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पाकिस्तान में अल्पसंख्यक- पाकिस्तान के हिन्दू आखिर कहां जाएं

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Jul 5, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 05 Jul 2014 16:33:21

पाकिस्तान का निर्माण हुए लम्बा समय व्यतीत हो गया, लेकिन उसका दंश आज भी वहां रहने वाले बचे खुचे अल्पसंख्यक और विशेषकर हिन्दू भोग रहे हैं। यथार्थ से मुंह मोड़कर हम कितनी ही आदर्श की बातें बताएं, लेकिन वास्तविकता यही है कि पाकिस्तान का निर्माण, उसके संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की दो राष्ट्र-राज्य की विचारधारा के आधार पर ही हुआ था, जिसका अर्थ था कि भारत में दो राष्ट्र निवास करते हैं- हिन्दू और मुसलमान। इसलिए जिन्ना के विचारों के अनुसार इन दोनों राष्ट्रों के राज्य भी अलग-अलग होने चाहिए। कांग्रेस ने इस विचारधारा को स्वीकार नहीं किया, यह अलग बात है। देश के विभाजन के साथ ही जिन्ना ने पाकिस्तान को मुस्लिम-राज्य घोषित कर दिया और आदर्श की डोर में बंधे भारत के तत्कालीन नेताओं ने अपने को हिन्दू-राज्य घोषित करने के स्थान पर धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया। विश्व की सहानुभूति और समर्थन बटोरने की दृष्टि से जिन्ना ने भी प्रारंभ में इसी प्रकार की घोषणा की थी कि मुस्लिम राज्य घोषित किये जाने के बावजूद पाकिस्तान में सभी धर्मावलम्बी पूर्ण विश्वास और स्वतंत्रता के साथ रह सकते हैं। उन्हें पूरी धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की जायेगी। मगर व्यवहार में पाकिस्तान में वहां के अल्पसंख्यक नागरिकों को ऐसी स्वतंत्रता कभी भी प्राप्त नहीं हुई। वहां अनेक प्राचीन मंदिरों को तहस नहस कर दिया गया। अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता पर समय-समय पर अनेक प्रतिबंध लगाये गये। अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, वहां की सरकार ने और सरकार से भी अधिक, सरकार की शह पर वहां के कट्टपंथियों ने किया। उन्हें शवदाह तक की भी स्वीकृति आसानी से नहीं दी जाती। लड़कियों के अपहरण और बाद में उनका धर्म परिवर्तन करके उनसे जबर्दस्ती विवाह करने की घटनाएं आम बात हैं। एक सर्वे के मुताबिक प्रतिमाह 25 से 30 अल्पसंख्यक बालिकाओं के साथ इसी प्रकार का व्यवहार होता है। पुरुषों के साथ भी जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन की घटनाएं आम बात है। कुछ समय पूर्व एक युवक द्वारा धर्मांतरण की घटना को पाकिस्तान में गर्व के साथ टीवी पर दिखलाया भी गया था। वहां पर ईश-निन्दा का ऐसा कानून है, जिसके अन्तर्गत ईश-निन्दा के झूठे या सच्चे आरोपों के आधार पर किसी को भी जेल में डालकर प्रताडि़त किया जा सकता है। प्रतिवर्ष इस प्रकार की 30-40 घटनाएं तो घटित हो ही जाती हैं। एक ईसाई बालिका को भी इसी प्रकार के झूठे आरोप पर जेल में डालकर प्रताडि़त किया गया था। बाद में पता चला कि एक मौलवी द्वारा उसके साथ यह षड्यंत्र किया गया था, लेकिन उस मौलवी के विरुद्ध किसी प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं की गई। अमरीका के दबाव में उस बालिका को अवश्य रिहा कर दिया गया। पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं को सीधे और स्पष्ट रूप में यह कहा जाता है कि वे या तो अपना धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बन जाएं, या पाकिस्तान को छोड़कर कहीं अन्यंत्र चले जाएं। इसी का यह परिणाम है कि 1947 में विभाजन के समय पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं का जो प्रतिशत लगभग 16 से 20 के आसपास था, अब यह घटकर 1.5 प्रतिशत से भी कम पर सिकुड़कर रह गया है। वहां के अल्पसंख्यक धार्मिक और पूजा-स्थलों की भी लगभग यही स्थिति है।
पाकिस्तान में हिन्दू सार्वजनिक रूप में अपने कोई त्योहार या धार्मिक कार्य नहीं कर सकते। ये कार्य उन्हें घर की चारदीवारी के अन्दर करने होते हैं। हिन्दू महिलाएं बाजार में सिन्दूर लगाकर नहीं जा सकतीं। पुरुषों को तिलक लगाने से भी परहेज करना पड़ता है। साड़ी पहनने वाली हिन्दू महिलाओं को वहां पर अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता। हिन्दुओं के बच्चों को वहां अव्वल तो किसी शिक्षण संस्था में प्रवेश ही नहीं मिलता और अगर प्रवेश मिल भी जाता है तो उन्हें अन्य छात्रों के तानों का, आलोचनाओं का और अक्सर मारपीट का भी शिकार होना पड़ता है। अमरीकी विदेश विभाग द्वारा जारी अन्तरराष्ट्रीय धार्मिक आजादी रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान में हिन्दुओं को अपहरण और जबरन धर्म परिवर्तन का डर लगा रहता है। जबरन धर्म परिवर्तन रोकने के लिए सरकारी कार्यवाही नाकाफी है। इन बातों की शिकायत यदि पुलिस में की जाती है तो वहां अव्वल तो कोई एफआईआर दर्ज ही नहीं होती, यदि दर्ज हो भी जाये तो उस पर कार्यवाही नहीं होती। पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग के अनुसार तो पाकिस्तान की अदालतें भी इस प्रकार के मामलों में इंसाफ नहीं कर पातीं। अधिकांशत: वे कट्टरपंथियों के सामने झुकतीं नजर आती हैं।
ऐसी स्थिति में जब भी मौका मिलता है हिन्दू यह समझकर भारत की तरफ आ जाते हैं कि यह हमारे बजुर्गों का देश है, यहीं पर राम और कृष्ण की जन्मस्थली हैं तथा अन्य अनेक धार्मिक स्थान भी यहां सुरक्षित हैं। मगर यहां भी उन्हें सरकार की तरफ से वांछित मात्रा में अपनापन नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में नवनिर्मित पाकिस्तान से आये ये व्यक्ति अपनी ही भूमि पर शरणार्थी बने हुए हैं और अब उनकी चौथी पीढ़ी भी वहां मामूली मजदूरी करके खुले आसमान के नीचे अपनी गुजर बसर कर रही है। बात केवल इन लोगों की ही नहीं, अन्य उन लोगों की भी है जो हजारों की संख्या में यहां आते रहे हैं और आ रहे हैं। 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद पाकिस्तान के अत्याचारों से त्रस्त होकर 10 हजार और 1971 के युद्ध के बाद लगभग 90 हजार हिन्दू अपने प्राणों की रक्षा के लिए भारत आ गये थे। इन युद्धों के बाद भी न तो पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार थमे और न वहां से पीडि़त हिन्दुओं का आगमन रुका। ये लोग देश के विभिन्न स्थानों पर शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। आम जनता की तथा कुछ हिन्दूवादी संस्थाओं की सहानुभूति और यत्किंचित सहायता भले ही उन्हें प्राप्त हो रही हो, मगर सरकार की तरफ से उन्हें न कोई सहायता प्राप्त हो रही है और न कोई आश्वासन। इसी प्रकार की अनेक प्रकार की बाधाओं को पार करते हुए जब ये लोग अपने धर्म पर अटल रहने की इच्छा लिए हुए यहां आते हैं और यहां की सरकार का इस प्रकार की उपेक्षा का व्यवहार देखते हैं तो इनका ह्रदय तार-तार होकर बिखर जाता है। इनके मन में सहज प्रश्न उठता है कि आखिर वे जायें कहां? पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों को स्वयं पाकिस्तान के ही अखबार डॉन ने इन शब्दों में स्वीकारा है- हिन्दू व्यापारियों के बढ़ रहे अपहरण, उनकी दुकानों में लूटपाट, उनकी सम्पत्ति पर जबरन कब्जा और धार्मिक कट्टरता के माहौल ने अल्पसंख्यक समुदाय को मुख्यधारा से अलग कर दिया है। जो पाकिस्तान, भारत में होने वाली किसी भी हल्की सी साम्प्रदायिक घटना पर होहल्ला मचा देता है, वह स्वयं अपने यहां की इन घटनाओं पर पूरी तरह खामोश रहता है। यह आश्चर्य तो नहीं खेदजनक अवश्य है। इससे भी अधिक खेदजनक यह है कि भारत सरकार भी अपनी धर्मनिरपेक्षता की आड में पाकिस्तान के इन कुकृत्यों पर चर्चा नहीं करती। -प्रो. योगेश चन्द्र शर्मा

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