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साल 1975। भीषण गर्मियों की 25-26 जून के बीच की रात। करीब 12.15 बजे। दरवाजे पर जोर की दस्तक। घर के सब लोग हड़बड़ाते हुए उठते हैं। दरवाजा खोलते ही चार-पांच पुलिस वाले धड़धड़ाते हुए अंदर आते हैं। बिना कोई वजह बताए, घर के मुखिया को 'सुबह आ जाएंगे' कहकर साथ लिवा ले जाते हैं। सुबह से दोपहर होने पर चिंतित पत्नी अपने बच्चों को साथ ले पूछती-पाछती वहां के थाने पहंुचती है तब माजरा समझ आता है कि उसके पति पर डीआईआर धारा के तहत मुकदमा चलाया जाएगा, जेल में रखा जाएगा। इधर पुलिस के कारिन्दे घर के बर्तन-भांडे से लेकर टूटी चारपाई तक कुर्क करके ले जाते हैं। पूरा घर सांय सांय करने लगता है। परिवार पर एकाएक दुख का पहाड़ टूट जाता है। पड़ोसियों की कनखियों और तानों को अनदेखा-अनसुना कर भी दें तो भी, घर कैसे चलेगा, इसकी चिंता मां की नींदें उड़ा देती है। पति कब छूटेंगे, दो वक्त के राशन का जुगाड़ कैसे होगा, आदि आदि।
आफत के उस काल में ढाढस बस इतना कि हफ्ते में दो बार बच्चों के साथ तिहाड़ जाकर वहां राजनीतिक कैदी के रूप में कैद अपने पति से कुछ पल मिल पाना। या फिर पेशी के लिए लाए जाने पर शाहदरा कोर्ट के बाहर धूप में घंटों बैठकर जेल से आने वाली उस नीली गाड़ी का इंतजार करना और उसके आने पर हथकडि़यां पहने अपने पति को कोर्ट के अंदर ले जाए जाते वक्त कुछ फर्लांग तक देख पाना।
दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में बदलते गए। उस वक्त की भारत की सरकार का दमन बढ़ता गया। 'इमरजेंसी'का स्याह काल अपनी पूरी रौ में था। संगठित जनशक्ति से भीतर तक डरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हर उस शख्स को जेल में डलवा देती थीं जिससे उन्हें अपनी कू्ररता को चुनौती का खतरा होता, हर उस आवाज का गला घोंट देतीं जिसमें उनके विरोध के स्वर आभासित होते। विरोधी दलों के अलावा रा. स्वयंसेवक संघ के हजारों कार्यकर्ताओं को बंदी बनाया गया। कितने ही परिवार दानवता के उस कू्रर प्रदर्शन से आहत हुए थे। और यह कहानी राजधानी दिल्ली ही नहीं, देश के तमाम शहरों, जनपदों, तहसीलों, कस्बों, गांवों, मोहल्लों में दोहराई जा रही थी। आज की पीढ़ी को शायद उस कालरात्रि की भयावहता का अंदाजा न हो, पर जिसने उसे भोगा है वह कितना भी करे, तो भी उसे शब्दों में पूरा बयां नहीं कर सकता। इस आयोजन में हम देश के अनेक हिस्सों से ऐसे ही कुछ चुनिंदा संस्मरण प्रकाशित करके लोकशाही की बहाली के लिए हुए उस जनांदोलन को एक बार फिर से याद कर रहे हैं। -पाञ्चजन्य ब्यूरो-
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