गुरु पूर्णिमा : गुरु पूर्णिमा—भक्तों का दिन - श्री श्री रवि शंकर
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गुरु पूर्णिमा : गुरु पूर्णिमा—भक्तों का दिन – श्री श्री रवि शंकर

by
Jul 5, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Jul 2014 14:12:45

 
गुरुपूर्णिमा को गुरु का दिन कहते हैं लेकिन वास्तव मे यह है भक्त का दिन। यह कृतज्ञता महसूस करने का दिन है, इस सुंदर ज्ञान के लिए जो कि तुम्हारे सद्गुरु से तुम्हें मिला है। कृतज्ञता महसूस करो कि कैसे इस ज्ञान ने तुम्हें परिवर्तित कर दिया है। कृतज्ञता व विनम्रता से भीतर सच्ची प्रार्थना का उदय (आविर्भाव) होता है।
तीन प्रकार के लोग गुरु के पास आते हैं— विद्यार्थी, शिष्य व भक्त (श्रद्धालु)। एक विद्यार्थी गुरु के पास आता है, कुछ सीखता है, कुछ जानकारी प्राप्त करता है और स्कूल छोड़ देता है। यह ऐसे ही है जैसे गाइड के पास जाना हो। तुम पर्यटन-गाइड के साथ कोई पर्यटन-स्थल देखने जाते हो और वह तुम्हें सारे स्थल दिखा देता है और उनके बारे मे थोड़ी बहुत जानकारी भी दे देता है और फिर तुम उसे धन्यवाद कह देते हो और बात खत्म हो जाती है। विद्यार्थी वह होता है जो केवल जानकारी एकत्रित करता है, लेकिन जानकारी ज्ञान नहीं होती और ना ही विवेक होती है।
इसके बाद होता है शिष्य। शिष्य-गुरु के पद-चिन्हों पर चलता है लेकिन उसका उद्देश्य होता है ज्ञान हासिल करना और अपने जीवन का सुधार करना। अत: वह केवल जानकारी एकत्रित नहीं करता बल्कि थोड़ा और भीतर तक जाता है। वह अपने जीवन में परिवर्तन लाना चाहता है और अपने जीवन का कुछ मतलब बनाना चाहता है। वह अपना समय निकालता है, अपनी क्षमता के अनुसार उन्नति करता है और हो सकता है उसे एक न एक दिन प्रबोध हो भी जाए।
तब बारी आती है भक्त की। उसका उद्देश्य बोध प्राप्त करना भी नहीं होता। वह तो केवल प्रेम में डूबा रहता है। उसे तो केवल सद्गुरु से, प्रभु से, अनन्यता से प्रेम हो जाता है। वह यह चिंता नहीं करता कि उसे बोध प्राप्त हुआ या नहीं। उसे यह भी चिंता नहीं होती कि उसे काफी बुद्धिमता प्राप्त हो गई या नहीं। बस, वह तो हर पल प्रेम में डूबा रहता है और उसके लिये यही काफी होता है। ऐसे भक्त मिलना बहुत मुश्किल होता है। विद्यार्थी तो बहुत होते हैं, शिष्य थोड़े कम होते हैं। लेकिन भक्त कोई विरले ही होते हैं। भगवान बनना कोई बड़ी बात नहीं है। कोई भी वस्तु तुम चाहो या ना चाहो भगवान ही है। लेकिन भक्ति कहीं-कहीं ही प्रस्फुटित होती है। जहां ऐसी भक्ति उत्पन्न होती है, वही भक्त है। आकर्षण हर जगह होता है पर प्रेम कहीं-कहीं, लेकिन भक्ति तो बहुत ही दुर्लभ होती है। यह बहुत सुंदर चीज है। एक विद्यार्थी आंखों में आंसू लेकर गुरु के पास आता है और जब जाता है तब भी उसकी आंखों मे आंसू होते हैं, लेकिन ये आंसू थोड़ा अलग तरह के होते हैं। ये कृतज्ञता के आंसू होते हैं, प्रेम के आंसू होते हैं। प्रेम में रोना बहुत सुंदर है। जो एक बार भी प्रेम मे रोया है, वही इसका स्वाद जानता है और जब भी ऐसा होता है तो पूरी सृष्टि इसका आनन्द मनाती है। पूरी सृष्टि एक ही चीज चाहती है और वह है नमकीन आंसुओं को बदल कर मीठा हो जाना। प्रेम ऐसी चीज है जिसमें विधाता भी आनन्द मानते हैं। जितना तुम प्रभु को चाहते हो, वे भी तुम्हें उतना ही चाहते हैं। प्रभु भी तुम्हारे आने का इंतजार करते हैं। प्रभु भी तुम्हारे नजदीक आने को उतना ही उतावले हैं, जितना तुम उनके पास जाने को। जब भी इस धरा पर किसी भक्त का आविर्भाव होता है तो प्रभु बहुत प्रसन्न होते हैं। इसलिये गुरुपूर्णिमा भक्त का दिन माना जाता है। ल्ल
तुम भी 'वही' हो
एक मधुमक्खी के छत्ते में कई मधुमक्खियां आकर बैठती हैं, पर रानी मक्खी चली जाए तो सभी मधुमक्खियां छत्ता छोड़ देती हैं। रानी मक्खी की ही तरह, हमारे शरीर में एक परमाणु है। अगर वह ना हो, तो बाकी सब चला जाता है। वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वही आत्मा है, ईश्वर है। वह सब जगह व्याप्त है, फिर भी कहीं नहीं है। तुम भी वही हो। वही परमात्मा है और वही गुरु तत्व है। जैसा मातृत्व होता है, पितृत्व होता है, गुरुत्व भी होता है। आप सब भी किसी ना किसी के गुरु बनो। जाने-अनजाने आप ऐसा करते ही हैं, लोगों को सलाह देते हैं, उन्हें रास्ता दिखाते हैं, प्रेम देते हैं और देखरेख करते हैं। पर ऐसा करने में अपना 100 प्रतिशत दें और बदले में उनसे कुछ ना चाहें। यही है अपने जीवन में गुरुत्व को जीना, अपनी आत्मा में जीना। आप में, परमात्मा में, और गुरु तत्व में कोई अंतर नहीं है। ये सब उस एक में ही घुल जाना है, लुप्त हो जाना है। यान का अर्थ है विश्राम करना और उस अतिसूक्ष्म परमाणु में स्थित रहना। तो उन सब चीज़ों के बारे में सोचें जिनके लिये तुम आभारी हो, और जो चाहते हो वह मांग लो। और सब को आशीर्वाद दो। हमें बहुत कुछ मिलता है, पर लेना ही काफी नहीं है। हमें देना भी चाहिए। उन्हें आशीर्वाद दें, जिन्हें इसकी जरूरत हो।

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