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भारत की दूसरी सबसे बड़ी सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी इंफोसिस ने कहा है कि विशाल सिक्का उसके अगले मुख्य कार्यकारी अधिकारी और प्रबंध निदेशक (सीईओ और एमडी) होंगे। सिक्का इससे पहले सॉफ्टवेयर और उससे जुड़ी सेवा देने वाली जर्मनी की कंपनी एसएपीएजी के कार्यकारी बोर्ड में थे और उनसे कुछ पहले ही राजीव सूरी नोकिया के सीईओ बने और सत्या नडेला को बिल गेट्स ने अपनी माइक्रोसॉफ्ट का सीईओ नियुक्त किया। इन तीनों में गजब की समानताएं हैं। इनमें से कोई भी आईआईटी या आईआईएम जैसे संस्थानों से नहीं है। यानी कि प्रतिभा आईआईएम और आईआईटी से बाहर भी हैं,आप खोजिए तो सही ।
किसी संस्थापक को नहीं चुना
यूं तो भारत के कई पेशेवर मल्टीनेशनल कंपनियों के शिखर पर पहुंचते रहे हैं, पर सिक्का, सूरी और सत्या के मामले कुछ अलग हंै। ये सिर्फ अपनी मेधा के बल पर शिखर तक पहुंचे हैं। दरअसल भारतीयों में कठिन परिस्थितियों में काम करने की गजब की क्षमता है । बहरहाल, अब वक्त की मांग है कि भारतीय कंपनियों को अपने सीईओ के चयन के दौरान अन्य देशों के पेशेवरों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। ये बात खासतौर पर उन कंपनियों पर तो लागू होती ही है,जिनका कारोबार वैश्विक स्तर पर हो रहा है। निश्चित रूप से विशाल सिक्का,राजीव सूरी तथा सत्या नडेला के उदाहरणों को इंडिया इंक को देखना होगा। संदेश साफ है कि मेरिट से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता। माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स ने सीईओ के ओहदे पर अपने किसी परिवार के सदस्य को नहीं नियुक्त किया। उन्हें सत्या में प्रतिभा दिखी,तो उन्हें सौंप दी गई इतनी अहम जिम्मेदारी।
आपको याद होगा कि इंफोसिस की प्राण और आत्मा एऩ नारायणमूर्ति ने पहले ही कह दिया था कि इंफोसिसस को अब किसी बाहरी को अपना सीईओ बनाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हां, ये तो मानना पड़ेगा कि जो नोकिया और माइक्रोसॉफ्ट ने करके दिखाया, उसे रतन टाटा और एऩ नारायणमूर्ति करने से चूक गए। नारायणमूर्ति के कुशल नेतृत्व गुणों के चलते ही इंफोसिस आईटी सेक्टर की शिखर कंपनी बनी। इसके दो दर्जन से ज्यादा देशों में ॲाफिस हैं। रतन टाटा के बारे में कुछ भी कहना सूरज को दीया दिखाने के समान है। स्टील से लेकर आईटी और होटल से लेकर ऑटो सेक्टर से जुड़े टाटा समूह को उनके लगभग दो दशकों के नेतृत्व से नई ऊर्जा और पहचान मिली। पर, अफसोस ये दोनों ही नजीर बनाने से चूक गए। क्या सिक्का,सूरी और सत्या ने कभी सोचा होगा कि वे भी इंदिरा नूई (पेप्सिको),विक्रम पंडित
( सिटीग्रुप), अंशु जैन (ड्यूश बैंक) शांतनु नारायण (एडोबसिस्टम्स), फ्रांसिस्को डिसूजा (काग्निजेंट),अजय बंगा (मास्टर कार्ड) संजय झा( ग्लोबल फाउन्ड्रीज) वगैरह की तरह किसी मल्टीनेशनल कंपनी के सीईओ बनेंगे? बेशक हां क्योंकि ये अमरीका या पश्चिमी देशों में काम कर रहे थे, वहां प्रतिभा को परिवार से ज्यादा अहमियत दे रहे हैं, इसलिए ही ये शिखर पर पहुंचे।
इन तीनों के बारे मे कहा जाता है कि उनमें इंजीनियरिंग कौशल, व्यापारिक दूरदर्शिता और लोगों को एक साथ लाने की काबिलियत कमाल की है। बेशक,इनमें ये सारे गुण तो होंगे ही तब ही तो वे इतनी अहम कंपनियों के सीईओ बने।
मैनेजमेंट के सेमिनारों में बार-बार यह कहा जाता था कि भारतीय प्रबंधक कितने सक्षम हैं तर्क दिया जाता था कि सिर्फ भारतीय ही भारत की समस्या समझ सकते हैं। अब देखिए कि इंडिया इंक कितनी तेजी से बदलता है। दरअसल,भारत के हवाले से देखा जाए तो यहां पर हरेक कंपनी के लिए अपना सक्सेशनप्लान तैयार करना सबसे कठिन होता है। ये कहीं न कहीं भूल जाते हैं कि सक्सेशनप्लान हर कंपनी को मौका देते हैं कि वे अपने को इस तरह की कंपनी के रूप में खड़ा करें जहां पर आगे बढ़ने का एकमात्र मापदंड प्रतिभा हो,पर अफसोस कम से कम भारत में यह नहीं होता।
अध्ययन में अहम निष्कर्ष सामने आए। पहला, सिर्फ 30 फीसद फैमिलीबिजनेस दूसरी पीढ़ी तक चलते हैं, 12 फीसद तीसरी पीढ़ी तक और सिर्फ तीन फीसद चौथी पीढ़ी तक। फैमिली कंपनियों के बिखरने की वजह इनका लचर सक्सेशनप्लान माना गया। दरअसल, कायदे से देखा जाए तो किसी भी कंपनी या समूह को अपने सक्शेसनप्लान पर काम करते वक्त यह देखना चाहिए कि जो भविष्य में नेतृत्व करेगा उसके पास प्रशासन, फाइनेंस,ग्राहक हितों, सेल्ज और मार्केटिंग की कितनी समझ है। बहरहाल, इतना तय है कि बदली हुई दुनिया में सिक्का,सूरी और सत्या जैसे उदाहरण खूब देखने को मिलेंगे। यानी प्रतिभा की अनदेखी नहीं होगी। – विवेक शुक्ला
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