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'अतिथि देवो भव:' की परम्परा भारतीय संस्कृति की पहचान रही है, लेकिन आज यह परम्परा मनुष्य के साथ-साथ पक्षियों पर भी लागू हो रही है। भारत में रूस-साइबेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों की देखभाल के लिए जहां एक ओर विशेष इंतजाम किए जाते हैं, जैसे कि ओखला पक्षी विहार और दिल्ली के राष्ट्रीय प्राणी उद्यान (चिडि़याघर) में इन पक्षियों के लिए मछलियांे और केंचुओं से लेकर दाना डालने की व्यवस्था तक की जाती है, वहीं हमारा आत्मीय पक्षी गौरैया आज लुप्त होने के कगार पर पहंुच चुका है। भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी गौरैया की संख्या में तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही है। आज गैर सरकारी संगठनों के साथ सरकारी एजेंसियां गौरैया को बचाने के लिए जागरूकता अभियान से लेकर 'वर्ल्ड स्पैरो डे' का आयोजन कर रही हैं। लेकिन हमारी बदलती जीवनशैली व शहरीकरण ने इस पक्षी के प्रजनन पर मानो रोक सी लगा दी है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गौरैया का गायब होना मानव के लिए किसी खतरे से कम नहीं है।
दिल्ली सरकार ने वर्ष 2012 में गौरैया को राज्य पक्षी घोषित कर दिया और इस घरेलू पक्षी की संख्या में लगातार गिरावट को देखते हुए 20 मार्च का दिन विश्व गौरैया दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। दरअसल 10 हजार वर्षों से गौरैया मनुष्य से जुड़ी हुई है। गौरैया का भोजन और रहन-सहन हमारे ऊपर काफी हद तक निर्भर था, लेकिन बदलते परिवेश और शहरीकरण ने गौरैया ही नहीं, बल्कि दूसरे पक्षियों के लिए भी खतरे की घंटी बजा दी है। गौरैया पूरे विश्व का सामान्य पक्षी है जिसे अंग्रेजी में 'कॉमन बर्ड' कहा जाता है। करीब दो दशक पहले की बात करें तो हमारे घर की रसोई में बर्तनों पर बैठकर भोजन जुटाना और घरों में रखी झाडू से तिनका-तिनका जुटाकर अपना घरौंदा बनाना आम था, लेकिन खेत-खलिहान की जगह जैसे-जैसे बिल्डरों द्वारा फ्लैट बनाने का दौर शुरू हुआ, ये पक्षी हम सभी से दूर होता चला गया। आज स्थिति यह आ चुकी है कि रोजाना जो गौरैया नामक चिडि़या अपनी चहचहाहट से सुबह-शाम सभी को प्रकृति से जुड़े होने का अहसास कराती थी, वह हम लोगों को महीने या साल में ही मुश्किल से दिखाई पड़ती है।
पक्षी वैज्ञानिक डा. अशोक कुमार मल्होत्रा बताते हैं कि गौरैया सबसे अधिक दिखने वाला पक्षी था, जिसकी संख्या अब घटकर लाखों से सैकड़ों में पहुंच चुकी है। उन्होंने बताया कि आने वाले समय में कबूतर और कौवे की भी यही स्थिति हो सकती है। उन्होंने बताया कि पहले रसोई या दूसरी जगह गंदे बर्तनों से गौरैया अपना भोजन प्राप्त कर लेती थी। इसके अलावा उन्हें पार्क आदि से घोंसले बनाने के लिए पर्याप्त तिनके और घास उपलब्ध हो जाती थी। लेकिन शहरीकरण की वजह से फ्लैट सिस्टम चालू हो गया जिसमें घर खुले होने की बजाय बंद रहने वाले बनने लगे। घरों की बनावट ऐसी हो गई कि परिंदा भी अब उनके भीतर पर नहीं मार सकता है। वहीं गंदा या बचा भोजन घरों से खुले में न डालकर बंद थैलियों में फेंका जाने लगा। इससे भोजन पक्षियों की पहंुच से बाहर हो गया। सड़क पर चलने वाले ढाबों की जगह होटलों और रेस्तरांओं ने ले ली। साथ ही पेड़ कम हो गए और पार्क की संख्या घटने व उनमें विशाल पेड़ न होने से पक्षियों के सामने घोंसला बनाने की समस्या भी विकराल हो गई, राजधानी में जो पार्क हैं, उनकी हालत भी ज्यादा अच्छी नहीं होती है। इन कारणों से गौरैया जैसे पक्षी ने धीरे-धीरे दिल्ली जैसे शहर से बाहर की ओर अपना रुख कर लिया। इन्हीं कारणों से दिल्ली में गौरेया को राज्य पक्षी का दर्जा दिया गया। उन्होंने बताया कि बिजली या टेलीफोन के खंभे भी भूमिगत लाइन बिछाए जाने से कम होते चले गए जिनमें पहले पक्षी अपना घोंसला बना लिया करते थे। भोजन और घोंसले के अभाव के कारण इन पक्षियों की प्रजनन शक्ति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा। अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लोग पक्षियों को दाना डालते हैं या पानी भरकर रखते हैं, वहां कुछेक गौरैया दिख जाती हैं, वरना कबूतर की संख्या अधिक रहती है।
गौरैया के संरक्षण के लिए दिल्ली में इसे 'राज्य पक्षी' का दर्जा दिलाने व 'वर्ल्ड स्पैरो डे' की शुरुआत कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले गैरसरकारी संगठन 'नेचर फॉरएवर सोसाइटी' के संस्थापक मो. दिलावर बताते हैं कि वे पिछले आठ वर्षों से गौरैया पर देश-विदेश में कार्य कर रहे हैं। इसके लिए न केवल जागरूकता लाई जा रही है, बल्कि समय-समय पर वन क्षेत्रों में अभियान चलाकर छात्रों और लोगों को गौरैया बचाने के प्रयास में शामिल किया जा रहा है। विश्व गौरैया दिवस पर छात्रों से चित्रकला बनवाने के साथ-साथ लोगों से इन पक्षियों के लिए पानी भरकर रखने और घोंसले तैयार कराने की अपील की जाती है। उन्होंने बताया कि गौरैया का लुप्त होना मानव के लिए कोई सामान्य घटना नहीं है, यह भविष्य में एक बड़े खतरे का सूचक है। गौरैया का क्योंकि मनुष्य के साथ 10 हजार साल पुराना रिश्ता है। आज भारत समेत विश्व के 50 से अधिक देश गौरैया बचाओ अभियान का हिस्सा बन चुके हैं। उन्होंने बताया कि कभी 'कॉमन बर्ड' में पहले पायदान पर आने वाली गौरैया की जगह क्रमश: कबूतर, कौवा और मैना अपनी जगह बना चुके हैं। गौरैया का महत्व बताते हुए उन्होंने कहा कि यूरोप के जिन देशों में आज भी गौरैया का अस्तित्व है, वहां के लोग खुशहाल हैं और जहां से ये गायब हो रही हैं, वहां हालात दिन-प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे हैं। दिलावर कहते हैं कि खेतों में अब फसल की कटाई भी नई तकनीक की मदद से एक या दो दिनों में पूरी हो जाती है। इससे खेतों में जत्था बनाकर दाना खाने के लिए पहुंचने वाले पक्षियों के भोजन की समस्या खड़ी हो गई है। पहले फसल कटाई के मौसम में पक्षी मीलों-मील दूरी पर जाकर अपना बसेरा बनाते थे, लेकिन आज मशीनी युग में उनके लिए खुले सभी रास्ते बंद होते जा रहे हैं। यही नहीं पिछले दो दशक में जगह-जगह लगने वाले मोबाइल टावरों ने भी गौरैया जैसे सामान्य पक्षी को कम करने में विष के समान कार्य किया है। मोबाइल टावरों से निकलने वाली किरणों की वजह से गौरैया आदि छोटे पक्षी की प्रजनन शक्ति नष्ट या न के बराबर हो गई। चील जैसा बड़ा पक्षी ही इसे मुश्किल सहन कर पाता है। उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश में तो 80 फीसदी तक गौरैया लुप्त हो चुकी हैं। वहीं यूके बर्ड मॉनिटरिंग प्रोग्राम की रपट के अनुसार शहरों में 60 फीसदी तक गौरैया गायब हो चुकी हैं।
नाम अनेक पहचान एक
भारत में गौरैया को विभिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। ओडिशा में घरा चतिया, केरल और तमिलनाडु में कुरुवी, पंजाब में चिरी, पश्चिम बंगाल में चराई पखी, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में गौरैया, आंध्र प्रदेश में पिछुका, जम्मू-कश्मीर में चइर, गुजरात में चकली, महाराष्ट्र में चिमानी और कर्नाटक में गुब्बाचाची।-इन्द्रधनुष डेस्क
गौरैया को बचाने की मुहिम में जुटे युवक
कुरुक्षेत्र:आज के इस समय में जब हर कोई अपने ही स्वार्थ को पूरा करने की कोशिश में है, कुछ ऐसे लोग भी हैं जो दूसरे का दुख: दर्द समझकर उसे कम करने की कोशिश में लगे रहते हैं। मानव जाति की मदद के लिए तो कई हाथ आगे आ जाते हैं लेकिन बेजुबानों को सहारा देकर उन्हें सुविधा देने वाले चंद ही लोग हैं। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के छात्र विकास सिंहमार व उनके साथी ऐसे ही कुछ युवाओं में हैं,जिन्होंने गोरैया के लुप्त होने के दर्द को समझा और उसके कारणों को पहचाना। उनका कहना है कि खेतों में डाले जाने वाले कीटनाशकों और लगातार हो रही वृक्षों की कटाई के कारण पक्षियों को बैठने का स्थान ही नहीं मिलता, जिससे यह मानव मित्र प्रजाति खत्म हो रही है। सिंहमार कई वर्षों से इस मिशन को सफल बनाने में जुटे हुए हैं और उन्हें सार्थक परिणाम भी मिले हैं। वे गोरैया के लिए घरों के बाहर या जहां भी सुरक्षित हो वहां ऐसे घोंसले लगाते हैं जिनमें गौरैया आसानी से प्रवेश कर जाती है और कोई बड़ा पक्षी उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाता।
सिंहमार ने बताया कि इस कार्य के लिए उन्होंने पर्यावरण मित्र समूह नाम से संस्था बनाई है जो समय-समय पर लोगों को जाकर जागरूक करती है और पक्षियों को बचाने के लिए मौसम के अनुकूल कार्य करने की सलाह देती है। इसमें गर्मी के समय घर के बाहर छाया में पानी व दाना उपलब्ध कराने का कार्य भी है और वे हर प्रकार के पक्षी का आशियाना उसी के अनुसार उपलब्ध कराते हैं। इस कार्य में मनप्रीत, हरसन मल्ली, हन्नी मेहता, यश गुलाटी, नीतिन, क्षितिज, कर्मवीर व संस्कार चेतना पत्रिका के संपादक केवल कृष्ण भी सहयोग कर रहे हैं। -प्रतिनिधि
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