कहता आया है, कि पिछली सदी में विश्व भर में मुस्लिम 'परेशान' हुए हैं, क्योंकि मुस्लिम हितों की रक्षा करने वाली कोई खिलाफत नही थी। इस स्वप्न की एक व्यापक अपील है, और आइएसआइएस उसे भुना रहा है।
खिलाफत ऐतिहासिक भी है, और सैद्धांतिक भी। ये जंगों और अंतर्द्वंदों की कठोर सच्चाई से निकला रूमानी ख्वाब है, जिसका कोई निश्चित रंग, रूप, आकार नहीं है। अधिकांश मुसलमानों के लिए खिलाफत मुस्लिम शक्ति का वो स्वर्णकाल है, जब खलीफा की तलवार के नीचे 'शुद्ध इस्लामी कानूनों' का शासन चलता था। परंतु इसी खिलाफत में मुस्लिम जगत के विभाजन के बीज छिपे हुए हैं। इस्लाम की सारी अंतरधाराओं के घर्षण, शिया सुन्नी विभाजन और भौगोलिक विशेषताओं का इतिहास इसी स्रोत से निकला है।
'खिलाफत' शब्द अरबी शब्द खिलाफा से बना है, जिसका अर्थ है 'उत्तराधिकार'। खिलाफत का आशय हुआ 'मोहम्मद के उत्तराधिकारी का शासन'। शासक खलीफा कहलाया, जो सैद्धांतिक रूप से संसार के सारे मुसलमानों का मजहबी नेता और नायक होता है। परंतु यह कहने में जितना सीधा-सरल लगता है, व्यवहार में उतना ही जटिल सिद्ध हुआ। खिलाफत का इतिहास संसार की जटिलतम पहेलियों और उलझनों की वो कहानी है, जिसकी विरासत शिया-सुन्नी खंडों और उनके दर्जनों उपखंडों और आधा सैकड़ा मुस्लिम देशों में बिखरी हुई है।
632 ईसवी में मोहम्मद की मृत्यु तक अरब में इस्लाम सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य और सैनिक शक्ति बन चुका था। मोहम्मद के बाद मोहम्मद के साथियों ने अबू बकर को प्रथम उत्तराधिकारी या प्रथम खलीफा के रूप में चुना। अबू बकर की मृत्यु के बाद उमर के हाथ सत्ता आई, जिसे संभवत: मोहम्मद के दामाद और चचेरे भाई अली ने पसंद नही किया। अली इस्लाम स्वीकार करने वाले प्रथम पुरुष भी थे।
उमर की मृत्यु के बाद जब मक्का के पुराने शासक वर्ग उमैय्या से उस्मान को तीसरा खलीफा चुना गया तो अली का विरोध खुलकर सामने आया। उस्मान ने अली को दरकिनार करते हुए नवविजित प्रांतों में अपने रिश्तेदारों और उमैय्या खानदान के लोगों को नियुक्त किया। अंतत: 656 ईसवी में उस्मान अली समर्थकों के हाथों मारा गया और अली को नया (चौथा) खलीफा बनाया गया।
इसके खिलाफ मोहम्मद के पुराने साथियों ने विद्रोह कर दिया। इन बागियों का साथ दिया स्वर्गीय मोहम्मद की दसवीं पत्नी आयशा ने। बसरा के निकट हुई इस लड़ाई में आयशा ने स्वयं ऊंट पर सवार होकर अली के विरुद्ध बागियों का नेतृत्व किया। बागी परास्त हुए और मारे गए। मोहम्मद की पत्नी होने के कारण आयशा को मुत्यदंड न देकर नजरबंद क र दिया गया। परंतु सत्ता के पांचवे साल में ही 660 ईसवी में अली विरोधियों द्वारा मार दिए गए और सत्ता में आ गए। अली के बेटों ने इसे स्वीकार नहीं किया और करबला की लड़ाई में पराजित होकर कत्ल कर दिए गए। (इन्हीं की याद में शिया मोहर्रम मनाते हैं।) यहीं से इस्लाम में पहली बार दरार पड़ी।
अली के समर्थक शिया अर्थात साथी (आशय-मोहम्मद के साथी) कहलाए। उनके विरोधी सुन्नी (उद्गम सुन्ना, मोहम्मद का अनुसरण करने वाले) कहलाए। शियाओं और सुन्नियों की अलग-अलग खिलाफतें कायम हुईं अरब में सुन्नी तो ईरान, जार्डन आदि में शिया शासन में आए। कालांतर में खिलाफतें वंशानुगत हो गईं। सुन्नियों में प्रथम चार खलीफाओं (अली सहित प्रथम तीन) के बाद उम्मेद वंश की खिलाफत आई, खिलाफतों का यह सिलसिला तुर्की की ओट्टोमान खिलाफत (1920 में समाप्त) और आज भी जारी अहमदिया खिलाफत (1908 से आज तक जिसका किसी भूभाग पर शासन नहीं है, पर संसार भर के अहमदी इसे मान्यता देते हैं) तक आता है। 14 सौ सालों में धरती के अलग-अलग भूभागों में दर्जनों खिलाफतें आईं और उनकी विरासतें आज मुस्लिम जगत में बिखरी हुई हैं। फिर और भी शासन परंपराएं अस्तित्व में आईं। मोरक्को के शासक स्वयं को अमीर कहते आए हैं, पर खिलाफत का दावा नहीं करते। वहीं सोमालिया, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देश कभी खिलाफत का हिस्सा नहीं रहे। इनके अपने सुल्तान व शासक रहे हैं।

इराक में खिलाफत की घोषणा के बाद उभरा परिदृश्य चिंताजनक है। ऑर्गनाइजर एवं पाञ्चजन्य द्वारा वैश्विक महत्व के इस विषय पर रणनीतिक समझ रखने वाले बुद्धिजीवियों की एक दिवसीय विमर्श कार्यशाला का आयोजन किया गया है। आगामी अंक में इराक की उथल-पुथल और इस घटनाक्रम के अंतरराष्ट्रीय प्रभावों पर केंद्रित विशेष सामग्री हमारे पाठकों को मिलेगी।

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