आपातकाल - जैसा मैंने देखा, भोगा, समझा
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आपातकाल – जैसा मैंने देखा, भोगा, समझा

by
Jun 21, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 21 Jun 2014 17:36:04

पिछले महीने 16 मई को जब लोकसभा के 2014 के चुनाव परिणाम टेलीविजन चैनलों पर आने लगे तो मेरी आंखों के सामने 24 मार्च, 1977 का वह दृश्य आ गया जब 25 जून, 1975 से उन्नीस महीने लम्बे आपातकाल के घटाटोप अंधेरे को भेदकर इंदिरा गांधी पर जनता पार्टी का विजय सूर्य भारत के आकाश में चमका। वही जनोल्लास, वही नारेबाजी, वही ढोल-मंजीरे और विजयोन्माद का प्रदर्शन। उस समय भी इमरजेंसी के दमघोंटू उत्पीड़क वातावरण से ऊबी जनता ने सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी को पराजय के कूड़ेदान में फेंक दिया था, उत्तर भारत में पूरब से परिचम तक इंदिरा कांग्रेस का एक भी प्रत्याशी जीत का मुंह नहीं देख पाया था, इंदिरा गांधी और उनका पुत्र संजय गांधी दोनों पराजय की धूल चाट रहे थे। स्वाधीन भारत में 30 साल बाद पहली बार केन्द्र में सत्ता परिवर्तन का चमत्कार घटित हुआ था। विपक्ष के सर्वोत्तम नेता चुनकर लोकसभा और सरकार में पहुंच गये थे। जिन लोकनायक जयप्रकाश के कंधों पर सवार होकर वे सत्ता में पहुंचे थे, उन्होंने दल और वोट की राजनीति का विकल्प ढूंढने के लिए सम्पूर्ण क्रांति का जो सपना दिया था, उसे साकार करने का समय अब आ पहुंचा था, किंतु ढाई वर्ष में ही वह सपना चूर-चूर हो गया। आपातकाल की अग्निपरीक्षा से तप कर निकले नेताओं ने सत्ता के लिए आपस में लड़-झगड़कर लोकनायक को किनारे धकेल कर अप्रासंगिक बना दिया और इंदिरा गांधी की वापसी का रास्ता साफ कर दिया। 1980 के चुनावों में इंदिरा गांधी की वापसी का वर्णन करते हुए 13 जनवरी, 1980 को पाञ्चजन्य में जो मेरा लेख छपा था उसको शीर्षक मिला था, 'जाग्रत मतदाता के उखड़ते विश्वास की लाचार खोज।' इंदिरा गांधी की वापसी के पीछे मतदाता की मानसिकता का इससे सटीक चित्रण और क्या हो सकता था?
लोकसभा के ताजा चुनाव परिणामों ने पुन: आपातकाल के इतिहास की यादों को ताजा करने की स्थिति पैदा की है। इंदिरा कांग्रेस की वारिस सोनिया कांग्रेस 206 सीटों से 44 सीटों पर सिमटकर विपक्ष कहलाने की स्थिति में भी नहीं बची है। पर इंदिरा और संजय की पराजय के उलट इस बार केवल सोनिया और राहुल अपनी सीटें बचा पाये हैं। अनेक राज्यों में सोनिया-कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिल पायी है। उनकी पराजय पर जनोल्लास का प्रदर्शन उस समय के उन्माद बिंदु पर पहुंच गया है, लम्बे अंतराल के बाद किसी राष्ट्रीय दल को पूर्ण बहुमत मिलने का चमत्कार घटित हुआ है। 'अब अच्छे दिन आने वाले हैं' का राग सब ओर गूंज रहा है, किंतु क्या इस बार भी मतदाता ठगा जाएगा? इन प्रश्नों के उत्तर पर पहुंचने के लिए इमरजेंसी के इतिहास का पुनरावलोकन उपयोगी हो सकता है।
मेरे पुराने कागजों में उस कालखंड की अनेक स्मृतियां सुरक्षित हैं। 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लागू करने की तैयारी शुरू की और 26 जून की आधी रात में राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली के हस्ताक्षरों से उसकी घोषणा कर दी। चारों ओर सन्नाटा छा गया, हरेक चेहरे पर भय मंडराने लगा। देशभर में लोकतंत्र प्रेमी घबरा गये। मेरा छोटा भाई योगेन्द्र बम्बई में रहता था। उसने तुरंत एक घबराहट भरा पत्र मुझे लिखा। मैंने 30 जून को उस पत्र का जो उत्तर भेजा उसकी कुछ पंक्तियां यहां उद्धृत कर रहा हूं।
'25 तारीख से जो घटनाचक्र प्रारंभ हुआ है, वह ऊपर से अत्यधिक चिंताजनक होते हुए भी शुभ संभावनाओं से भरा हुआ है। मेरी दृष्टि में यह राष्ट्र के कायाकल्प का श्रीगणेश है। विगत 27 वर्षों से हमारा सम्पूर्ण सार्वजनिक जीवन चुनाव राजनीति के हलचल में बुरी तरह फंस गया है। राजनीति का एकमेव लक्ष्य येन केन प्रकारेण वोट हड़पकर सत्ता पर अधिकार जमाना हो गया था। इस चुनाव राजनीति के गर्भ से ही इन 27 वर्षों में एक भ्रष्ट समाजजीवन, पूर्णतया अवसरवादी एवं भ्रष्ट नेतृत्व तथा राष्ट्रीय एकता को दुर्बल करने वाली संकुचित निष्ठाओं का जन्म एवं पोषण हुआ था। इस देश का पढ़ा-लिखा वर्ग केवल अखबार को पढ़कर और चाय के प्यालों पर गर्मागर्म बहस करके ही राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता था। फलस्वरूप नि:स्वार्थ राष्ट्र सेवा, श्रेष्ठ जीवन मूल्यों के प्रति अडिग निष्ठा और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आदर्शों पर डटे रहने तथा उनके लिए उत्सर्ग करने की दिव्य चेतना का सर्वथा लोप सा हो गया दीखता था।
'बहुत समय से मेरी जैसी विचारशैली के लोग इस सड़े-गले पर विध्वंसक प्रहार की कामना कर रहे थे। अत: मैं 25 जून की दुर्घटना को भारत की शाश्वत नियति की प्रेरणा समझता हूं। श्रीमती इंदिरा गांधी निरंकुश व्यक्तिगत सत्ता के लोभ में फंसकर अनजाने में ही क्यों न हो, नियति के हाथ का खिलौना बन गयी हैं।
'अब इसके बाद राष्ट्र के सार्वजनिक जीवन के शुद्धिकरण की प्रक्रिया आरंभ होगी। एक ओर श्रीमती इंदिरा गांधी सत्ता पर अपनी जकड़ को मजबूत करने के लिए विरोध के स्वर को पूरी तरह दबाने की लालसा से तेजी से अधिकानायकवादी उपाय अपनाएंगी। सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने एवं पर्सनेलिटी कल्ट को बनाये रखने के लिए आर्थिक एवं सुरक्षा के मोर्चे पर कुछ चमत्कार दिखाने का प्रयत्न करेंगी। दूसरी ओर राष्ट्र के कतिपय श्रेष्ठ अंत:करण, जिन्होंने अब तक स्वाधीन वातावरण में सांस ली है, इस घुटन के वातावरण से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाएंगे। अब पुरानी कार्यशैली और उस कार्यशैली के अभ्यस्त नेतृत्व से काम नहीं चलेगा। नयी कार्यशैली का आविष्कार करने वाला नया नेतृत्व उभरेगा। किंतु यह प्रक्रिया लम्बी चलेगी। एक ओर रात्रि का अंधेरा और गहन होगा दूसरी ओर उसी घनीभूत अंधेरे के गर्भ में नए उषाकाल की लालिमा की झलक भी दिखेगी। अब जो संघर्ष होगा उसका उद्देश्य सत्ता प्राप्ति न होकर लोकतांत्रिक मूल्यों एवं श्रेष्ठ मानव-मूल्यों की रक्षा करना होगा। इस लम्बे संघर्ष और त्याग की अग्निपरीक्षा में से गुजर कर आने वाला नेतृत्व ही भावी महान भारत की आधारशिला बनेगा। मेरी दृष्टि में यह एक युग की मृत्यु और नये युग के जन्म का संकेत है।
'उस नये युग के जन्म के पूर्व राष्ट्र को भीषण प्रसव वेदना से गुजरना ही होगा। आखिर, स्वार्थ और भ्रष्टाचार के पंक में डूबे सुविधाजीवी समाज को अपने अब तक के पापों का कुछ तो मूल्य चुकाना ही चाहिए। मैं इंदिरा गांधी को भी उनके पापों के लिए क्षमा नहीं करना चाहता, किंतु छोटे पापियों का उत्पीड़न एक बड़े पापी के हाथों होने से मुझे विशेष दुख नहीं हो रहा। इंदिरा गांधी की वर्तमान भूमिका को मैं इतिहास की आंखों से देखने का प्रयत्न करूं तो मुझे लगता है कि जिस प्रकार राम का जन्म होने के लिए उनसे पहले सर्वविजयी रावण का जन्म होना आवश्यक था, कृष्ण के जन्म की भूमिका बनाने के लिए कंस का निरंकुश व अत्याचारी होना आवश्यक था, शिवाजी की महत्ता का बोध कराने के लिए औरंगजेब का अस्तित्व आवश्यक था, उसी प्रकार भारत के भावी उद्धारक को प्रगट करने के लिए सत्तालोलुप इंदिरा जी का अधिनायकवाद के पथ पर बढ़ना आवश्यक है। इसलिए वे मेरी ओर से धन्यवाद की पात्र हैं। जबसे वे इस रास्ते पर चली हैं मैं मन ही मन बहुत प्रसन्न हूं। मुझे लगने लगा है कि स्वाधीन भारत स्वाधीनता-संग्राम की मूल प्रेरणाओं से सम्बंध विच्छेद हो जाने के कारण अपने लिए निर्धारित जिस ध्येयपथ से भटक गया था, अब इस भारी उथल-पुथल और विकट संघर्ष से गुजरकर वह उसी ध्येयपथ को पकड़ लेगा।….'
इमरजेंसी पर मेरी पहली प्रतिक्रिया का यह दस्तावेजी प्रमाण है। मेरी सोच उस समय भी समाज की सामान्य प्रतिक्रिया से बहुत भिन्न थी। इसलिए पत्र के अंत में मैंने भाई को मेरे पत्र को सुरक्षित रखने का निर्देश दिया जिस कारण वह मूल पत्र इस समय भी मेरे पास है। इरमजेंसी को भिन्न दृष्टि से देखने पर भी मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापकों की व्यापक धरपकड़ में तिहाड़ जेल में पहुंच ही गया। जिसका विवरण साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 7 जून, 1977 के अंक में 'तिहाड़ जेल में प्रोफेसर बैरक' शीर्षक से छपा है। जेल में दिल्ली विश्वविद्यालय के लगभग 80 अध्यापकों के साथ रहने पर उच्च शिक्षा प्राप्त मध्यम वर्ग की मानसिकता को देखने-समझने का पूर्ण अवसर मिला।

जेल से बाहर आने पर नवम्बर, 1975 में विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माता स्व. श्री एकनाथ रानडे के साथ लम्बी चर्चाओं के बाद आपातकाल की कारण मीमांसा का एक विस्तृत आलेख तैयार किया, जिसका केवल एक अंश मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।'25 जून 1975 की रात्रि से जो प्रक्रिया भारत के राष्ट्र जीवन में आरंभ हुई है, उसका तात्कालिक संघ की भावनाओं से ऊपर उठकर पूर्वाग्रह रहित वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन अत्यावश्यक है। इस प्रक्रिया में कितना शुभ है, कितना अशुभ? इस परिस्थिति को जन्म देने वाले तात्कालिक एवं दीर्घकालिक कारण क्या हैं? 25 जून के पूर्व विपक्ष की शक्ति का जो विराट स्वरूप दिखायी दे रहा था वह अचानक क्यों विलुप्त हो गया?'
ये प्रश्न उठाकर आलेख में उनका उत्तर खोजने की दृष्टि से सूत्र रूप में लिखा है:
1- 25 जून के पूर्व विपक्ष की शक्ति का विराट रूप
क- जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी एवं मोरारजी देसाई के रूप में अत्यंत लोकप्रिय व्यक्तित्वों का उदय
ख- जयप्रकाश जी के नेतृत्व में शक्तिशाली जनांदोलन का सूत्रपात गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली के दृश्य।
ग- विपक्षी दलों के संयुक्त मोर्चे का जन्म
घ- लाइसेंस कोड एवं ललित नारायण मिश्रा की हत्या
च- गुजरात के चुनाव परिणाम, छात्र आंदोलन
छ- 12 जून को प्रयाग उच्च न्यायालय का इंदिरा के विरुद्ध निर्णय
ज- इंदिरा की व्यक्तिपूजा का तेजी से ह्रास
झ- मारुति घोटाले आदि का भय
त- प्रमुख समाचार पत्रों का सरकार विरोधी एवं जनांदोलन समर्थक स्वरूप
थ- रैना की पदोन्नति से सेना में असंतोष
द- सरकारी कर्मचारियों द्वारा 18 जून को प्रधानमंत्री की रैली का बहिष्कार
ढ- कांग्रेस में चन्द्रशेखर,मोहन धारिया आदि के द्वारा विरोध का मुखरित एवं संगठित होना।
ट- विपक्ष द्वारा 29 जून से आंदोलन को आरंभ करने की घोषणा
2- किंतु 26 जून को आपात् स्थिति की घोषणा के साथ-साथ सरकारी दमनचक्र प्रारंभ होते हुए सब उद्वेलन शांत हो गया और हमारी राजनीति का खोखलापन उघड़कर सामने आ गया।
1- प्रेस, प्लेटफार्म और पार्लियामेंट छिन जाने पर विपक्षी दल पंगु स्थिति में पहुंचे गये।
2- उनमें आंतरिक विघटन व किंकर्तव्य विमूढ़ता एवं पत्रकारों की नपुंसक प्रतिक्रिया।
3- सत्तारूढ़ दल के सभी धुरंधरों को मानों लकवा मार गया। इंदिरा स्तुति एवं संजय गान की होड़ आरंभ हो गयी।
4- सामान्य समाज इस सम्पूर्ण स्थिति के प्रति पूर्णतया उदासीन एवं भयभीत लगा। इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश जी को कार में बैठाकर दिल्ली की सड़कों पर घुमाया तो वे सब ओर निस्तब्धता देखकर बहुत दुखी हुए।
5- सर्वत्र उच्छृंखलता एवं प्रतिरोध के स्थान पर भयजनित अनुशासन एवं चापलूसी का वातावरण।
ऐसा क्यों हुआ? इसकी तुलना जरा स्वाधीनता पूर्व के वातावरण से करें। बंग-भंग तथा जलियांवाला बाग नरमेध की प्रतिक्रिया कितनी त्वरित स्वयंस्फूर्त्त एवं व्यापक थी। स्वाधीनता के 28 वर्षों में निर्मित समाज जीवन के इस खोखलेपन का कारण क्या है, उसकी जड़ कहां है? यह स्वाभिमान शून्य, अनैतिक एवं कायर समाज-जीवन क्यों है?'
यदि इमरजेंसी के विरुद्ध जनसंघर्ष समिति आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी पूरी शक्ति के साथ कूद न पड़ा होता तो विपक्ष का राजनीतिक नेतृत्व इंदिरा के सामने आत्मसमर्पण की मन:स्थिति में पहुंच चुका था।
24 मार्च, 1977 को दिल्ली के रामलीला मैदान पर आयोजित विशाल विजय रैली में मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, जगजीवन राम और चरण सिंह की जय-जयकार के नारे लग रहे थे तो आचार्य कृपलानी ने दो टूक शब्दों में कहा था, 'इन मिट्टी के पुतलों की जय-जयकार मत करो। ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने इंदिरा के दिमाग में चुनाव कराने का विचार रख दिया। वह न होता तो ये कहां होते और तुम कहां होते, इसका विचार करो।'
यह मेरे मन की बात थी। 30 मार्च को मैंने भूमिगत संघर्ष के एक केन्द्र-बिन्दु स्व. बापूराव मोघे को एक लिखित प्रतिक्रिया दी, जिसमें लिखा कि मुख्य संकट राजनीतिक प्रणाली और उसमें से उपजी राजनीतिक संस्कृति का है। केन्द्र में सत्ता परिवर्तन का चमत्कार तो घटित हुआ है पर राजनीतिक संस्कृति जहां की तहां है। चरित्र परिवर्तन की प्रक्रिया के असमय गर्भपात के रूप में इसे देखा जाना चाहिए। नेताओं की व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा का टकराव हमें कहां ले जाएगा, यह कहना कठिन है। यह आलेख बहुत लम्बा है और मेरे पास सुरक्षित है। 1977 से अब तक की यात्रा की पुनर्समीक्षा आवश्यक है। इस परिप्रेक्ष्य में वर्तमान वातावरण और स्थिति का भी शांत मस्तिष्क से विश्लेषण उपयोगी रहेगा। – देवेन्द्र स्वरूप

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