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14-15 जून को कैंटरबरी के आर्चबिशप जस्टिन वेल्बी की रोम यात्रा और वहां पोप फ्रांसिस तथा उनके बीच मुलाकात कई मायनों में महत्वपूर्ण है। वे एक ही पंथ की दो पीठों के प्रमुख हैं, इस नाते उनके एजेंडे में कुछ बातें समान होंगी। फिर भी कुछ स्थानों में उनकी पीठें एक-दूसरे के विरोध में लड़ाई का रुख लिए खड़ी हैं। कुछ स्थानों पर दोनों के मिले-जुले मोर्चे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरे विश्व में प्रोटेस्टंेट एवं कैथोलिक बडे़ पैमाने पर जनसंख्या की छीना-झपटी करते हैं। एक वर्ष में कभी एक करोड़ तो कभी दो करोड़ जनसंख्या इधर से उधर जाती है। दूसरी तरफ कुछ देशों में उनकी ईसाईकरण की मुहिम, जनसंख्या की वृद्घि अथवा छीना-झपटी जैसे कुछ विषय दोनों पीठाधीशों के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं, फिर भी दोनों पीठों के एकजुट होकर यूरोप-अमरीका में तेजी से काम करने के कुछ उदाहरण भी हैं। जैसे, समलैंगिक विवाह को मान्य करना और महिलाओं को पंथाचायोंर् के अधिकार देना।
यूरोप-अमरीका के सामाजिक वातावरण में ये विषय गहमागहमी का कारण बने हैं। पश्चिमी देशों में तुलनात्मक रूप से खुला माहौल होने के बावजूद महिलाओं को मतदान का अधिकार मिलने में विलंब हुआ। उसी तरह उन्हें पंथोपदेशक का अधिकार अभी तक नहीं मिला है। कैथोलिक समाज के एक सौ आठ करोड़ लोगों का समुदाय होने के कारण यह विषय बार बार उठता है। महिला संगठन प्रश्न पूछते हैं कि 'क्या पंथाचार्य यह कहना चाहते हैं कि हम यीशू की भक्ति अथवा सेवा नहीं कर सकते?' पंथ तथा उसकी सेवा पुरुष और महिलाओं के स्वतंत्र रूप से करने के विषय हैं इसलिए वे अलग ही ठीक हैं, ऐसा कहा जाता है। वेटिकन का कहना है कि पूरे विश्व में कैथोलिक महिलाओं के लिए ननों के संस्थान हैं जहां स्वतंत्र रूप से कोई कार्यक्रम चलाने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन प्रोटेस्टेंट समाज से बने उपपंथों ने महिलाओं को पंथाधिकारी के रूप में नियुक्त करना शुरू किया है।
एक तरफ पंथाचार्य सोचते हैं कि महिलाओं को उनकी उपासना, सेवा दर्शाने का अधिकार देना चाहिए, लेकिन प्रोटेस्टेंट अनुयायियों का मानना है कि यह अधिकार महिलाओं को दिया जाए तो पहले पहल तो यह ठीक लगेगा, लेकिन एकाध साल बाद आपस में झगड़े और ईर्ष्या बढ़ेगी। उनका मंतव्य यह नहीं कि महिलाएं एक जगह आएंगी तो उससे झगड़े बढ़ेंगे, पंथ के नाम पर स्त्री-पुरुषों के एकत्र आने से उपासना एवं सेवा का महत्व उतना नहीं रह जाएगा, बल्कि अपना काम ज्यादा दिखावटी करने और अपने काम से दूसरे को प्रभावित करने को अधिक महत्व मिलेगा। इसके अलावा एक और विषय इन दोनों पंथाचायोंर् को पीड़ा दे रहा है, जिससे उनके अस्तित्व को ही गंभीर चुनौती मिली है, वह है समलैंगिक संबंधों एवं समलैंगिक विवाहों को मान्यता देना। यह विषय यूरोप-अमरीका के हर देश एवं हर राज्य को उद्वेलित कर रहा है। इनसे जुड़े संगठनों का वर्चस्व इस कदर बढ़ा है कि वे लोग वहां की सरकारों को गिराने की तैयारी से ही बात शुरू करते हैं। यह समस्या विश्व के अन्य हिस्सों में भी है, लेकिन अत्यंत सीमित है। यूरोप-अमरीका में इन समस्याओं के बारे में कह सकते हैं कि जिन देशों ने पिछली चार-पांच सदियों तक अन्य देशों को लूटकर संपत्ति इकठ्ठी की है, उन देशों में यह समस्या बढ़ी है। गरीब देशों को इस तरह के शगल नहीं सुहाते हैं। यूरोप-अमरीका के कैथोलिक एवं प्रोटेस्टंेट मिशनरियों में भी यह समस्या काफी बढ़ी है।
मुद़्दे की बात तो यह है कि उन दो पीठाधीशों की चर्चा में जो बिन्दु आए वे उतने महत्वपूर्ण थे या नहीं। उनकी चर्चा के मुख्य मुद्दे थे 'गुलामी और दूसरे अनैतिक कामों के लिए पूरे विश्व में महिलाओं की बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त। यूरोप-अमरीका के पीठाधीशों ने इस विषय पर चर्चा की। यह ठीक ही हुआ। लेकिन 'पिछले 500 वषोंर् में विश्व की 100 करोड़ जनता पर गुलामी लादने वाले गुलामी पर ही चर्चा करें, यह साफ तौर पर आंखों में धूल झोंकने जैसा है, क्योंकि गुलामी का आरंभ ही ईसाइयों की आक्रामक भूमिका से हुआ था।
सन् 1492 में कोलंबस के अमरीका में जाने के बाद उनमें एक निश्चिंतता आई कि वहां के लोगों को गुलाम बनाया जा सकता है। बाद में वही प्रयोग अफ्रीका, एशिया एवं आस्ट्रेलिया में भी हुआ। वह चलन कहीं कम हुआ, तो कहीं वह कुछ सदियों तक चला। आज विश्व का अर्थतंत्र इस प्रताड़ना और यूरोप वालों की दादागिरी पर निर्भर है। भारत की दृष्टि से इसमें अहम मुद्दा यह है कि यहां बड़े पैमाने पर ईसाईकरण की प्रक्रिया कैथोलिक संगठनों ने चलाई हुई है। चौदह साल पहले पोप जॉन पाल द्वितीय की उपस्थिति में भारत के सभी कैथोलिक संगठनों के मिशनरियों ने ईसाईकरण बढ़ाने की कसम ली थी। आज देश के किसी देहात या शहरी हिस्से में कोई स्थान नहीं है जहां ये काम न चल रहा हो। भारत में लगभग पचास हजार पादरी इसके लिए काम करते दिखते हैं। इस देश को इस बात का संज्ञान जिस गंभीरता से लेना चाहिए था, उस गंभीरता से लिया नहीं गया। भारत में इस विषय के अनेक पहलू हैं। भारत की दृष्टि से इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां लंबे समय तक अंगे्रजों की सत्ता होने के कारण प्रोटेस्टेंट मत का प्रभाव काफी समय तक रहा। उस मत से निर्मित बैप्टिस्ट चर्च की कई चीजें ऐसी हैं जिनका असली नाता भारत से अधिक है। बैप्टिस्ट चर्च वह है जिसने नागालैंड में चीन की मदद लेकर अलग देश की मांग उठाई थी। उस इलाके में इस चर्च का अधिक प्रभाव है। हाल के वषोंर् में प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक, दोनों का भारत में काफी प्रभाव है और उनके काम जारी हैं। इसलिए पोप एवं चर्च ऑफ इंग्लैंड के आर्चबिशप का मिलना और उनकी आपसी चर्चा बहुत मायने रखते हैं।
पूरे विश्व में कुछ स्थानों पर इनका एक दूसरे से विरोध है तो कुछ स्थानों पर एक दूसरे से मिलकर काम जारी है। फिर भी उनके वर्चस्व की भूमि यूरोप व अमरीका में उनकी स्थिति क्या है, वह स्वाभाविक रूप से अधिक महत्व की बात है। इन दोनों स्थानों पर 'पंथ' और उसमें भी ईसाई पंथों को मानने वालों की संख्या तेजी से कम हो रही है। एक तरफ योग एवं आयुर्वेद के कारण हिंदू जीवनशैली से निकटता बढ़ रही है और वह लोगों को पसंद भी आ रही है। दूसरी तरफ आईटी क्रांति के कारण भारत पश्चिमी देशों को अपना समकक्ष मित्र लगने लगा है। इसी के साथ यूरोप व अमरीका में मुस्लिमों की संख्या पिछले दस वषोंर् में दुगुनी हुई है। अमरीका में 9/11 की घटना के बाद पहले दस वषोंर् की जनगणना में मुस्लिमों की संख्या दुगुनी होने से ईसाई जगत हिल गया है। रूस में सोवियत संघ के पतन के बाद मुस्लिमों की संख्या कहीं ढाई गुना तो कहीं साढ़े तीन गुना बढ़ी है। पूरे विश्व की स्थिति चाहे जो हो, अमरीका एवं यूरोप में प्रोटेस्टेंट्स की संख्या कम होना चर्च ऑफ इंग्लैंड के लिए गहरे सदमे की तरह है। पिछली सदी में दक्षिण अमरीका में प्रोटेस्टेंट्स की संख्या 50 हजार से 6़5 करोड़ तक पहुंची है। प्रतिशत की बात करें तो यह 13 प्रतिशत है। मैक्सिको, पेरू, उरुग्वे, ब्राजील, अल साल्वाडोर, कोस्टारिका, ग्वाटेमाला, साओ पाउलो जैसे देशों में इनकी काफी बढ़ोतरी हुई है। कैंटरबरी चर्च के प्रमुख एवं पोप, दोनों अपने पदों पर नए हैं यानी वे करीब डेढ़ वर्ष पूर्व ही अपने पदों पर बैठे हैं। पोप फ्रांसिस मूलत: दक्षिण अमरीका के हैं तो आर्चबिशप ऑफ कैंटरबरी मूलत: एक तेल व्यापारी हैं। पोप पद पर बैठने वाला व्यक्ति आजन्म ब्रह्मचारी होता है, जबकि आर्चबिशप ऑफ कैंटरबरी जस्टिन वेल्बी गृहस्थ हैं। वे लंबे समय तक अंतरराष्ट्रीय तेल व्यवसाय से जुड़े रहे थे। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति उनके अध्ययन का विषय है। आर्चबिशप वेल्बी व पोप की यह दूसरी मुलाकात थी। ऐसी मुलाकातों से प्रत्यक्ष रूप से कुछ मुद्दे की बात नहीं निकलती, लेकिन आने वाले वक्त का कुछ संकेत जरूर मिलता है। भारत में उन्होंने संयुक्त रूप से एवं विश्व के अन्य उग्रवादी गुटों की मदद से बड़े मोर्चे खोले हुए हैं, इस कारण इस मुलाकात का हमारी दृष्टि से निश्चित ही महत्व है। -मोरेश्वर जोशी
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