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पुस्तक 'द कंसाइज हिस्ट्री ऑफ इंडिया' के लेखक वाटसन के अनुसार मुगल बादशाहों को कोहनूर हीरा आन्ध्र प्रदेश के पास गोलकुंडा स्थित हीरे की खानों में खुदाई के दौरान मिला था। अलाउद्दीन खिलजी ने उसे मालवा नरेश से छीना था, जो बाद में मुगलों के पास आ गया।
कोहनूर फारसी का शब्द है जिसका अर्थ है चमकता पहाड़। इस कोहनूर हीरे का इतिहास भारत में बड़ा पुराना रहा है और समय-समय पर भारत पर राज करने वाले शासकों से लेकर ब्रिटानिया सरकार तक उसकी चकाचौंध से बच नहीं सकी है। वर्तमान में यह हीरा ब्रिटेन के संग्रहालय में सुरक्षित है।
पुस्तक 'द कंसाइज हिस्ट्री ऑफ इंडिया' के लेखक वाटसन के अनुसार मुगल बादशाहों को कोहनूर हीरा आन्ध्र प्रदेश के पास गोलकुंडा स्थित हीरे की खानों में खुदाई के दौरान मिला था। अलाउद्दीन खिलजी ने उसे मालवा नरेश से छीना था और बाद में वह मुगलों के कब्जे में आ गया। कुछ ऐसी मान्यताएं भी हैं कि ये हीरा ग्वालियर के राजा के पास था और उसे हुमायंू ने युद्ध में प्राप्त किया था। ऐसा भी कहा जाता है कि गोलकुंडा की खान से मिलने पर यह हीरा मुगल सम्राट को भेंट स्वरूप दिया गया था। शाहजहां के शासनकाल में इस हीरे का वजन 191 कैरट था। औरंगजेब के शासनकाल में इस हीरे को तराशा गया और उस कार्य के लिए आठ हजार पौंड खर्च कर 38 दिन कार्य किया गया। इससे हीरे का वजन घटकर 186 कैरट ही रह गया और हीरे की सुंदरता भी कुछ खास नहीं बढ़ी। इस पर क्रुद्ध होकर औरंगजेब ने कारीगरों को दंडित भी किया था।
इस हीरे को लेकर तरह-तरह की चर्चाएं इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी हैं। बताया गया है कि जब 1739 में नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया था तो उस समय यह हीरा सम्राट मुहम्मद शाह रंगीला के पास था। नादिरशाह के सैनिकों द्वारा लूटपाट करने पर मुहम्मद शाह ने इस हीरे को अपनी पगड़ी में भी छिपाने का काफी प्रयास किया, लेकिन वह नादिरशाह से इसे बचा नहीं सका। यह जानकारी नादिरशाह को मिल गई और उसने मुहम्मद शाह को दोस्ती पक्की करने का हवाला देकर एक-दूसरे की पगड़ी बदलने को कहा। इस पर आक्रमणकारी नादिरशाह के सामने मुहम्मद शाह की एक भी न चल सकी। नादिरशाह ने जब मुहम्मद शाह को पगड़ी बदलने के लिए कहा तो पगड़ी में छिपा हीरा जमीन पर गिर पड़ा और चारों तरफ उसका तेज प्रकाश फैल गया। उस चकाचौंध को देखकर नादिरशाह के मुंह से अचानक कोहनूर शब्द निकल पड़ा, जो आज भी उसी के नाम से पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। इसके बाद नादिरशाह कोहनूर हीरा लेकर फारस लौट गया, लेकिन 1747 में उसके भतीजे ने ही उसकी हत्या कर सत्ता और हीरा दोनों पर कब्जा कर लिया। इसके बाद नादिरशाह के पोते ने शाहरुख मिर्जा ने इन दोनों पर अपना अधिकार जमा लिया।
इसके बाद यह हीरा अहमद शाह अब्दाली, तैमूर शाह, जामन शाह के हाथों से होकर शाह शूजा के पास जा पहंुचा। इस हीरे के कारण जामन शाह को तो उसके भाई के हाथों अपनी आंखों से भी हाथ धोना पड़ा। कोहनूर हीरा मिलने के बाद शाह शूजा भी आराम से नहीं रह सका। उसके करीबी लोगों ने ही उसे संकट में डाल दिया। उसकी पत्नी वफा सूझ-बूझ दिखाकर पंजाब भाग गई और हीरा कहीं छिपा दिया। फिर महाराजा रणजीत सिंह से शाह शूजा को कैद से छुड़ाने का निवेदन कर बदले में कोहनूर हीरा उन्हें देने का वायदा किया। महाराजा ने अपनी सेना भेजकर शूजा को मुक्त करवा दिया, लेकिन उसके बाद शूजा और उसकी पत्नी महाराजा को हीरा देने में आनाकानी करने लगे। महाराजा ने जब सख्ती की तो वह हीरा उन्हें सौंप दिया गया। महाराजा इस हीरे को पाकर काफी प्रसन्न हुए और उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। महाराजा रणजीत सिंह जब मृत्यु के निकट थे तो उन्होंने इस हीरे को पुरी के जगन्नाथ मंदिर को भेंट करने की इच्छा जताई थी, लेकिन उनके कोषाध्यक्ष ने उसे राज्य की संपत्ति बताकर मंदिर में देने से मना कर दिया। 1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब मंे षड्यंत्रकारी अग्रेजों के साथ मिलकर शक्तिशाली बनने लगे। इसका महाराजा दिलीप सिंह सामना नहीं कर सके।
आखिर में अंग्रेजों ने 1849 में युद्ध कर पंजाब पर कब्जा करने के साथ ही कोहनूर हीरा भी हथिया लिया। 1981 में ब्रिटेन के समाचार पत्र 'लंदन टाइम्स' ने भी कुछ पुराने दस्तावेजों का उल्लेख कर स्पष्ट किया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने अंतिम सिख महाराज दिलीप सिंह से युद्ध के हर्जाने के रूप में कोहनूर हीरा प्राप्त किया था। 1852 में कोहनूर हीरे को तराश कर उसके दो टुकड़े कर दिए गए। छोटा टुकड़ा लंदन के टावर हाउस में विशेष सुरक्षा व्यवस्था के साथ रख दिया गया। महारानी एलिजाबेथ ने 1937 में बड़े टुकड़े को अपने मुकुट में जड़वा दिया। —योगेश चन्द्र शर्मा
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