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दुनिया में जो भी मत-पंथ हैं, उनका मुख्य लक्ष्य मानवता की सेवा करना रहा है। इसके लिए बहुत आवश्यक है कि वे अपने सिद्धांतों के बलबूते विश्व में शांति स्थापित करें। लेकिन जब धर्म के साथ राजनीति जुड़ जाती है तो वह सत्ता में बदलने लगता है। मध्य पूर्व के तीनों बड़े पंथ यहूदियत, ईसाइयत और इस्लाम राजनीति के शिकार हो गए। यहूदी पंथ तो समय के साथ सिकुड़ गया लेकिन ईसाइयत और इस्लाम बहुत जल्द दो भागों में बंट गए। ईसाइयत रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट में तो इस्लाम शिया और सुन्नी में विभाजित हो गया।
मध्य पूर्व के इन दो बड़े पंथों ने बहुत शीघ्र राजनीतिक रूप ले लिया इसलिए उनमें संघर्ष प्रारंभ होना एक स्वाभाविक बात थी। इसे शोकांतिका ही कहना पड़ेगा कि सभी मत-पंथ एवं मजहब शांति स्थापित करने के लक्ष्य से दुनिया में महान पैगम्बरों के माध्यम से भेजे गए थे, उन्हीं में आपस में टकराव शुरु हो गया। इसलिए यूरोप और एशिया के बड़े भागों में रोमन कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेंट तथा इस्लाम में शिया और सुन्नी से पहचाने जाने लगे। दोनों के पंथों में जब आपसी टकराव बढ़ा तो हिंसा और खून खराबा बढ़ता चला गया। क्योंकि अब इन दोनों के अनुयायियों में विश्व शांति की स्थापना का लक्ष्य नहीं रहा बल्कि वे अपना साम्राज्य फैलाने के लिए एक दूसरे से कुश्ती पछाड़ करने लगे। समय के साथ ईसाई मत के इन दो पंथों में तो यह टकराव रूक गया लेकिन इस्लाम के दोनों पंथ शिया और सुन्नी में आज भी वही वैमनस्य है। अपनी संप्रभुता को स्थापित करना तो उनका लक्ष्य है ही, साथ में धरती के टुकड़े को अधिक से अधिक जीत कर अपना साम्राज्य भी कायम करना है। इन दिनों मध्य पूर्व में सीरिया से लगाकर ईरान तक ऐसी हवाएं बह रही हैं कि इन राष्ट्रों में यदि रक्तपात नहीं थमा तो यह संघर्ष तीसरे महायुद्ध का भी रूप धारण कर सकता है। इसलिए आज जानने और समझने का हमारा उद्देश्य यह है कि शिया और सुन्नी में क्या अंतर है? उनमें ऐसे राजनीतिक और धार्मिक मतभेद क्या हैं, जिनके कारण से पिछले 1400 सालों से यह लड़ाई जारी है।
विश्व में शियाओं की आबादी सुन्नियों से कम है, इसके बावजूद दोनों की शक्ति एक समान हैं। इसलिए देखना यह होगा कि इनमें कौन सा पंथ भारी पड़ेगा और भविष्य में इससे विश्व राजनीति किस प्रकार से प्रभावित होगी? यह खेाज करने से पूर्व हमें यह भी याद रखना चाहिए कि दुनिया में जहां तक जनसंख्या का सवाल है वहां सुन्नी अग्रणी है, लेकिन खनिज तेल जो इन दिनों दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है उसके मामले में शिया देश अग्रणी है। इन दिनों सीरिया को लेकर जो जंग जारी है उसमें खनिज तेल एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। प्रारंभ के दिनों में शिया-सुन्नी एक ही मस्जिद में साथ-साथ नमाज भी पढ़ते रहे, इतना ही नहीं उनके बीच विवाह भी होते रहे, लेकिन समय के साथ दोनों ही एक दूसरे से दूर होते चले गए, आज तो वे कट्टर दुश्मन होकर इस प्रकार से व्यवहार करते हैं मानों उनका आपस में कोई संबंध ही न हो।
यहां यह जान लेना आवश्यक है कि इन दोनों सम्प्रदायों में क्या अंतर है और उनके बीच यह फूट कब और कैसे पड़ी? दोनों ही पंथों के अपने-अपने इतिहास हैं। इतिहासकार कहते हैं कि अब्दुल इब्ने सबा यहूदी जो बाह्य रूप से तो मुस्लिम हो गया था, लेकिन भीतर से कट्टर यहूदी था, उसने ही शिया पंथ की शुरुआत की थी। उसने सबसे पहले इमामत (मजहबी सत्ता) और वसीयत (उत्तराधिकार) का मामला पेश किया। यद्यपि शिया इसे मनगढंत कहानी बताते हैं। शियाओं का कहना है कि पैगम्बर हजरत मोहम्मद की मृत्यु के पश्चात जब खिलाफत का मामला सामने आया, यानी हजरत मोहम्मद के पश्चात मुसलमानों का मजहबी नेता कौन? यहां यह स्पष्ट कर देना भी अनिवार्य है कि इस्लाम में मजहब और राजनीति में कोई अंतर नहीं है। मजहबी मामले हों तो वैश्विक खलीफा ही एकमात्र दोनों के मामले में अंतिम रूप से सर्वेसर्वा निर्णायक हो जाएंगे। इसलिए यदि मजहब के नाम पर किसी अन्य देश को जीतना हो अथवा समाज के लिए कानून कायदे बनाना हो तब दोनों के लिए एक सत्ताधारी व्यक्ति होगा जो खलीफा कहलाएगा। उसका साम्राज्य खिलाफत के नाम से पहचाना जाएगा। शियाओं का कहना है कि पैगम्बर के पश्चात उनके दामाद एवं चाचा के पुत्र हजरते अली को खलीफा बनाया जाना था। उनका यह भी मत है कि इस मामले में अपने जीवन में ही उन्होंने हजरते अली के नाम पर वसीयत कर दी थी, लेकिन कुछ लोगों ने हजरते अली को मान्यता न देकर हजरत अबूबकर को प्रथम खलीफा घोषित कर दिया। पैगम्बर साहब के निधन के 30 वर्षों के पश्चात तक खिलाफत का युग चलता रहा। इसके पश्चात खिलाफत समाप्त हो गई और उसके स्थान पर राजनीतिक युग का श्रीगणेश हो गया। जो साम्राज्य स्थापित हुए उनमें प्रथम बने उमय्या और फिर अब्बासिया ने शासन किया। किन्तु इस युग में भी एक समूह ऐसा था जो हजरत अली के अनुयायी के रूप में जाना जाता था। वे यह भी मानते थे कि इस्लामी खिलाफत हजरत अली की संतानों में ही चलती रहनी चाहिए। इसमें अनेक लोगों ने समय-समय पर उमय्या और अब्बासियों की खिलाफत का विरोध करते रहे, जो विरोध करते रहे वे ही आगे चलकर शिया कहलाए। उनमें भी कई समूह अलग होते चले और जहां उन्हें अवसर मिला वहां अपनी हुकूमत भी कायम करते रहे। इस श्रृंखला में सन 1501 में ईरान में शियाओं की सफवी नामक हुकूमत स्थापित हो गई। ईरान के सफवी सम्राट अत्यंत कट्टर थे इसलिए अनेक सुन्नियों को ईरान छोड़ देना पड़ा। सफवियों ने असफहान नामक नगर को अपनी राजधानी बनाया। उसके पश्चात मोरक्को में शियाओं ने इदरीसिया नामक शिया हुकूमत स्थापित की, क्योंकि उसके संस्थापक का नाम इदरीस बिन अब्दुल्ला था। उसने यूरोप तक अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। सन 788 तक उसका साम्राज्य कायम रहा। उसके वंशजों ने 200 साल तक हुकूमत की। इराक के अब्बासी राजाओं से उनके संबंध अच्छे नहीं थे। मक्का के निकटवर्ती क्षेत्रों में उनके साथ झड़पें भी हुई थीं। इदरीस स्वयं को हजरत अली का वंशज बतलाता था। कुछ ही सदियों के बाद इदरीस के वंशजों ने फिर से मोरक्को पर कब्जा जमा लिया। इतना ही नहीं वह लीबिया तक पहुंच गया। यहां प्रथम शिया सरकार जैदी लीबिया में स्थापित हुई थी। दूसरा साम्राज्य शियाओं ने ईरान के तिबरिस्तान में स्थापित कर लिया था। लेकिन इदरीसिया हुकूमत की तरह यह भी इसी युग में समाप्त हो गई। शियाओं की सबसे बड़ी शक्तिशाली सरकार मिस्र में स्थापित हुई थी जिसे फातिमी सल्तनत के नाम से इतिहास में जाना जाता है। यहां के शासक इस्माइली शिया थे। यह सल्तनत 909 में स्थापित हुई और 1171 तक चलती रही। इसका साम्राज्य सूडान और ट्यूनिश तक फैला हुआ था। 867 में यमामा में जैदी शियाओं की सरकार स्थापित हुई। इसे बनूवाला खैजर की हुकूमत कहा जाता है। यह लोग अपने को अलवी बतलाते थे। वे कहते थे हम बनू हनीफा की संतानें हैं जो कभी मक्का और मदीना में पैगम्बर साहब के समय में रहते थे। इनका पतन 1088 में हो गया। 934 में अली बिन बोया ने ईरान के जीलान नामक नगर में अपनी सत्ता कायम की जो 1055 तक चलती रही। 948 में सिसली में कलबी अथवा अगलमी शियाओं की सरकार कायम हुई। 867 में यमन में एक शिया सरकार स्थापित हुई जो 1962 में समाप्त हुई।
भारत में शियाओं की पहली सरकार बीजापुर में कायम हुई। इसे इतिहास में बहमनी सल्तनत कहा जाता है। इसे 1347 में अलाउद्दीन हसन गंागू बहमनी ने स्थापित किया था, जो प्रसिद्ध संत सूफी हजरत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे। उनकी संतानों ने 1527 तक हुकूमत की। वर्तमान आंध्र प्रदेश के गोलकुंडा में स्थापित हुई जिनमें जौनपुर की शिया हुकूमत (1394 से 1459) प्रसिद्ध है। इसी प्रकार बरार,बीदर और अहमद नगर की आदिल शाही हुकूमत प्रसिद्ध है। रामपुर, अवध, बंगाल के अतिरिक्त आज के पाकिस्तान में तालपूर हुकूमत प्रसिद्ध है। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि शियाओं ने जहां भी हुकूमत में सुन्नियों पर किसी तरह का अत्याचार नहीं हुआ। शिया शासकों ने उनके साथ बराबरी का व्यवहार किया। इसके लिए शियाओं की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। विश्व में शिया जनसंख्या के कुछ आंकड़े इस प्रकार उपलब्ध हैं। ईरान 70 मिलियन (95 प्रतिशत) पाकिस्तान 26 मिलियन 16 प्रतिशत, भारत 16 से 24 मिलियन (10 से 15 प्रतिशत) इराक 22 मिलियन (65 प्रतिशत) तुर्की 10 मिलियन (70 प्रतिशत) सऊदी अरब तीन मिलियन (13 प्रतिशत) नाइजिरिया 4 मिलियन (5 प्रतिशत) लेबनान 2 मिलियन (55 प्रतिशत) तंजानिया ृ मिलियन (10 प्रतिशत)
विश्व में कुल 56 मुस्लिम राष्ट्र हैं वहां सभी स्थान पर शिया बसे हुए हैं। इतना ही नहीं दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जहां शिया नहीं बसते हों। ऐसा माना जाता है कि मुस्लिम आबादी में कुल 35 से 40 प्रतिशत शिया हैं। वे सुन्नियों की तुलना में अधिक पढ़े लिखे हैं इसलिए प्रशासन में उनकी बड़ी तादाद देखने को मिलती है। सुन्नी मुस्लिम अपनी कला में इतने माहिर हैं कि दुनिया में उनका कोई हाथ नहीं पकड़ सकता है।
पिछले दिनों जब मुस्लिम देशों में अरब स्प्रिंग युद्ध की हवाएं चलीं तो उसकी शुरुआत ट्यूनेशिया, मोरक्को और अल्जीरिया से हुई। मिस्र में य६ आंधी तेज हो गई जिसने होसनी मुबारक की सरकार को उखाड़ फेंका। लीबिया में भी कर्नल गद्दाफी की सरकार चली गई। लेकिन जब यह आंधी सीरिया में पहुंची तो बशरूल असद ने उसका सामना किया जो आज तक जारी है। बशरूल असद को ऐसा लगा कि उक्त संघर्ष शिया सुन्नी का रूप लेता जा रहा है, इसलिए लेबनान और ईरान उसके समर्थन में आ गए।
इस प्रकार इस क्रांति ने शिया सुन्नी रूप ले लिया है। जब ईरान उसके पीछे खड़ा कर दिया। इन दिनों सारे मुस्लिम राष्ट्र इस समीकरण में उलझकर रह गए हैं। ईरान को इजराइल और अमरीका हर क्षण धमकी दे रहे हैं लेकिन जिहादी अड़े हुए हैं। मध्य पूर्व का यह भाग अब शिया सुन्नी संघर्ष के रूप में बदलता जा रहा है। लेकिन यदि ईरान इजराइल को चुनौती देता है तो जोर्डन भी उनके साथ जा सकता है। सुन्नी शिया संघर्ष यदि मुस्लिम-यहूदी संघर्ष में बदलता है तो फिर तीसरे महायुद्ध की संभावनाओं को कोई नकार नहीं सकता है। इजराइल को लेकर तीसरे महायुद्ध के समय जब तेल के कुओं में आग लगेगी तब दुनिया को महसूस होगा कि शिया सुन्नी विवाद दुनिया की शांति के लिए कितना खतरनाक साबित हुआ है। विश्व में सुन्नी शिया जनसंख्या का प्रतिशत भिन्न-भिन्न रूप में दर्शाया जाता है। कहीं उसे 60 और 40 तो कहीं 70 और 30 तो भारत में 65 और 35 माना जाता है। जनसंख्या विभाग के अनुसार भारत में कुल मुस्लिम जनसंख्या 14 प्रतिशत है। इसमें नौ प्रतिशत सुन्नी और पांच प्रतिशत शिया हैं। अहमदियों का प्रतिशत इसमें अलग नहीं दिया गया है। अहमदिया मुसलमानों के केन्द्र कादियान से मिली जानकारी के अनुसार उनका प्रतिशत एक से डेढ़ के आसपास है।
आज भी यह संघर्ष मजहब आधारित तो है ही लेकिन उसका सबसे भयानक रूप पेट्रोल वार के रूप में उभरकर आया है। इराक इसका मुख्य केन्द्र है। दुनिया में 90 प्रतिशत कच्चा तेल इराक में उपलब्ध है। इराक में नूरूल मालिकी की शिया सरकार है जो सुन्नी देशों को तनिक भी पसंद नहीं है। यहां उनका साथ अमरीका और इजराइल दे रहा है। दोनों का ही यहां उद्देश्य है कि इराक किसी भी प्रकार विभाजित हो जाए, ताकि उसकी शक्ति टूट जाए।
आबादी की दृष्टि से यहां शिया और सुन्नी के बीच तो बंटवारा होगा ही लेकिन यहां एक तीसरी ताकत कुर्द हैं। इसलिए यदि बंटवारा होता है तो इराक सुन्नी और शिया में ही केवल इराक नहीं बंटेगा बल्कि कुर्द भी एक अलग भाग के सत्ताधारी होंगे। इराक बंट जाने के बाद कुछ दिन भले ही यह मामला शांत हो जाए लेकिन यहां के लोगों की फितरत को देखते हुए नहीं कहा जा सकता है कि शिया सुन्नी लड़ाई समाप्त हो जाएगी। -मुजफ्फर हुसैन
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