आवरण कथा- खोटा है ये कोटा
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आवरण कथा- खोटा है ये कोटा

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Jul 5, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Jul 2014 14:06:20

लोकसभा चुनावों में पूरे देश की तरह महाराष्ट्र में भी कांग्रेस का सिरे से सफाया हुआ। कांग्रेस को 48 में से 2 और उसकी सहयोगी एऩसी़पी को चार लोकसभा सीटें प्राप्त हुईं। 2014 के अंत में आसन्न विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस ने एक बार फिर मुस्लिम आरक्षण और सच्चर कमेटी का दांव चला है। वैसे, कांग्रेस का ये दांव दो बार (उत्तर प्रदेश विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव) खाली जा चुका है। परंतु सवाल विभाजन खड़ा करने वाली सोच का है। जिस सच्चर कमेटी रिपोर्ट को यूपीए सरकार ने अपना राजनैतिक एजेंडा बढ़ाने के लिए तैयार करवाया था, उसे आज बौद्घिक चर्चाओं, मुख्यधारा के समाचार जगत और उर्दू प्रेस में ब्रह्मवाक्य बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। इसी बीच राजनैतिक महत्वाकांक्षा रखने वाला मुसलमानोंं का एक वर्ग नयी केंद्र सरकार पर भी सच्चर कमेटी की अनुशंसाओं को लेकर दबाव बनाने का प्रयास करता दिख रहा है। इसलिए आवश्यक हो गया है कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट का तथ्यों और आंकड़ों के प्रकाश में विश्लेषण किया जाए कि मुस्लिम कोटा कितना खरा है और कितना खोटा…

 जब महाराष्ट्र में मुस्लिम आरक्षण का कांग्रेसी शिगूफा उड़ा तो कुछ मुसलमान मित्रों से बात हुई। पहली बात हुई, युवा वकील तबरेज शेख से। तबरेज का कहना था 'संविधान ने हमें-देश के नागरिकों को समान अधिकार दिए हैं। हाल का लोकसभा चुनाव भी समान अवसर और विकास के आधार पर लड़ा गया है। ऐसे में मजहबी आरक्षण के नाम पर समाज को बांटना सिर्फ राजनैतिक षड्यंत्र है।' दूसरा वार्तालाप युवा इंजीनियर और शासकीय सेवा परीक्षा की तैयारी में लगे जाकिर हुसैन से हुआ।
मजहबी मुस्लिम आरक्षण के प्रश्न पर जाकिर का कहना था कि 'हालांकि कांगे्रस इसे लेकर सिर्फ वोट बैंक की राजनीति कर रही है, पर हां, मुसलमानों को आरक्षण मिलना चाहिए।' क्यों? 'क्योंकि बहुत से स्थानों पर मुसलमान आर्थिक रूप से पिछडे़े हुए हैं।' इस पर मैंने कहा कि जहां पूरा समाज समृद्घ हुआ है, वहां मुसलमान भी समृद्घ हुआ है, जैसे गुजरात में। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश और बिहार में हिंदू और मुसलमान समान रूप से पिछड़े हैं। साथ ही आरक्षण का प्रावधान सामाजिक विषमता दूर करने के लिए है, आर्थिक आधार पर नहीं। यह सुनकर जाकिर सोच में पड़ गया।
हंटर कमेटी की मानस पुत्री- सच्चर कमेटी
प्रसिद्घ उक्ति है कि जो समाज इतिहास से नहीं सीखता वह समाज स्वयं इतिहास बन जाता है। 1857 के स्वाधीनता समर की व्यापकता से सबक लेकर अंग्रेजों ने विभाजनकारी चाल चलते हुए 1882 में एक सदस्यीय हंटर कमेटी बनाई, जिसका उद्देश्य तत्कालीन भारत के मुसलमानोें की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करना था। इतने बड़े काम को हंटर कमेटी के एकमात्र सदस्य विलियम विल्सन हंटर ने चार हफ्तों में ही कर लिया। 'इंडियन मुसलमान' शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में हिंदुओं को मुसलमानोें के साथ भेदभाव करने वाला बताया गया था (जैसा कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट अप्रत्यक्ष रूप से कहती है)। हंटर रिपोर्ट को जल्दी ही भुला दिया गया परन्तु सन् 1940 के बाद, जब पाकिस्तान की मांग उठी, तब हंटर रिपोर्ट अचानक अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गई। हर पढ़ा-लिखा मुसलमान इसे पढ़ना चाहता था। मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग के लिए हंटर कमेटी रिपोर्ट को वैचारिक हथियार के रूप में उपयोग किया गया। हंटर रिपोर्ट ने, जो वास्तव में झूठ का पुलिंदा थी, देश के विभाजन में महती भूमिका निभाई।
कांग्रेस ने अपने पूर्व पुरुषों से नहीं सीखा
अगस्त 1947 में संविधान सभा ने अल्पसंख्यकों के सुरक्षा उपायों पर विचार विमर्श किया था। इस विषय पर बनी परामर्शदात्री समिति की अध्यक्षता सरदार पटेल कर रहे थे। अन्य सदस्यों में डॉ़ अंबेडकर, डॉ़ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, मौलाना आजाद, डॉ. के़ एम़ मुंशी, पुरुषोत्तम दास टंडन, पं. गोविंद वल्लभ पंत और श्री गोपीनाथ बारदोलोई थे। पं़ नेहरू आमंत्रित सदस्य थे। अंत में पं़ नेहरू ने परामर्शदात्री समिति की ओर से राय व्यक्त की -'समिति इस बात से संतुष्ट है कि अल्पसंख्यक स्वयं महसूस करते हैं कि यह उनके हित मेंं है और सम्पूर्णता मेंं देश के हित मेंं आवश्यक है कि मज़हबी अल्पसंख्यकों के लिए सीटोंं का कानूनी रूप से आरक्षण समाप्त होना चाहिए।'
संविधान सभा मेंं समिति की रिपोर्ट पेश करते हुए सरदार पटेल ने कहा था- 'दीर्घकाल मेंं इस बात को भूल जाना सभी के हित मेंं होगा कि देश मेंं कोई बहुसंख्यक है या अल्पसंख्यक। भारत मेंं केवल एक समुदाय को ही मान्यता रहेगी।'
अपने विशद् अध्ययन वाले पांच-खण्डोंं मेंं फैले फ्रेमिंग ऑफ दि इंडियन कान्स्टीट्यूशन मेंं श्री बी़ शिवाराव लिखते हैं- 'समिति ने इन प्रस्तावोंं पर विस्तार से लंबी चर्चा की। अधिकांश वक्ताओंं ने, जिनमेंं मुस्लिम, ईसाई, एंग्लो इंडियन और अनुसूचित जाति, जनजाति के हिंदू थे, ने साम्प्रदायिक आधार पर आरक्षण को समाप्त करने के प्रस्ताव पर पूर्ण समर्थन देने की बात कही। जवाहरलाल नेहरू ने इस प्रस्ताव को हमारी नियति का ऐतिहासिक मोड़ कहा था।'
पं नेहरू ने आगे कहा- 'इस प्रकार के सुरक्षा उपायोंं की आवश्यकता किसी निरंकुश शासन अथवा विदेशी शासन में कुछ विशेष मतलब रख सकती है, क्योंकि ऐसे शासन मेंं कोई शासक किसी समुदाय को एक दूसरे के साथ भिड़ा सकता है्र, परंतु जहां पूरी तरह से लोकतंत्र है तो ऐसे में यदि आप किसी अल्पसंख्यक या अपेक्षाकृत किसी और भी लघु अल्पसंख्यक वर्ग के लिए ऐसा सुरक्षा उपाय करते हैं तो इसका मतलब उन्हें अलग-थलग करना होगा।' गट्ठा वोटों के जुगाड़ में लगी तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उसके पितृपुरुषों की सीख को भी किनारे कर दिया। मौके को लपकने के लिए सभी 'सेकुलर' योद्घा मैदान में कूद पड़े और सच्चर रिपोर्ट उनका पवित्र ग्रन्थ बन गई।
चमत्कारिक तेजी, अंधा समर्थन
मार्च 2005 में यू़पी़ए़ सरकार ने जस्टिस राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में सच्चर कमेटी की स्थापना की। कमेटी का काम भारत के मुसलमानोें की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक स्थिति का पता लगाना था।अगले 20 महीनों में अर्थात नवंबर 2006 में कमेटी ने कार्य पूरा कर लिया। भारत जैसे विशाल देश के इतनी बड़ी संख्या वाले समुदाय का अध्ययन इतने कम समय में कैसे पूरा हो गया और अस्वाभाविक तेजी से तत्कालीन सरकार, मीडिया- बुद्घिजीवियों के एक वर्ग और कांग्रेस सहित सभी तथाकथित सेकुलर दलों ने इसके निष्कषोंर् पर परम सत्य और स्वीकृति की मुहर लगा दी। न तथ्यों पर चर्चा-बहस हुई, न ही उन्हें जांचा परखा गया। राष्ट्र के भविष्य और आगामी पीढि़यों को गहराई से प्रभावित करने वाले विषय पर जो रवैया और जल्दबाजी दिखाई गई वह अभूतपूर्व थी। आज भी इसके तथ्यों का विश्लेषण करने के स्थान पर इसे पंथनिरपेक्षता का तराजू बनाकर दलों और शासकों को तौला जा रहा है।
गरीबी का मज़हबी रंग
सच्चर कमेटी का दर्शनशास्त्र है कि हिंदू मजदूर और मुसलमान मजदूर के हित अलग-अलग हैं, और गरीबी दूर करने के लिए शासन को सबसे पहले नागरिकों को हिन्दू और मुस्लिम में बांटकर देखना चाहिए। मुस्लिम समुदाय को पिछड़ेपन की ओर ले जाने वाले वास्तविक कारणों से कतराती हुई सच्चर रिपोर्ट मुस्लिम में पर्दा प्रथा, मदरसा शिक्षा, इमराना-शाहबानो जैसे प्रकरण, महिलाओं को नौकरी – रोज़गार – शिक्षा से दूर रखने वाले फतवे आदि विषयों पर एक शब्द भी नहीं कहती, बस काल्पनिक आधारों पर बहुसंख्यक समाज द्वारा मुस्लिम के प्रति भेदभाव की बातें करती है। सच्चर रिपोर्ट विद्वेष के बीजों को असत्य से सींचती जाती है।
अवैज्ञानिक कार्यपद्घति
सच्चर कमेटी की कार्यपद्घति पर दृष्टि डालने पर उसकी पूर्णत: अवैज्ञानिक कार्यपद्घति सामने आती है। सच्चर कमेटी के सदस्य ड़ॉ. राकेश बसंत ने 15 सितंबर 2005 को चेयरमैन श्री राजेन्द्र सच्चर को लिखा कि आंकड़ों का विश्लेषण जिन लोगों से करवाया गया है, उन्होंने पहले कभी ये कार्य नहीं किया था, न ही उन्हें कोई अंदाज था कि क्या संभव है क्या नहीं।
''A large number of data analysis that is being done is of data that many members have never analysed before and do not have any idea about what is/is not possible. डॉ. राकेश बसन्त ने कमेटी द्वारा 'निर्देश की शतोंर्' के उल्लंघन की बात भी उठाई थी, जिसे दबा दिया गया। इतना ही नहीं, अनेक गणमान्य विद्वानों और प्रामाणिक व्यक्तियों/संस्थाओं ने इस विषय पर अपना मत और अध्ययन कमेटी के सामने रखना चाहा परन्तु उन्हें अवसर ही नहीं दिया गया।
निर्धारित कार्यक्षेत्र के बाहर जाते हुए राजनैतिक एजेंडे का पोषण
कमेटी ने अपने कार्यक्षेत्र अर्थात् सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक अध्ययन से बाहर जाते हुए चुनाव आयोग एवं परिसीमन आयोग को पत्र लिखकर चुनाव क्षेत्रों में मजहब के आधार पर आंकड़े मांगे। चुनाव व परिसीमन आयोगों ने जानकारी देने से मनाकर दिया, तो जिलाधीशों को पत्र लिखकर ये आंकड़े प्राप्त किये। बाद में कमेटी ने भारत के पंथनिरपेक्ष ढांचे पर प्रहार करने वाला कदम उठाया, और अनुशंसा की कि जिन भी लोकसभा या विधानसभा सीटों में मुसलमानोें की एक निश्चित संख्या है, उनका अनुसूचित जाति व जनजाति के आधार पर किया गया आरक्षण समाप्त किया जाए।
बिना सबूत बिना गवाह अपराधी करार दिया!
कमेटी ने भारत के बहुसंख्यक समाज को ही लांछित करते हुए मुस्लिम महिलाओं के सार्वजनिक स्थानों पर भयभीत रहने, मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार, सार्वजनिक सेवाओं में भेदभाव आदि की बातें कहीं। कमेटी ने उपरोक्त निष्कर्ष किस आधार पर निकाले? क्या उसके पास ऐसा कोई तथ्य है, जब किसी बच्चे को मुसलमान होने के कारण विद्यालय में प्रवेश न दिया गया हो? या किसी मुसलमान को मुसलमान होने के कारण निजी या सार्वजनिक अस्पताल या परिवहन सेवा का लाभ लेने से रोका गया हो? संघ लोकसेवा आयोग के कई चेयरमैन तथा सदस्य मुस्लिम रहे हैं, परन्तु कमेटी ने उनसे संवाद नहीं किया। कमेटी से ये प्रश्न पूछने का प्रयास न मीडिया ने किया न तथाकथित बुद्घिजीवियों ने।
कमेटी ने किस आधार पर आईआईटी, यूपीएससी पुलिस और सेना पर मुसलमानोें से भेदभाव का आरोप लगाया? सरकार द्वारा बनाई गई किसी भी कमेटी का दायित्व होता है, कि पूरी जिम्मेदारी के साथ तथ्योंं का विश्लेषण करे और कुछ भी लिखने के पहले नागरिक समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव का अनुमान लगाए। परंतु सच्चर कमेटी द्वारा मिथकों और अफवाहों के आधार पर इतनी गंभीर बातेंं लिख दी गईं जिनसे समाज में संदेह और अविश्वास फैलता है। स्पष्ट है कि कमेटी राजनैतिक एजेंडे पर कार्य कर रही थी।
क्या सच ऐसे खोजा जाता है ?
प्रामाणिकता और तथ्यपरकता को किनारे कर सच्चर कमेटी ने जिस प्रकार से कार्य किया है, उससे यह साफ हो जाता है, कि कमेटी द्वारा 'खोजे गए' निष्कर्ष पहले ही तय कर दिए गए थे। कमेटी ने 9 मार्च 2005 को 100 समाचार पत्रों में विज्ञापन निकालकर इच्छुक संस्थाओं व व्यक्तियों से ज्ञापन आमंत्रित किये, पर जब ज्ञापन पत्र पहुंचे तो सच्चर समिति ने उनमें अपनी पसंद के ज्ञापनों को चुना। उदाहरण के लिए भरुच (गुजरात) के पूर्व विधायक, जो शायद ही कभी बिहार गए हों, ने लिखा कि बिहार, यूपी़ राजस्थान और म.़प्ऱ में मुसलमानोें की स्थिति अत्यंत कारुणिक है। उत्तर प्रदेश के मुसलमानों नेताओं ने गुजरात के मुसलमानोें की दशा पर चिंता जताई। इसी प्रकार गुजरात के ही एक ज्ञापन में मुसलमानोें के लिए शरीयत पंचायतों के गठन का सुझाव दिया गया। इन सब को स्वीकार कर लिया गया। यहां यह बताना आवश्यक है कि उपरोक्त में से किसी भी ज्ञापन में कोई प्रमाण, तथ्य या आंकड़े नहीं प्रस्तुत किए गए। अर्थात् अनुमानोंं, कल्पनाओंं और एकतरफा भावनात्मक अपीलोंं को कमेटी द्वारा पर्याप्त स्थान दिया गया।
वहीं दूसरी ओर पूर्व आईपीएस और नई दिल्ली के पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री आर. के़ ओहरी ने एक ज्ञापन पत्र सौंपा जिसमें विभिन्न विश्वसनीय स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण कर निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि भारत में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति हिंदुओं जैसी ही है, और कुछ मामलों में हिंदुओं से बेहतर है। श्री ओहरी द्वारा भेजे गए इस प्रामाणिक और तथ्यपरक अध्ययन का क्या हाल हुआ? श्री ओहरी के मेमोरेण्डम पर गौर ही नहीं किया गया। श्री ओहरी ने कमेटी को 4 बार पत्र लिखे कि उन्हें अपनी बात रखने के लिए बुलाया जाए, परंतु उन्हें बुलाना तो दूर, उनके पत्रों का उत्तर तक नहीं दिया गया।
कमेटी के इन तौर तरीकों से साफ हो जाता है, कि उसकी रिपोर्ट कितनी विश्वसनीय है, और उसे बनाने वालों की सोच क्या है।
सच पर पर्दा डाला , तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा
मनचाहे निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए सच्चर कमेटी ने सत्य और प्रामाणिकता की ओर दुर्लक्ष्य किया।
कमेटी ने जानबूझकर प्रामाणिक दस्तावेजों को दबा दिया। समिति के पास सभी प्रकार के आंकड़े-सर्वेक्षण-अध्ययन उपलब्ध थे, उनमेंं से कुछ को चुना गया, तोड़ा-मरोड़ा गया और कुछ को दबा दिया गया। यहां ऐसे ही कुछ तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं-
श्री संजय कुमार द्वारा प्रस्तुत सर्वेक्षण
श्री संजय कुमार (फेलो, सीएसडीएस) ने 27,000 प्रतिक्रियादाताओं
पर आधारित सर्वेक्षण प्रस्तुत किया एवं तीन महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले-
1़ हिंदुओं और मुसलमानों में शिक्षा प्राप्ति के स्तर में शायद ही कोई
अंतर है।
2़ सामान्य आकलन है कि मुसलमान गरीब हैं, पर राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त निष्कर्ष बता रहे हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों में आर्थिक सम्पन्नता की दर से कोई विशेष अंतर नहीं है।
3़ सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष, जो संजय कुमार ने दिया वो है, कि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे लोग जो अति गरीब की श्रेणी में आते हैं, उनकी संख्या हिंदुओं में अधिक है, न कि मुसलमानोें में।
उपरोक्त विश्लेषण 2 सितंबर 2006 को दिल्ली में भारतीय लोक प्रशासन संस्थान में आयोजित सेमिनार में प्रस्तुत किया गया था। कमेटी तक यह अध्ययन पहुंचाया गया परंतु इसकी उपेक्षा कर दी गई।
हिंदू-मुसलमान: आय की समानता
(एनसीईएआर) राष्ट्रीय व्यावहारिक अर्थशास्त्र अनुसंधान परिषद द्वारा सर्वे किया गया और उसके तथ्यों को 5 अप्रैल 2007 को 'द इकोनोमिक टाइम्स, नई दिल्ली' और 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने एक ही शीर्षक से छापा है- ''हिंदु मुसलमान आय में समान हैं'' ़.़.इसमें आगे कहा गया है कि सिख समृद्घि में अगुआ है। सर्वेक्षण बताता है, कि सिख टी़ वी़, कार, दुपहिया वाहन आदि के स्वामित्व में बहुत आगे हैं। ईसाई भी सामान्य हिंदुओं से कहीं आगे हैं।

आवरण कथा संभंधित आंकड़े

वास्तविक आंकड़ों से दूर सच्चर कमेटी
सच्चर कमेटी ने जिन आंकड़ों की उपेक्षा की वो बहुत महत्वपूर्ण आंकड़े हैं। वास्तव में उन आंकड़ों की उपेक्षा किये बिना कमेटी कभी भी तथाकथित मुस्लिम पिछड़ेपन के निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाती। ऐसे कुछ आंकड़ोंं पर एक दृष्टि डालें-
शिशु और बाल मृत्युदर हिंदुओं में मुसलमानों से कहीं ज्यादा
शिशु और बाल मृत्यु दर का सीधा संबंध पोषण और चिकित्सा (और इसलिए आर्थिक समृद्घि) से है। अध्ययन से पता चलता है कि हिंंदू शिशु- बाल मृत्यु दर मुसलमानों से अधिक है, और बढ़ती जा रही है।
1991 – 99 के आंकड़े ये तथ्य सिद्घ कर रहे हैं। ये सर्वेक्षण 1992-93 तथा 98-99 में किए गए थे।
अब हम वर्ष 2008 में किए गए सर्वेक्षण के आंकड़े देखते हैं(सभी आंकड़े प्रति हजार पर दिए गए हैं।)
शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में बाल, शिशु मृत्यु दर हिंदुओं में कहीं ज्यादा है-
बाल व शिशु मुत्यु का सीधा संबंध आहार, पोषण तथा चिकित्सकीय सुविधाओं से है। आगे आने वाले आंकड़े इसे स्पष्ट कर तथाकथित मुस्लिम पिछड़ेपन की पोल खोलते हैं।
क्या खून की कमी का संबंध जीवन स्तर पोषण (भोजन) आदि से नहीं है? इन सभी श्रेणियों में हिंदू-मुसलमान समुदाय के तुलनात्मक आंकड़े क्या दर्शाते हैं?
सार्वजनिक स्थलों पर भेदभाव का सच
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है, कि मुसलमानोें के साथ सार्वजनिक स्थानोंं पर भेदभाव होता है। उन्हें अस्पताल आदि जाने में डर लगता है। इन दावों की पोल खोलते आंकड़े देखिए-
ध्यान दें। निजी चिकित्सा तक मुस्लिम समुदाय की पहुंच अधिक है।
मुसलमानों की औसत आयु हिंदुओं से अधिक
किसी समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए अनुमानित जीवनकाल एक विश्वमान्य सूचक है। इसका मान जितना अधिक होगा समाज उतना अधिक समृद्घ माना जाएगा। दो ख्यात जनसांख्यिकी विशेषज्ञों पी़ एऩ मारी भट तथा ए. जे़ फ्रांसिस जेवियर द्वारा किए गए शोध में जो 29 जनवरी 2005 को इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित हुआ है, के अनुसार औसत जीवनकाल के मामले में मुसलमान हिंदुओं से आगे हैं।
मुसलमानों का औसत अनुमानित जीवनकाल 62.6 वर्ष तथा हिंदुओं का 61.4 वर्ष है, जो कि 1़.2 वर्ष अधिक है।

मुसलमानों को महज वोट बैंक के लिए दिया जाता है आरक्षण

शहरीकरण मेंं मुसलमान हिंदुओंं से बहुत आगे हैं
सारे विश्व में मानव विकास का एक और सूचकांक माना जाता है क्योंकि शहर में स्वास्थ्य चिकित्सा शिक्षा आदि मूलभूत सुविधाएँ अधिक अच्छी तरह उपलब्ध होती हैं। जीवन स्तर ऊंचा होता है। इस कसौटी पर भी मुसलमान हिंदुओं से आगे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार हिंदू जनसंख्या का 74 प्रतिशत गाँवों में रह रहा था और 26 प्रतिशत शहरों में, जबकि मुस्लिम आबादी का 36 प्रतिशत शहरों में और 64 प्रतिशत गांवों में रह रहा था।
आत्महत्या करने वाले अधिकांश किसान हिंदू
नयी आर्थिक नीतियों के पिछले दो दशकों में कृषि क्षेत्र में भारी गिरावट आई है। शहरों की उच्च विकास दर की तुलना में कृषि का सकल घरेलू उत्पाद बहुत निम्न बना हुआ है, जिससे गाँवों में अधिक आबादी वाली हिंदू जनसंख्या प्रभावित हुई है, इसीलिए आत्महत्या करने वाले हजारों किसानों में अधिकांश हिंदू हैं।
0
2001 की जनगणना के वक्तव्य 8 के अनुसार दोनों समुदायों के शैक्षिक स्तर में भी बहुत अधिक अंतर नहीं है। हिंदुओं के लिए यह 65़1 तथा मुसलमानोें के लिए 59़1 है। 13 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में मुसलमान शिक्षा स्तर में हिंदुओं से आगे हैं। ये बड़े राज्य हैं- आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक, महाराष्ट्र मध्यप्रदेश, उड़ीसा और गुजरात। यहाँ ध्यान रखने योग्य है, कि आंध्रप्रदेश में जहाँ मुसलमानोें को 5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया, वहाँ मुसलमानोें में शिक्षा का स्तर हिंदुओं से 7 प्रतिशत अधिक है।
कम प्रतिव्यक्ति आय का कारण
प्रतिव्यक्ति आय में मुसलमान हिंदुओं से पीछे हैं। इसके दो मुख्य कारण हैं। पहला है- मुसलमान परिवारों का बड़ा आकार। आंकड़े बताते हैं, कि औसतन हर मुसलमान परिवार में एक सदस्य अधिक है।
चूँकि समुदाय का औसत रोजगार पुरुषों और महिलाओं दोनों को मिलाकर निकाला जाता है, अत: रूढि़वादिता के कारण घरों में बंद मुस्लिम महिलाओं के कारण मुसलमानोें का रोजगार प्रतिशत कम दिखाया जाता है, जब बेरोजगारी का आंकड़ा निकाला जाता है, तब इन्हीं महिलाओं को जोड़कर मुस्लिम बेरोजगारी का बड़ा आंकड़ा सामने आता है।
औसत का फरेब, आंकड़ों का खेल
हिंदुओं में अतिसमृद्घ वर्ग की एक परत है। फोर्ब्स मैगजीन द्वारा जारी 48 भारतीय अरबपतियों की सूची जिसमें 3-4 अपवाद छोड़कर शेष सभी हिंदू हैं। अब जब इन सबको इनके समुदायों में जोड़कर दोनों समुदायों की समृद्घि का विश्लेषण किया जाता है, तो हिंदू समाज वास्तविकता से काफी अधिक समृद्घ दिखाई पड़ता है।
आर्थिक उपेक्षा का झूठ
सच्चर कमेटी ने एक अन्य बात कही है, कि मुसलमान आर्थिक उपेक्षा के शिकार हैं। तथ्य इस बात की पुष्टि नहीं करते। आंकड़े बताते हैं, कि मुसलमानोें के ऋण खातों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात में ही है। वर्ष 2001 से 2005 तक के आंकड़े बताते हैं, कि बैंकों में मुसलमानोें के खातों का प्रतिशत 12़2 था। यह तथ्य सामने होते हुए भी कमेटी ने मुसलमानोें के आर्थिक बहिष्कार जैसा बयान कैसे दे दिया?
कमेटी द्वारा ही दिए गए आंकड़े बताते हैं, कि मुसलमानोें को दिए जाने वाले ऋण की राशि तेजी से और लगातार बढ़ रही है। 2001 से 2004 तक यह ऋण राशि प्रति खाता 15,463 से बढ़कर 29,671 रु़ तक जा पहुँची। अर्थात् 4 वषोंर् में दोगुना। मुसलमान आय का 7़6 हिस्सा व्यक्तिगत बचत खातों में भी रखते हैं। प्रति खाता जमा राशि औसत के बराबर है। कमेटी ने जिन 21 राज्यों के आंकड़े एकत्रित किए हैं, उनमें से 12 राज्यों में प्रति खाता जमा राशि के मामले में मुसलमान राज्य के औसत से आगे हैं। इसी प्रकार कई राज्यों में मुसलमानोें के बैंक ऋण खातों की संख्या उनकी स्थानीय आबादी के अनुपात से अधिक है।
प्रादेशिक मुद्दे का सांप्रदायिक प्रस्तुतीकरण
मूलभूत सुविधाएं अर्थात् सड़क, विद्यालय, चिकित्सालय, बैंक, बिजली पानी आदि। सच्चर कमेटी ने आंकड़ों की सहायता से सिद्घ किया है, कि मुसलमान बहुल आबादी वाले क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। प्रथम दृष्ट्या बात तार्किक लगती है, परंतु थोड़ा ध्यान से देखने पर बात साफ हो जाती है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में 13.8 करोड़ (2001 तक) मुसलमान थे। इनमें से आधे, 6.84 करोड़, चार राज्यों-उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में रह रहे थे। बताने की आवश्यकता नहीं है, कि ये राज्य मूलभूत सुविधाओं सहित विकास की दौड़ में पिछड़े हुए राज्य हैं। अर्थात् इन राज्यों की सारी जनसंख्या (हिंदू- मुसलमान सहित) अभावों में जा रही है। सच्चर कमेटी ने इन राज्यों के मुसलमानों के आंकड़े उठा लिए और सिद्घ करने का प्रयत्न किया कि मुसलमान बहुल क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। इसी प्रकार असम में 80 लाख मुसलमान हैं, और बंगलादेश से होने वाले जनसांख्यिकी आक्रमण के कारण ये संख्या बढ़ती जा रही है। असम के हाल भी उपरोक्त चार राज्यों जैसे हैं। कमेटी ने जिस मुद्दे को सांप्रदायिक बनाकर प्रस्तुत किया है, वो वास्तव में भौगोलिक मुद्दा है। ये चूक नहीं है, प्रयासपूर्वक निकाला गया निष्कर्ष है।
अपने ही कथन के प्रति विरोधाभास
कमेटी के द्वारा प्रदत्त आंकड़ों के अनुसार देश में 38़7 करोड़ लोग कार्यशील हैं, जिनमें से 2़7 करोड़ अर्थात् कार्यशील नागरिकों का 7 प्रतिशत संगठित क्षेत्र में हैं। इनमें से 1.86 करोड़ अर्थात् 5 प्रतिशत से कम सरकारी नौकरियों में हैं।

मराठा-मुस्लिम आरक्षण : क्या कांग्रेस की नैया पार लगाएगा?

कमेटी द्वारा दिए गए आंकड़ों के हिसाब से मुसलमानों को राज्यस्तरीय विभागों (6.3 प्रतिशत) तथा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (10.8 प्रतिशत) में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त है। केंद्रीय संस्थानों में उनका प्रतिशत कम है। कमेटी का यह भी कहना है कि उच्च प्रबंधकीय, तकनीकी और प्रशासकीय स्तर पर मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम है। इसका कारण भेदभाव नहीं है। सभी जानते हैं कि सरकारी विभागों और संस्थानों में रिक्तियाँ शैक्षिक उपलब्धियों के आधार पर भरी जाती हैं। चूँकि कमेटी ने स्वयं ही यह तथ्य रखा है, कि उच्च शिक्षा के मामले में मुसलमानों का प्रतिशत कम है, अत: उच्च पदों तथा केंद्रीय विभागों में मुसलमानों के कम प्रतिशत का कारण स्पष्ट हो जाता है। उच्च शिक्षित और योग्य मुसलमान आवेदकों के साथ कोई भेदभाव नहीं होता।
निष्कर्ष कमेटी के निष्कषोंर् से विपरीत
भारत के मुसलमान आर्थिक रूप से तीव्र प्रगतिमान और आकार में बढ़ता हुआ समुदाय हैं। जीवन की प्रगति के उनके अवसरों में लगातार वृद्घि हो रही है। देश के सभी हिस्सों में उनकी जन्म दर उच्च और मृत्यु दर निम्न है। हर प्रदेश में उनका अनुपात और उनकी संख्या बढ़ रही हैं। विभाजन के पूर्व उनके पास 25 प्रतिशत सरकारी नौकरियाँ थीं। विभाजन के समय मुसलमानों का शिक्षित और संपन्न तबका अधिकांशत: पाकिस्तान चला गया, परंतु वे फिर शिक्षा उद्योग आदि में तेजी से बढ़ रहे हैं। बैंक ऋणों तक उनकी पहँुच देश के अन्य समुदाय जितनी ही है। उनकी श्रमशील संख्या अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों में केंद्रित है, जिन्होंने निकट अतीत में उच्च वृद्घि प्रदर्शित की है।
भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में वे अच्छी तरह से फल फूल रहे हैं। ऐसे में राजनैतिक लाभ के लिए मुसलमान आरक्षण की बात देश में सांप्रदायिक विभाजन की खाई पैदा करेगी। यह संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार पर आघात भी है।
अंत में जो चित्र उभरता है वह बहुत ही कुरूप है, कि इस कमेटी को बनाकर सारा खेल सिर्फ इसलिए रचा गया क्योंकि कांग्रेस सरकार को मुसलमान आरक्षण का कार्ड खेलना था। सच्चर का सच इतना ही है। -प्रशांत बाजपेई

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