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श्री रामस्वरूप व श्री सीताराम गोयल
16 मई की रात्रि तक 2014 को लोकसभा चुनाव परिणाम स्पष्ट हो गये थे। लम्बे अंतराल के बाद किसी एक राष्ट्रीय दल को पूर्ण बहुमत मिलने का चमत्कार घटित हुआ। लद्दाख से कन्याकुमारी तक, कच्छ से अरुणाचल तक केसरिया रंग की विजय पताका फहरायी। पर इस चमत्कार के आगे क्या है, इस पर प्रकाश डाला ब्रिटेन के प्राचीन और प्रतिष्ठित दैनिक 'गार्जियन' ने अपने 18 मई के सम्पादकीय अग्रलेख में। कभी 'मानचेस्टर गार्जियन' के नाम से परिचित यह दैनिक ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सजग प्रहरी और प्रवक्ता माना जाता रहा है। 18 मई के अग्रलेख में 'गार्जियन' ने लिखा कि आज भारत से ब्रिटेन की अंतिम विदाई हुई है।14 अगस्त 1947 की अर्धरात्रि में भारत की नियति ने जो यात्रा आरंभ की थी आज उसका दूसरा चरण शुरू हुआ है। यह परिवर्तन अकेले मोदी ने नहीं किया बल्कि भारतीय समाज के भीतर परिवर्तन की जो प्रक्रिया चल रही थी उसने मोदी को ऊपर फेंका है। स्वाधीन भारत के इन 67 वर्षों में ब्रिटेन ने जिस संस्थात्मक ढांचे के माध्यम से भारत पर शासन किया उसके अंत की प्रक्रिया अब शुरू हुई है। अभी तक भारत पर मुट्ठीभर अंग्रेजी बोलने वाले अभिजात्य वर्ग के हाथों में सत्ता केन्द्रित थी। वयस्क मताधिकार ने भारतीयों को वोट की शक्ति तो दी पर आवाज नहीं दी। पर इन चुनाव परिणामों में वह आवाज सुनायी दे रही है। राष्ट्रीय आकांक्षाएं मुखर हुई हैं, वंशवाद का सम्मोहन टूटा है, अंग्रेजीदां वर्ग और अमरीकीकृत शिखर का वर्चस्व समाप्त हुआ है। आदि-आदि।
पीड़ा मुक्त हुई भारतीयता
'गार्जियन' के सम्पादकीय अग्रलेख में विद्यमान इन संकेत सूत्रों का भाष्य मुझे देखने को मिला हैदराबाद से प्रकाशित हिन्दी मासिक भास्वर भारत के जून अंक में। इस अंक का मुखपृष्ठ घोषित करता है- 'नेहरूवादी राजनीति का अंत, भारत एवं भारतीयता की निर्णायक विजय।' इन शीर्षकों की व्याख्या करते हुए मुखपृष्ठ कहता है, '1947 में भारत अवश्य मुक्त हुआ किंतु भारतीयता मुक्ति का सपना ही देखती रह गई। अंग्रेजों के देशी उत्तराधिकारियों- नेहरूवादियों ने उसे दबाए रखने में ही अपना हित समझा। इतना ही नहीं, सेकुलरिज्म के नाम पर स्वयं भारतीयों को ही उसके खिलाफ खड़ा करने की साजिश रची। वामपंथी बुद्धिजीवी तो उसे मार डालने की ही कोशिश करते रहे। लेकिन करीब 67 वर्षों बाद 'नमो' के नाम से एक चमत्कार हुआ। उसके नेतृत्व में उठी आंधी ने नेहरू युग के अवशिष्ट सेकुलरिस्टों के सारे गढ़ ढहा दिये। भारतीयता भी लगातार यातना की पीड़ा से मुक्त हुई और उसकी गौरव गरिमा को खुले आकाश में विचरने का अवसर मिला।'
भास्वर भारत के अंदर के पृष्ठों पर संपादक डा.राधेश्याम शुक्ल की लेखनी से 'आम चुनावों में भारत और भारतीयता की पहली विजय', 'आज दुनिया को हिंदू लोकतंत्र की जरूरत' (पृष्ठ14-16),'भारत में सेकुलरिज्म की राजनीति'(पृष्ठ 18-19,26) तथा वरिष्ठ पत्रकार के.विक्रमराव की कलम से 'मुसलमानों के बिना भी चुनाव जीता जा सकता है'(पृष्ठ 17) जैसे लेख इस विजय के निहितार्थों को स्पष्ट करते हैं। पता नहीं कि डा. शुक्ल ने 'गार्जियन' का अग्रलेख पढ़कर यह सामग्री संजोयी या यह उनकी सहज स्वयंस्फूर्त्त अभिव्यक्ति है। पर उनके संपादकीय अग्रलेख का शीर्षक 'यह जीत विश्राम के लिए नहीं है।' बहुत सटीक लगा। वे चेतावनी देते हैं, 'हम भारतीयों के स्वभाव की एक बड़ी कमजोरी है, और वह यह कि हम अत्यधिक उत्सवधर्मी हैं। हम बड़ी मजबूरी में संघर्ष का निर्णय लेते हैं और संघर्ष का पहला मोर्चा फतह होते ही उसका जश्न मनाने में लग जाते हैं।
'…बार-बार दोहराये गये इतिहास को यहां फिर दोहराने की जरूरत नहीं है, फिर भी इतना स्मरण तो किया ही जाना चाहिए कि सांस्कृतिक और राजनीतिक गुलामी के अंधकार युग में भी भारतीयता के जयघोष के अनेक अवसर आये किंतु वे न तो दीर्घजीवी रह सके और न देशव्यापी बन सके। तथाकथित स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के जो प्रतिनिधि सत्ता में आए उन्होंने भी दिलोदिमाग की इस गुलामी को तोड़ने की कोशिश नहीं की, क्योंकि वह उनकी सत्ता को बनाए रखने में उनके लिए भी उतनी ही सहायक थी जितनी अंग्रेजों के लिए। नेहरू परिवार उनका मुखिया था। इसलिए देश स्वतंत्र होकर भी स्वतंत्र नहीं हो सका और भारतीयता गुलाम की गुलाम बनी रही।…'
चेतावनी ध्यान रहे
भास्वर भारत की इस चेतावनी के कुछ लक्षण अभी से प्रगट होने लगे हैं। 'अच्छे दिन आने वाले हैं' की एकमात्र कसौटी महंगायी और भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों को मान लिया गया है। ऐसा नहीं कि 67 वर्ष लम्बी कुनीतियों के फलस्वरूप गरीबी में डूबी जनता के सामने महंगायी और भ्रष्टाचार उपेक्षणीय मुद्दे हों पर सड़कों पर नाटकीय विरोध प्रदर्शनों की पुरानी राजनैतिक शैली गरीबों की वेदना पर मरहम लगाने से अधिक उनके घावों को गहरा करने में जुटी हैं। इसी के साथ कांग्रेसी शंकराचार्य स्वरूपानंद साईं पूजा के विवाद को उठाकर हिन्दू समाज को विभाजित करने एवं हिन्दू-मुस्लिम खाई को चौड़ा करने में जुट गये हैं। नेहरू के वंशवाद को समाप्त करने का कोई प्रभावी प्रयास नहीं दिखायी दे रहा। टेलीविजन चैनलों की बहसें अभी भी पुराने ढर्रे पर ही चल रही हैं। वही इने-गिने चेहरे, वही युद्ध मुद्रा में एंकर, वही घिसे-पिटे मुद्दे…जनता को भविष्य दर्शन कराये तो कौन?
अवश्य प्रिंट मीडिया में सेकुलरिज्म पर बहस शुरू हुई लगती है। सोनिया के विश्वस्त सिपहसालार ए. के. एंटोनी ने केरल में मुस्लिम पृथकतावाद की प्रतिनिधि मुस्लिम लीग के गठबंधन का सवाल उठाया है, किंतु यह बहस इस नकली सेकुलरिज्म और अल्पसंख्यकवाद के मूल स्रोत यानी जवाहरलाल नेहरू तथा उन्हें वैचारिक आधार देने वाले मार्क्सवाद तक नहीं पहुंच रही।
ऐसे वातावरण में मुझे स्मरण आता है उन दो मनीषियों का जिन्होंने स्वाधीनता के आगमन के क्षणों में ही मार्क्सवादी विचारधारा की अपूर्णता, सोवियत रूस और माओवादी चीन की प्रगति के झूठे आंकड़ों के पीछे छिपी अधिनायकवादी नृशंसता को भांप लिया था, मार्क्सवाद के आवरण में स्वयं को प्रगतिवादी, समाजवादी और सेकुलर घोषित करने वाले जवाहरलाल नेहरू के हिन्दू विरोधी मुस्लिम पोषक व कम्युनिस्ट पार्टी संरक्षक चेहरे को पहचानकर देशवासियों को सचेत क बौद्धिक-पथ के दो राही
उन मनीषियों के नाम हैं 12 अक्तूबर, 1920 को सोनीपत के एक वैश्य परिवार में जन्मे श्री रामस्वरूप और 16 अक्तूबर, 1921 को हरियाणा के ही एक अन्य वैश्य परिवार में जन्मे श्री सीताराम गोयल। इन दोनों मनीषियों की प्रारंभिक बौद्धिक यात्रा का दर्शन होता है सीताराम जी की एक छोटी सी अंग्रेजी पुस्तक 'मैं हिन्दू कैसे बना?' में। पुस्तक का श्ीार्षक ही भ्रामक लगता है। हिन्दू कुल में जन्मा व्यक्ति पुन: हिन्दू कैसे बन सकता है? सीताराम जी आर्य समाज के संस्कारों में पले, संत गरीबदास की भक्तिधारा में अवगाहन करते गांधी और उनके हरिजनोद्धार कार्यक्रम में लगे, पर 1944 में दिल्ली के हिन्दू कालेज से इतिहास में एम.ए. करते करते उन दिनों के फैशन अर्थात मार्क्सवादी विचारधारा में बह गये। नौकरी की खोज में कलकत्ता पहुंच गये। 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग के आह्वान पर 'सीधी कार्रवाई' के नाम पर हिन्दुओं के बड़े नरमेध के साक्षी बने, कम्युनिस्ट के नाते हिन्दुओं को ही वह नरमेध आमंत्रित करने के लिए दोषी ठहराते रहे। फरवरी 1948 से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन में सम्मिलित हुए। बी.टी. रणदिवे को अपना नेता मानने लगे। पर, नियति का खेल देखिये कि जिस दिन सीताराम जी सक्रिय सदस्यता लेने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय जाने वाले थे उसी दिन राष्ट्रविरोधी हिंसक कार्यों के आरोप में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी प्रतिबंधित कर दी गयी और उन्हीं दिनों रामस्वरूप जी ने दिल्ली से अनायास कलकत्ता पहुंच कर सीताराम जी के घर में डेरा डाल दिया। सीताराम जी कम्युनिज्म के जबड़ों से बाहर निकालने का पूरा श्रेय रामस्वरूप जी को देते हैं।
रामस्वरूप जी मूल प्रकृति से आध्यात्मिक, नि:स्पृह, निस्संग व अन्तर्मुखी थे। वे भविष्य दृष्टि से सम्पन्न थे। वे गांधीवादी प्रवाह में गये, गांधी जी की अंग्रेज शिष्या मीरा बहन के सहकर्मी बने और उन्होंने सोवियत रूस की वास्तविकता में झांककर 1948 में ही 'कम्युनिस्ट खतरे के विरुद्ध बिगुल बजाने' का उदघोष प्रकाशित कर दिया। 'गांधीवाद बनाम साम्यवाद' जैसी पुस्तक लिखी। 1952 में ही कलकत्ता में प्राची प्रकाशन की दोनों मित्रों ने स्थापना की। कलकत्ता के पुस्तक मेला में प्राची प्रकाशन के नाम से कम्युनिस्ट विरोधी साहित्य की ब्रिकी का स्टाल लगाया। उस स्टाल का नारा था-'लाल खटमल को मारने की दवा यहां से लो।'बौखलाये कम्युनिस्टों ने उस स्टाल पर हमला करने की योजना बनायी। तब संघ के पूर्वी क्षेत्र प्रचारक व आगे चलकर कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला स्मारक के यशस्वी रचनाकार स्व. एकनाथ रानडे ने प्राची प्रकाशन के स्टाल को संघ शक्ति का रक्षा कवच प्रदान किया। दोनों मित्र कम्युनिस्ट खतरे के असली रूप को उजागर करने में जुट गये। उस समय रचे गये उनके लेखन को पढ़कर आश्चर्य होता है उनकी शोध-क्षमता एवं प्रतिकूल प्रवाह के सामने डटने की निर्भीक संकल्प वृत्ति पर। सीताराम जी ने 1963 में 'इन डिफेंस ऑफ कामरेड कृष्णामेनन' और 1993 में 'दि जेनेसिस एंड ग्रोथ ऑफ नेहरूइज्म' पुस्तक में नेहरू की हिन्दू विरोधी और कम्युनिस्ट पोषक मनोवृत्ति का सप्रमाण वर्णन किया है।
आत्म साक्षात्कार का समय
इन दोनों मनीषियों ने जिस विशाल साहित्य का सृजन किया है उसने भारत में और विदेशों में सैकड़ों राष्ट्रवादियों को अनुप्राणित किया है, किंतु भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा अभी भी उस साहित्य से परिचित नहीं है। मीडिया की मुख्यधारा ने उनकी पूरी तरह उपेक्षा की। रामस्वरूप जी ने 1941 में हिन्दू कालेज से अर्थशास्त्र में बी.ए. आनर्स (अर्थशास्त्र) किया और वे क्षमतावान बौद्धिकों के बौद्धिक केन्द्र बन गये। उनके 'चेंजर्स क्लब' के सदस्यों में टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रख्यात संपादक गिरीलाल जैन, प्रसिद्ध गांधीवादी लक्ष्मी चन्द्र जैन, दर्शन के विद्वान डा.दयाकृष्ण, राष्ट्रवादी धर्मपाल जैसे बड़े-बड़े नाम सम्मिलित थे। सीताराम जी का रामस्वरूप से परिचय 1944 के बाद आया पर शीघ्र ही उन्होंने रामस्वरूप को अपना बौद्धिक गुरु मान लिया। 1957 में दिल्ली वापस आने के बाद वे रामस्वरूप से प्रतिदिन भेंट और संलाप करते थे। अरुण शौरी, डा.लोकेश चन्द्र, डा.शंकर शरण, आर्गेनाइजर के संपादक के.आर.मल्कानी जैसे श्रेष्ठ बुद्धिजीवी उनसे बौद्धिक मार्गदर्शन व प्रेरणा पाने लगे।
रामस्वरूप जी और सीताराम जी जैसे उच्च स्तर के बुद्धिजीवियों की जीवन के अंत तक बनी रही मित्रता स्वयं में एक उदाहरण है। इन दोनों मित्रों ने नेहरूवाद के मरुस्थल में भारतीय राष्ट्रवाद की जो बौद्धिक फसल बोयी है, उसे जन-जन तक पहुंचाने का समय अब आ गया है। इन 67 वर्षों में भारत का सार्वजनिक जीवन नेहरूवादी सेकुलरिज्म और अल्पसंख्यकवाद की धुरी पर घूमता रहा है, 'प्रगतिशील', 'प्रतिक्रियावादी', 'फासिस्ट', 'वाम दक्षिण' जैसी मार्क्सवादी शब्दावली का बंदी बना रहा है।
16 मई के परिवर्तन का उद्घोष है कि इन आयातित नारों और मार्क्सवाद जैसी मुर्दा विचारधारा को कूड़ेदान में फेंककर भारतीय राष्ट्रवाद आत्म साक्षात्कार करें। किंतु इस आत्म साक्षात्कार के लिए इन दो मनीषियों के वाड्.मय का व्यापक अध्ययन व प्रसारण बहुत आवश्यक है। इस छोटे से लेख में उस विशाल वाड्.मय का परिचय कराना तो दूर, नामोल्लेख करना भी संभव नहीं है।
-देवेन्द्र स्वरूप
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