….और इंदिरा सरकार परास्त हुई .
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आपातकाल में 44965 बंदी बनाए गए, इसम्खों 35310 संघ तथा आनुषंागिक संगठनों के कार्यकर्त्ता थे।
मीसा,डी.आई.आर. के अंतर्गत 3015 लोग कैद किए गए थे, इसमें 16383 संघ तथा आनुषंागिक संगठनों के कार्यकर्त्ता थे।
25 जून, 1975 की अर्धरात्रि को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी तथा अन्य कई सांसद एक संसदीय समिति की बैठक में भाग लेने बंगलौर गये हुए थे। उन्हें वहीं पर नजरबन्द कर लिया गया। उन दिनों मैं टाइम्स ऑफ इण्डिया की साप्ताहिक पत्रिका दिनमान के सम्पादक रघुवीर सहाय के सहायक के रूप में कार्यरत था। पूर्वी दिल्ली की एक कॉलोनी कृष्णनगर में रहता था। राष्द्रीय स्वयंसेवक संघ के मण्डल कार्यवाह की जि़म्मेदारी भी निभा रहा था। 1973 में आडवाणी जी जब भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने तो उन्होंने मुझे अपने सहायक के रूप में रख लिया। अपने सम्पादक से अनुमति ले कर मैं उनके निवास 1/6 पंडारा पार्क सुबह 2-3 घंटे के लिए जाने लगा।
आपातकाल की घोषणा के ठीक 5 महीने बाद 25 नवंबर 1975 की रात के अंतिम प्रहर में मेरे मकान के गेट पर दस्तक हुई। गेट के बाहर कुछ वर्दीधारी और कुछ सादे वेष में पुलिस के जवान खड़े थे। अंदर आने के बाद पुलिस वालों की नजर पीछे के गेट पर पड़ी तो वे समझ गये कि जिसे लेने आए हैं वह पीछे से भाग गया। जब मैं वापस आऊंगा तब पकड़ लेंगे, संभवत: यह सोच कर पुलिस वालों ने मकान के आगे और पीछे डेरा डाल दिया। लेंकिन घंटों सैर करने के बाद मैं अपने एक कांगे्रसी मित्र के घर चला गया। घर आने की ग़लती नहीं की। वहीं से मैंने दिनमान सम्पादक रघुवीर सहाय को फ़ोन किया और घटना की जानकारी दी। कुछ समय बाद उन्होंने बताया कि मेरे नाम से तो 'मीसा' वारंट कटा है। जिन कपड़ों में मैं भोर में घर से निकला था उन्हीं में दिनमान कार्यालय पहुंचा। रघुवीर सहाय ने कहा,'आप को यहां नहीं आना चाहिए था। आप के कारण हम लोगों पर भी संकट आ सकता है।' इस बीच मेरे पास दो सन्देश आये। एक दिनमान के हमारे सहयोगी सुरेश सिंह का, दूसरा एक भूमिगत संघ कार्यकर्ता का। संघ के अधिकारियों का आदेश था कि जहां तक हो सके पुलिस की पकड़ से बचो। बाहर रह कर काम करने और जरूरत पड़ने पर जेल भरो आन्दोलन के अन्तर्गत स्वयंसेवकों के जत्थों का नेतृत्व करने वालों की कमी है। मैं सुरेश सिंह के परिवार के साथ रहने लगा। दिनमान के विशेष संवाददाता श्रीकांत वर्मा इन्दिरा गांधी के सलाहकारों में से एक थे। उन्होंने मुझसे कहा,'आप इन्दिराजी के नाम एक चिट्ठी लिख कर मुझे दे दें, मैं आप को जेल जाने से बचा लूंगा। चिट्ठी में लिखिए कि संघ और जनसंघ में आप स्वेच्छा से नहीं गये थे। आप को रघुवीर सहाय ने भेजा था।' उनकी बार-बार की सलाह की मैंने उपेक्षा कर दी।
मैं वाराणसी स्थित अपने गांव में एक से दूसरे रिश्तेदार के यहां जाता रहा। कुछ दिन बाद दिल्ली आ गया। एक दिन मैं साइकिल से जा रहा था। कैरियर पर गुप्त साहित्य का बंडल बंधा था। थैले के अन्दर छिपा कर रखने से किसी को भी शक हो सकता था। मैंने देखा कुछ दूरी पर पुलिस की एक जीप खड़ी है। कुछ पुलिस वाले साथ खड़े हैं। मैंने यह सोचकर कि सुनसान सड़क पर मुझ अकेले यात्री को वे अपनी ओर बुला सकते हंै, तब मेरे चेहरे के हावभाव भेद खोल सकते हैं, मैंने पटरी बदल ली और उनके पास से होता हुआ आगे निकल गया। किसी को कोई शंका नहीं हुई।
संघ द्वारा प्रकाशित गुप्त साहित्य का वितरण करने के अतिरिक्त मैं अधिकारियों के निर्देश पर अपने क्षेत्र के सम्पन्न व्यक्तियों से मासिक चन्दा इकट्ठा कर के झंडेवाला भिजवाता था। जिस परिवार के मुखिया जेल चले गये थे और कमाने वाला कोई नहीं था उस परिवार की आर्थिक सहायता संघ द्वारा की जाती थी। संघ शाखाएं तो बन्द थीं लेकिन आपस में मिलने-जुलने और विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए संघ की प्रेरणा से साप्ताहिक भजन-कीर्तन और सुन्दरकांड पाठ का आयोजन भी किया जाता था। मेरे मन में विचार आया कि हमें खुले मैदान में यह काम करना चाहिए। कई स्वयंसेवकों से बात की। लेकिन साथ देने के लिए कोई तैयार नहीं था। एक दिन मैंने एक गैर स्वयंसेवक को साथ ले कर एक खाली प्लॉट में नेट लगाया और बैडमिंटन खेलने लगा। कुछ खेल देखने वाले वहां आने लगे, कुछ ने साथ खेलने की इच्छा व्यक्त की। हमें देख कर स्वयंसेवकों का भी हौसला बढ़ने लगा। बैडमिंटन की जगह वालीबाल का नेट लग गया। हम खेलते और थक जाने का बहाना बना कर बैठ जाते और जानकारियों का आदान-प्रदान करते।
धीरे-धीरे संघ के अधिकारियों द्वारा गुप्त रूप से बैठकों का भी आयोजन किया जाने लगा। मंडल कार्यवाह होने के कारण बैठक स्थल पर स्वयंसेवकों को लाने की जि़म्मेदारी मेरी थी। बैठक की तिथि और स्थल की जानकारी केवल मुझे होती थी। स्वयंसेवकों को मैं किसी पानवाले या चायवाले की दुकान पर बुलवाता था। वहीं से उन्हें चुपचाप बैठक स्थल की ओर ले जाता था। उन्हें यह भी बता देता था कि उन्हें अपने वाहन बैठक स्थल से कुछ दूर और अलग-अलग रखने हैं ताकि किसी को शक न हो। हमारी बैठकें अधिकतर विभाग प्रचारक विश्वनाथजी लिया करते थे। एक बार उन्होंने हमें समझाया,'शस्त्रों से हम सरकार से जीत नहीं पायेंगे। हमारी जीत होगी नर्व्स की लड़ाई में।' और वही हुआ। इन्दिरा गांधी को लगा कि जनता बुरी तरह आतंकित हो चुकी है। ऐसे में चुनाव करवाये जायें तो भारी बहुमत से उनकी जीत होगी।
आपातकाल समाप्त करने की घोषणा कर दी गयी। कुछ दिन बाद चुनाव करवाये गये। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट हो गयीं और जनता पार्टी का गठन हुआ। रामलीला मैदान में जुटी अपार भीड़ को देख कर ही लग रहा था कि अब दिल्ली दूर नहीं। इन्दिरा गांधी को आपातकाल लगाने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उनकी पार्टी चुनाव में बुरी तरह परास्त हुई और लोकतंत्र की जय-जयकार से पूरा देश गूंज उठा। विश्वंभर श्रीवास्तव
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