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लोकतंत्र के चार स्तंभों-कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और मीडिया के बाद स्वैच्छिक क्षेत्र को पांचवें स्तंभ का नाम दिया जाता है। भारत में सामाजिक कार्य के नाम पर देश और विदेश से ऐसे सामाजिक संगठनों को भरपूर पैसा मिलता है। मगर बात-बात पर झंडा उठाने वाले कुछ गिरोहों ने मानो व्यवस्था को ही ठप्प करने की ठान ली है। जमीनी सच्चाई यह है कि लाखों की संख्या में पंजीकृत ऐसी संस्थाएं रचनात्मकता और विश्वसनीयता की कसौटी पर खरी उतरती बहुत कम संख्या में दिखाई पड़ती हैं। सामाजिक जागरण और सामान्य व्यक्ति के कायाकल्प का दावा करने वाले ज्यादातर संगठन और संस्थाएं स्वार्थ और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबकर देश के निर्माण और विकास में कम अपने प्रचार और देश के विकास में बाधक ज्यादा दिखाई देते हैं। तथाकथित प्रगतिशील समाजसेवकों और सेविकाओं का यह गिरोह किसी मैगसायसाय पुरस्कार या प्रगतिशील मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हुए सनातन भारत की छवि पर प्रहार करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ऐसी संस्थाओं और इनके सरगनाओं को सेकुलर बिरादरी और वामपंथियों का वैचारिक समर्थन बराबर मिलता रहा है। हाल ही में देश की प्रमुख जांच एजेंसी द्वारा कई स्वैच्छिक संगठनों पर उठाये गए सवाल सामयिक एवं प्रासंगिक हैं। यह समय है जब अराजकता को थामना और नीति और नियमों के मामले में विदेशी दखल को रोकना देश की जरूरत है।
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