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शर्मा जी के मोहल्ले में संकटमोचन हनुमान जी का एक प्राचीन सिद्घ मंदिर है। कभी-कभी मैं भी वहां चला जाता हूं। एक दिन सत्संग में एक संत जी ने दुख और सुख की व्याख्या करते हुए कहा कि इनका संबंध बाहरी परिस्थितियों के बजाय मन की अवस्था से अधिक होता है। इसे समझाने के लिए उन्होंने एक कहानी सुनायी।
एक परिवार में पांच लोग थे। उसमें बड़े बेटे का नाम तो सुखराम था; पर वह सदा दुखी रहता था। इसलिए लोग उसे 'दुखराम' भी कह देते थे। वह अपनी छोटी बहिन से बहुत प्यार करता था। जिस दिन उस बहिन का रिश्ता तय हुआ, दुखराम कुछ ज्यादा ही दुखी हो गया। दादी ने पूछा, तो बोला – दादी, अब तक घर में हम पांच लोग थे; पर बहिना की शादी के बाद चार ही रह जाएंगे।
– इसमें दुख की क्या बात है ? इसकी शादी के बाद हम तेरी शादी भी तो करेंगे। इससे हमारे घर की संख्या फिर पांच हो जाएगी।
– पर दादी, आप भी 80 साल की हो गयी हो। साल-दो साल में आप ऊपर चली जाओगी। तब हम फिर चार रह जाएंगे।
– वहां तो सबको जाना ही है; पर तेरी शादी के बाद घर में बच्चे भी तो होंगे। इस तरह संख्या फिर पांच हो जाएगी।
दादी ने कई तरह समझाया; पर दुखराम का दुख नहीं मिटा। संत जी की बात से मुझे भारत के एक महान युवा नेता की बात ध्यान आयी। उन्होंने भी अपने भाषण में भूख और गरीबी को एक मानसिकता कहा था। मुझे लगा कि संत जी ने जो ज्ञान 75 वर्ष में पाया, वह नेता जी ने 44 साल में ही पा लिया। अत: मैंने शर्मा जी के साथ उनके दर्शन करने का निश्चय किया और उनके घर जा पहुंचे।
उन दिनों दिल्ली में उन्हीं की सरकार थी। अत: चमचों से लेकर कड़छी और पतीलों तक की काफी भीड़ थी; पर नेता जी मुंह पर दाढ़ी चिपकाये चुप बैठे थे। आखिर शर्मा जी ने ही बात शुरू की – नेता जी, लोग बहुत दुखी हैं। सब तरफ महंगाई, गुंडागर्दी और बेरोजगारी का माहौल है। सब आशा से आपकी ही तरफ देख रहे हैं।
– मैं क्या कर सकता हूंं ? कुर्सी पर तो मौनी बाबा बैठे हैं।
– पर उन्हें तो आपकी मम्मी जी ने ही वहां बैठाया है।
– हां; पर वे कहती हैं कि मेरा समय तो पूरा हो गया। अब जो करना है, तुम्हीं करो। इसीलिए तो मैं दुखी हूं।
यह कहते हुए नेता जी की आंखों में आंसू आ गये। शर्मा जी ने कल ही अपने पुराने पाजामे में से दो नये रूमाल बनवाये थे। उन्होंने एक रूमाल नेता जी को दिया और वापस हो लिये।
शर्मा जी को आशा थी कि लोकसभा चुनाव के बाद नेता जी का दुख कम होगा; पर चौबे जी चले थे छब्बे बनने, बेचारे दुब्बे भी नहीं रहे। गये थे नया सूट सिलवाने, दरजी ने कुर्ता-पाजामा भी रखवा लिया। बेचारे रात के अंधेरे में जैसे-तैसे वापस आये।
हम लोग फिर उनके घर गये। अब न चमचे थे और न कड़छी। नेता जी अकेले बैठे पतीला रगड़ रहे थे। दुख से उनका चेहरा पहले से भी अधिक लबालब था। शर्मा जी का गला भर्रा गया – नेता जी, हुआ तो बहुत बुरा; पर अब मौनी बाबा हट गये हैं। अब तो आप कुछ कर ही सकते हैं ? लोगों को आपसे बड़ी आशा है।
– मौनी बाबा तो हट गये हैं; पर उनकी जगह तूफानी बाबा भी तो आ गये हैं। बोलना तो दूर, मेरी तो उनके सामने जाने की भी हिम्मत नहीं है। इसलिए मैंने संसद में पीछे बैठने का निश्चय किया है। न जाने इस गरीब देश और इसकी बेचारी जनता का क्या होगा ?
नेता जी की आंखें एक बार फिर नम होने लगींं। शर्मा जी ने अपने पुराने पाजामे से बना दूसरा रूमाल भी उन्हें दे दिया।
मैं आज भी शर्मा जी के साथ था। मुझे याद आये वे संत जी, जिन्हांेने दुखराम की कहानी सुनाकर सुख और दुख का संबंध बाहरी परिस्थिति की बजाय मन की अवस्था से जोड़ा था।
नेता जी ने भी अब तक आंसू पोंछ लिये थे। उन्होंने पूछा – शर्मा साहब, इस दुख से उबरने का क्या कोई उपाय है ?
– बिल्कुल है। आप हमारे मोहल्ले के प्राचीन संकटमोचन हनुमान मंदिर की प्रतिदिन 11 परिक्रमा करें, तो निश्चित लाभ होगा।
यह सुनते ही नेताजी की आंखें फिर नम हो गयीं।
विजय कुमार
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