|
भारत जीवमान राष्ट्रपुरुष है, संस्कृति इसका व्यक्तित्व तथा इतिहास इसका कृतित्व है। भारत के अध्यात्म, धर्म तथा सांस्कृतिक जीवन मूल्यों में इतिहास का दिशाबोध तथा इसका आधार निहित है, परन्तु यह भी कटु सत्य है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहासकारों एवं ईसाई मिशनरियों, मुस्लिम चाटुकार, धनलोभी एवं दरबारी लेखकों, मार्क्स के चहेतों व नकलचियों तथा वर्तमान तथाकथित सेकुलरवादियों ने भारतीय इतिहास के ऐतिहासिक तथ्यों एव्र प्रमाणों को धत्ता बताकर समय-समय पर अपने व्यक्तिगत तथा राजनीतिक स्वार्थ के चलते इतिहास के मनमाने निष्कर्ष निकाले हैं। इन्होंने भारत का दुराग्रह पूर्व वैकल्पिक इतिहास गढ़ा, जिससे भारतीयों में हीनता, दीनता तथा मानसिक गुलामी की भावना सतत बनी रहे, जिससे भारत आज भी मुक्त नहीं है। भारत के नागरिकों का यह सोचना भी स्वाभाविक था कि अंग्रेजों द्वारा लिखे भ्रमित, विकृत तथा झूठे इतिहास से तुरंत मुक्ति मिलेगी। विश्व के अनेक देशों- ग्रीक, जर्मनी, रूस, कनाडा आदि के उदाहरण सामने हैं जिन्होंने इस ओर अपनी स्वतंत्रता के पश्चात प्रयत्न किये। अभी हाल में ही 1997 में एक छोटे से देश हांगकांग ने ब्रिटिश शासन से मुक्त हो, अपना सही इतिहास लिखा।
परन्तु भारतीय जनमानस की आस्थाओं, आकांक्षाओं के विपरीत इतिहास की दिशा को बदलने के उच्च स्तर पर प्रयत्न हुए। पं. नेहरू के नेतृत्व में भारतीय संस्कृति के स्थान पर मिश्रित संस्कृति तथा भारतीय जीवन की प्राणवायु-धर्म, ईश्वर, आत्मा सांस्कृतिक जीवन मूल्य-इतिहास के पन्नों से गायब कर दिये गए। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के स्थान पर पाश्चात्य दर्शन, भौतिकवाद पर आधारित राजनीतिक राष्ट्रवाद हावी हो गया। देश के संविधान को भी भारतीय संस्कृति तथा उसके अतीत से काट दिया गया। इतिहास राजनीति की दासी बन गया। एक उदाहरण देना तर्कसंगत होगा। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में कांग्रेस के कार्यों को महिमामंडित करने के लिए सरकारी स्तर पर एक इतिहास लेखन की योजना बनी। यह कार्य भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार डा. आर सी मजूमदार को दिया गया, जो सर्वथा सही था। इतिहास लेखन की प्रक्रिया के बीच में पं. नेहरू को जानकारी मिली कि इसमें सुभाष चन्द्र बोस को महत्वपूर्ण स्थान दिया जा रहा है, डा. मजूमदार से यह योजना छीन ली गई तथा यह कार्य डा. ताराचन्द को दिया गया, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे थे तथा उन्हें वहां के छात्र मियां ताराचन्द भी कहते थे। स्वाभाविक है कि हिन्दू प्रतिरोध तथा मुसलमानों की महिमा एवं गुणगान को महत्व मिला। इसी प्रकार का दूसरा प्रसिद्ध प्रसंग श्रीमती इन्दिरा गांधी के शासनकाल का है जब उनके परिवार को महिमामंडित करने के लिए जमीन में इतिहास-कैप्सूल गाड़ा। शीघ्र ही उसने भारतीय कम्युनिस्टों से मिलकर भारतीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकों को विकृत करने में कोई कमी न रखी। राजीव गांधी ने अपनी नई शिक्षा नीति में राष्ट्रीय आन्दोलन को पढ़ाने पर विशेष बल दिया। पिछले दस वर्षों में भारत के शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह ने सांस्कृतिक तथा राष्ट्रबोधक तत्वों को हटाने का पूर्ण प्रयत्न किया। विद्यालयों में प्रारंभ में देश प्रार्थना, योग व्यायाम विशेषकर सूर्य नमस्कार तथा वन्देमातरम का राष्ट्रीय गीत सरकारी स्तर पर ऐच्छिक किए गए अथवा हटा दिये गये। कपिल सिब्बल के 100 दिन की शिक्षा योजना, विदेशी विश्वविद्यालयों की भारत में दुकानें खोलने के प्रयासों का न केवल राष्ट्रीय नेताओं ने बल्कि उनके दल के विद्वानों ने भी खिल्ली उड़ाई। (देखें मेल टुडे 12 जुलाई 2009) उसे शिक्षा जार कहा गया। स्वाभाविक है कि केन्द्र के संकेतों तथा दृष्टि में ध्यान रख विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों-राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र तथा मुख्यत: इतिहास में अपने-अपने प्रांतों में बड़े स्तर पर कांट-छांट की गई। राजस्थान में 2009 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा वहां के शिक्षा बोर्ड द्वारा भारतीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में 'भगवाकरण' से मुक्त करने के प्रयत्न हुए। इससे पूर्व की इतिहास पुस्तकों में (2004-2008) उन्हें अनेक दोष लगे। अत: कक्षा 9 से कक्षा 12 तक की राजनीतिक विज्ञान, समाजशास्त्र तथा इतिहास की 11 पुस्तकों में कांट-छांट के आदेश दिये गये। उदाहरणत: पुस्तकों से राष्ट्रभक्तों डा. हेडगेवार, दीनदयाल उपाध्याय तथा वीर सावरकर के जीवन चरित्रों को हटाने को कहा गया।
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान के संदर्भ में मदनमोहन मालवीय तथा डा. हेडगेवार से संबंधित सामग्री हटा दी गई। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता वि.वा. शिखाड़कर की कविता 'सर्वात्मका सर्वेक्षण' को इसलिए पुस्तक से हटाया गया क्योंकि उसमें शिवाजी द्वारा अफजल खां को मारने का वर्णन था।
बंगाल, त्रिपुरा तथा केरल में तो कम्युनिस्ट शासन होने के कारण सरकार द्वारा इतिहास का पाठ्यक्रम साम्यवादी प्रचार का मुख्य अस्त्र बना। इतिहास की पुस्तकों में श्रमिक आन्दोलन, कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास, लेनिन व स्टालिन की जीवनी, पढ़ाई जाने लगी। 11वीं कक्षा के छात्रों को 30 पृष्ठों में 1917 की रूसी क्रांति पढ़नी पड़ी। अनेक इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं, 1989 ई. में बंगाल सरकार द्वारा निर्देश दिया गया कि किसी भी पुस्तक में इस्लामी क्रूरता का वर्णन तथा साथ ही मुसलमानों द्वारा जबरदस्ती मतान्तरण की बात नहीं होनी चाहिए। हिन्दू मंदिरों के ध्वंस का वर्णन नहीं होना चाहिए।
स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय इतिहास में अनेक भ्रांतियां, मनमाने निष्कर्षों तथा इतिहास को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने का नेतृत्व किया, कांग्रेस सरकार के समर्थन से नियुक्त भारतीय वामपंथी तथा सेकुलरवादी इतिहासकारों ने। वरिष्ठ पत्रकार और राजनेता श्री अरुण शौरी ने इन्हें इमीनेन्ट हिस्टोरियन्स कहा। यदि केवल 2006 से प्रचलित पाठ्यक्रम पर दृष्टि डालें तो सरकार तथा इसके लेखकों की मानसिकता की जानकारी मिलती है। पाठ्यक्रम तथ्यगत कम तथा पूर्वाग्रहों से ग्रसित ज्यादा है। इसमें भारत के गौरवमय अतीत को गौण, मुस्लिम आक्रमणकारियों का महिमामंडन तथा भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का एकाकी, अधूरा तथा अधकचरा वर्णन है। भारतीय इतिहास की कालगणना को मनमाने ढंग से तथा इतिहास की अनेक प्रसिद्ध घटनाओं को गायब या काट-छांट दिया गया है। अनेक बार प्रश्न उठता है कि इसे इतिहास कहा भी जाये या नहीं।
यदि कक्षा 6 के पाठ्यक्रम पर दृष्टि डालें तो निश्चय ही लगेगा, यह ज्ञान की स्पष्टता के स्थान पर भ्रम तथा सन्देह की स्थिति पैदा करता है। इसका प्रारंभ ही संभवत: से होता है तथा इसमें संभव है, सामान्यत: ऐसा प्रतीत होता है, जानकारी मिलना कठिन है, ऐसा लगता है, ऐसा भी हो सकता है आदि शब्दों की भरमार है। ब्रिटिश इतिहासकारों की भ्रांत धारणा के अनुसार इतिहास का प्रारंभ हडप्पा सभ्यता से किया गया है। नवीनतम खोजों के विपरीत इस सभ्यता का ध्वंस आक्रमण से बताया गया है। लेखक के अनुसार भारत शब्द इस देश के उत्तर पश्चिम से ही समझा जाता है, वेद, सिन्धु नदी के किनारे लिखे गये, बालकों पर वामपंथी चिन्तन थोपते हुए भारत के ग्रामीण समुदायों तथा उनके निर्णयों को पक्षपातपूर्ण बतलाया गया है, वैदिक संस्कृति एवं समाज का वर्णन नहीं है। राम, कृष्ण, चन्द्रगुप्त मौर्य, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, हर्षवर्धन जैसे शासकों को इतिहास से निकाल दिया गया है। वेदव्यास, बाल्मीकि तथा आदि शंकराचार्य का नाम तक नहीं दिया गया है। पर ताज्जुब है कि बालकों को 2000 वर्ष पहले फ्रांस की अवस्था, तुर्की का इतिहास, मिश्र के पिरामिडों, प्राचीन ग्रीक तथा एथेन्सिक नगरों, ईरान के जोरस्टिर एवं अवेस्ता की कहानी रोमनगर, ईसामसीह के जन्म एवं बाइबिल तथा अरब में इस्लाम का उदय पढ़ाया जा रहा है। कक्षा सात की पुस्तक में इतिहासकार ने बेतुके तर्क देकर मुस्लिम शासकों का यशोगान किया है। इसमें मुख्यत: भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों को महिमामंडित किया गया है। क्या किसी भी इतिहास पाठक को महान आश्चर्य न होगा कि पुस्तक में आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम का वर्णन तो है पर जिस पर आक्रमण हुआ उस साहसी तथा वीर राजा दाहिर का नाम तक नहीं है। इसी भांति महमूद गजनवी का यशोगान है, पर जिन्होंने संघर्ष किया- आनन्दपाल जैसे का नाम नहीं, मोहम्मद गौरी का वर्णन है पर पृथ्वीराज चौहान का नाम तक नहीं, क्रूर बाबर का नाम है पर राणा सांगा का नहीं। साम्राज्यवादी अकबर का वर्णन है पर उससे टक्कर लेने वाली रानी दुर्गावती, हेमचन्द विक्रमादित्य तथा महाराणा प्रताप का पुस्तक में नाम भी नहीं दिया गया है। औरंगजेब का यशोगान कर शिवाजी को केवल डेढ़ पंक्ति में दिया गया और वह भी नकारात्मक वर्णन है। पानीपत की तीसरी लड़ाई का नाम तक नहीं है। विश्व के इतिहास में क्या किसे देश में ऐसा खिलवाड़ दिखाई देगा। इसी भांति कक्षा 12 के मध्यकालीन सन्दर्भ में मुगल शासन को एक आदर्श राज्य बताया गया है। शाहजहां तथा औरंगजेब को हिन्दू मंदिरों का अनुदान दाता बतलाया गया है। कक्षा सात की पुस्तकों में भी चीन के लागवंश, आटोमन राजा रानियों की जानकारी, 12वीं शताब्दी में फ्रांस में चर्च की स्थिति, मार्टिन लूथर के सुधार, फ्रांस की क्रांति का वर्णन है। छात्रों को अमीर खुसरो, मिनहाज सिराज, इब्नबतूता, आइने अकबरी, कुतुब-ऐ-जहांगिरी आदि के लम्बे-लम्बे उदाहरण देकर जान बूझकर पृष्ठों की संख्या बढ़ाई गई है ताकि सरकारी खजाने से ज्यादा मानधन बटोरा जा सके।
कक्षा आठ की पुस्तकों में प्राय: वामपंथी चिन्तन को अपनाया गया है। 1857 के महासमर को 'विद्रोह' बताया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तथा नाना साहेब को स्वार्थी कहा है। पंजाब तथा दक्षिण भारत में, नवीन खोजों के विपरीत संघर्ष को शांत बतलाया है। भारत में हुए अनेक सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलनों का या तो वर्णन ही नहीं किया, यदि किया तो नाममात्र का। देश के अनेक राष्ट्रीय नेताओं के योगदान को अत्यधिक सीमित कर लिखा गया है। लेखक ने राष्ट्रीय आन्दोलन में क्रांतिकारियों के योगदान को बिल्कुल नकार दिया है। केवल सरदार भगतसिंह का वर्णन आधे पृष्ठ में दिया है। सुभाष चन्द्र बोस तथा आजाद हिन्द फौज का वर्णन नाममात्र का है। स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविंद, बंकिम चट्टोपाध्याय, भगिनी निवेदिता, लाला हरदयाल आदि को राष्ट्रीय आन्दोलन से जानबूझकर दूर रखा है, पर कहीं भी स्वतंत्रता आन्दोलन में भारतीय कम्युनिस्टों की काली करतूतों, 1942 में ब्रिटिश छद्मवेशी गुप्तचर की उनकी भूमिका, पाकिस्तान के निर्माण में उनके योगदान का जरा भी वर्णन नहीं है।
यह निश्चित है कि तथ्यों तथा प्रमाणों पर आधारित इतिहास को छोड़कर, मनमाने ढंग से इतिहास गढ़ने से न भारत की भावी पीढ़ी प्रबुद्ध होगी, न ही भारत राष्ट्र उन्नत तथा सबल होगा। इससे देश में विभेदकारी एवं विघटनकारी प्रवृत्तियों को ही प्रोत्साहन मिलेगा। किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि तथ्यों पर आधारित पाठ्यक्रम भावी पीढ़ी के चिन्तन का आधार तथा अन्ततोगत्वा राष्ट्रहित, राष्ट्र निर्माण तथा राष्ट्र की सुदृढ़ता का मेरुदण्ड होता है। प्राइमरी कक्षा से विश्वविद्यालय स्तर तक भारतीय इतिहास का पाठ्यक्रम, भारत के अतीत से जुड़ा, वर्तमान के लिए उपयोगी तथा राष्ट्रोत्थान के लिए भावी दृष्टि देने वाला होना चाहिए। मैकाले, मार्क्स की जूठन से देश की भावी पीढ़ी उन्नत न हो सकेगी। भारत के एक प्रसिद्ध विद्वान ने यह सही लिखा है कि विश्व की प्राचीनतम संस्कृति के उत्तराधिकारी होकर भी हम आत्महीन हैं। सो एक सच्चा सांस्कृतिक इतिहास-बोध स्वराष्ट्र की अपरिहार्यता है, आधुनिकता तथा समकालीनता की चाहत के रहते हुए भी इसी में राष्ट्रोत्थान के बीज छिपे हैं। -डा. सतीश चन्द्र मित्तल
टिप्पणियाँ