मौलाना मोहम्मद अली द्वारा 1928 में लिखी और काफी चर्चित पुस्तिका है 'इस्लाम- द रिलीजन ऑफ ह्यूमैनिटी'। ऐसी पुस्तकों में दिखलाई गई इस्लामी मानवता की गुलाबी तस्वीर को आज इराक की खून से रंगी सड़कें चुनौती दे रही हैं। अपने ही मजहबी भाई-बंदों को काटता-कुचलता, 'इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवांत' (आईएसआईएल) का आतंकी जत्था राजधानी बगदाद की ओर बढ़ रहा है। अत्याधुनिक हथियारों से लैस इन पगलाए आतंकियों का पोसने वाला 'अदृश्य शेख' अबू बकर अल बगदादी दुनिया के लिए क्रूरता का नया पर्याय है। सुन्नी समुदाय के अलावा बाकी लोग, चाहे वे मुसलमान ही क्यों न हों, इन लोगों के लिए 'धरती का कचरा' हैं और इनकी हत्याओं के लोमहर्षक वीडियो प्रसारित करना इनका पसंदीदा प्रचार। नरसंहार करती बगदादी की इन टोलियों ने मजहबी आतंकवाद पर ही नहीं बल्कि पूरी इस्लामी व्यवस्था पर सवाल खड़ा कर दिया है। दुनिया भर में अलग शरिया कानून के आग्रहियों और एक-दूसरे को बर्दाश्त न करने वाली हिंसक मानसिकता पर प्रश्न उठ रहे हैं। क्या शिया इंसान नहीं हैं? क्या अहमदिया इंसान नहीं हैं? क्या इस्लामी राष्ट्रों में नारकीय जीवन जी रहे धार्मिक अल्पसंख्यक इंसान नहीं हैं? क्या सब एक ही ईश्वर की रचना नहीं हैं? इन सब सवालों के हल विश्व समुदाय को मिल कर ढूंढने होंगे। इस्लाम के भीतर अपनी-अपनी मान्यताओं का झंडा उठाए और विरोधियों के सिर काटते गिरोह आज पूरे विश्व को साफ-साफ दिख रहे हैं। इस्लामी आतंकवाद आज दुनिया की साझी चिंता है। उइगुर, उज्बेक, अफगानिस्तानी, पाकिस्तानी, केन्याई, लेबनानी और नाइजीरियाई आतंकियों में कुछ समान है तो इस्लाम के प्रति पागलपन। यह पागलपन दुनिया को कहां लेकर जाएगा और इसे कब तक सहन करना है, यह पूरी दुनिया के लिए मिल-बैठकर तय करने वाली बात है। भूमंडलीकरण के दौर में बेहतर तरीके से संवाद करती संगठित दुनिया के कैलेंडर में इराक का ताजा घटनाक्रम वह बिन्दु है जहां स्वयं मुसलमानों को भी इस्लाम के उस रूप को तलाशना होगा जहां दूसरों की भी 'स्वीकार्यता' हो अन्यथा बड़ी बात नहीं कि आतंकियों द्वारा बारूद के धमाकों से परिभाषित किया जा रहा मजहब विश्व की संगठित शक्ति द्वारा खारिज कर दिया जाए। दरअसल, मजहब को सत्ता के साथ गड्डमड्ड करने का दुराग्रह ही इस्लाम के अनुयायियों की फांस बन गया है। मजहब के नाम पर नृशंसता को प्रचारित करते हुए जिस तरह बगदादी सत्ता की ओर बढ़ रहा है वह मुसलमानों के लिए नई बात नहीं है। खुद को इस्लाम की तलवार कहने वाले तैमूर लंग और बर्बरता को ही पहचान मानने वाले औरंगजेब और चंगेज खान जैसे लोग उन्माद की इसी राह पर चले थे। यह बात भी सच है कि इतिहास के ऐसे 'जंगली हत्यारे' आज भी कट्टरपंथियों के आदर्श हैं। वैसे, गलत आदर्श चुनने और ईश्वर की बनाई सृष्टि की विविधता नष्ट करते हुए फलने-फूलने का सपना देखने वाली इस सोच में निश्चित ही कुछ ऐसी आधारभूत खामियां हैं जो सबसे पहले इसके अनुयायियों को लीलती रही हैं। बहरहाल, सनातन भारतीय मान्यता है कि दूसरों को दुख पहुंचाकर आप कभी सुखी नहीं रह सकते। हर जीव में एक ब्रह्म देखने वाली सोच ही सनातन भारतीय संस्कृति है। मनुष्यों में भेद करने वाली कबायली सोच मनुष्यता के लिए कैसी है और मौजूदा संदर्भ में सनातन भारतीय संस्कृति से क्या मानवता के त्राण की कोई राह निकल सकती है, इसका फैसला अब दुनिया को करना है।
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