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राजधानी में अल्ताफ हुसैन से दिल्ली में 2004 में मुलाकात हुई थी। वे एक मीडिया संस्थान की तरफ से आयोजित सम्मेलन में भाग लेने आए थे। उनकी वह पहली यात्रा थी। उसके बाद वे कभी भारत नहीं आए। उनके साथ उनके बहुत से साथी भी आए थे। सम्मेलन का फोकस भारत-पाक रिश्ते था। काला चश्मा पहने हुए अल्ताफ हुसैन खासमखास लोगों के बीच में भी कुछ हटकर लग रहे थे। हम तुरंत उनके पास पहुंचे,अपना परिचय दिया। बड़ी ही गर्मजोशी से उन्होंने हमें अपने पास बैठने के लिए कहा। गुफ्तुगू का सिलसिला चालू होने से पहले उन्होंने बैंसन एंड हेजेस सिगरेट का पैकेट जेब से निकाला। बातचीत शुरू होते कहने लगे, यार, मैं आपसे दूर कहां हूं। यूपी वाला हूं। आगरा से हूं। मेरे ना मालूम कितने पुरखे-अपने करीबी आगरा की मिट्टी में दफन हैं। वालिद साहब रेलवे में थे। राजा की मंडी में घर था। शायद ही कोई दिन गुजरता हो जब यूपी या आगरा का घर में जिक्र ना होता हो। अभी 50-60 साल पहले तो सरहद के उस पार चले गए थे। इतने कम समय में आपको लगता है कि मैं अपने पुरखों की जड़ों से दूर हो जाऊंगा। दादा मोहम्मद रमजान आगरा के प्रमुख मुफ्ती थे।
1980 में अल्ताफ ने पाकिस्तान में एमक्यएम पार्टी की स्थापना की। पार्टी का कराची के शहरी इलाके के साथ ही सिंध और हैदराबाद इलाके में मजबूत जनमत है। पाकिस्ताीन की नेशनल एसेंबली में एमक्यू एम चौथी बड़ी पार्टी है। मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट पार्टी कई वजहों से देश में बदनाम भी है। मसलन पार्टी पर यह आरोप लगते रहे हैं कि उसके कई नेता नशीली दवाओं का धंधा करते हैं और जमीनों पर अवैध तरीके से कब्जा भी करते हैं। इतना ही नहीं अवैध हथियारों की तस्करी में भी पार्टी का नाम आता रहा है। कहा जाता है कि एमक्यू एम पार्टी कराची में ड्रग इकोनमी चलाती है। अपने ऊपर लगने वाले आरोपों के जवाब में उन्होंने कहा था कि एक तो पंजाबी और सिंधी मुसलमान हमें मारते हैं और जरूरत पड़ने पर हमारे ऊपर गंभीर आरोप भी लगाने से बाज नहीं आते।
अल्ताफ हुसैन पर अपनी ही पार्टी के एक नेता इमरान फारूक की हत्या में शामिल होने का आरोप भी है। उन पर यह आरोप भी लगता रहा है कि वो फोन के जरिए अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को लंदन से संबोधित करते रहते हैं और कराची शहर में उनकी मजबूती का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लंदन में गिरफ्तारी की खबर आते ही कराची में बंद की घोषणा कर दी गई।
बहरहाल,उनके पास भी है भारत-पाक के संबंधों को सुधारने का नुक्शा। हमने उनसे पूछा कैसे सुधरे भारत-पाक के संबंध ?अल्ताफ साहब बताने लगे कि मेरा तो फोकस रहेगा कि दोनों मुल्कों के आम अवाम को सरहद के आर-पार आवाजाही के लिए दिक्कत ना हो। वे एक-दूसरे के मुल्क में मजे-मजे में आ जा सकें। अगर हम यह कर पाए तो भारत-पाकिस्तान अमन से रह सकेंगे। वे बोलते जा रहे थे। मैं जब दोनों देशों के अवाम के इधर-उधर आवाजाही को आसान करने की बात कर रहा हूं तो मैं बात कर रहा हूं इंडिया के पार्टिशन की वजह से बंटे खानदानों की। उन्हें बंटवारे ने कहीं का नहीं छोड़ा। वे बंटवारे की वजह से नुकसान में रहे। हम मुहाजिरों को पाकिस्तान में दोयम दर्जे का इंसान माना जाता है। अब उनका अंदर का नेता जाग चुका था। वे तकरीर करने के अंदाज में बोल रहे थे। उनकी आवाज तेज हो गई थी। हमने पूछ लिया,' क्या बंटवारा नहीं होना चाहिए था?' अल्ताफ कहने लगे, बिल्कुल नहीं। बंटवारा ना होता तो मुसलमानों की भारत में हैसियत बेहतर होती।
पाकिस्तान के किसी नेता का इस तरह से बातें करना-बताना अच्छा लग रहा था। अब अल्ताफ हुसैन की सिगरेट अपने अंतिम मुकाम पर थी। हमने उनसे आग्रह किया कि लंच के साथ भी इंसाफ कर लेते हैं। तब बात करने का मजा बढ़ जाएगा। उन्हें हमारा प्रस्ताव पसंद आया। हम दोनों अपनी प्लेट्स में पसंदीदा डिशेज रखने लगे। उन्हें दाल दिखी। अरे, ये कौन सी दाल है,उन्होंने होटल स्टाफ से पूछा। उसने बताया, अरहर की दाल है। यह सुनते ही अल्ताफ के चेहरे पर खुशी के भाव आ गए।अरहर की दाल पसंद करता हूं। लंदन में अरहर की दाल खाता हूं। देखते हैं यहां की अरहर की दाल का स्वाद कैसा है।
चलते-चलते उन्होंने बताया था कि उनके परिवार के बहुत से सदस्य 1965 की जंग से पहले कराची आए हुए थे। उनमें दो चाचा-चाचियाँ और उनके बच्चे भी थे। जंग के कारण उनका भारत वापस आना नामुमकिन हो गया। नतीजा यह हुआ कि उनके बहुत से संबंधी चाहकर भी पाकिस्तान में बसने के लिए मजबूर हुए।
– विवेक शुक्ला
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