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भाजपा सरकार पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को नए नजरिए से देखने को तैयार
प्रधानमंत्री के तौर पर अपने शपथ ग्रहण समारोह में नरेन्द्र मोदी ने तमाम पड़ोसी देशों के प्रमुखों को बुलाकर कूटनीतिक तौर पर एक अच्छी पहल की। उन सभी ने कार्यक्रम में शामिल होकर यह जता दिया कि भारत की उनके विदेश नीति की गणनाओं में अब भी खास जगह रखता है,बावजूद इसके कि संप्रग- 2 सरकार ने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में आशा जगाये रखने लायक कुछ खास नहीं छोड़ा था। नवाज शरीफ का भारत आना मीडिया की सुर्खियों पर छाया रहा। वैसे तो सभी सार्क देशों में भारत विरोधी तबका मौजूद है, लेकिन पाकिस्तान में तो भारत विरोध ही खाद-पानी का काम करता है। इसके साथ ही वह मुल्क एक बेहद खतरनाक मोड़ पर खड़ा है,जहां जर्जर अर्थव्यवस्था और भीतरी टूटन के अलावा और कुछ नहीं है। देश में चीन की मदद से सऊदी पैसे से बने परमाणु बम हैं और भारत पर निशाना साधे कई जिहादी गुट हैं।
इसलिए 27 मई को नई दिल्ली मेंं मोदी और शरीफ की मुलाकात पर पूरे भारत की निगाह थी। बैठक के बाद जहां भारत की तरफ से जारी बयान ने पाकिस्तान में जिहादी तंत्र की मौजूदगी के बारे में चिन्ता जाहिर की और मुम्बई हमलों के मुकदमे की धीमी चाल का उल्लेख किया वहीं भारतीय पत्रकारों के सामने शरीफ ने न आतंक पर कुछ बोला और, हैरानी की बात है, न कश्मीर का उल्लेख किया! ये बेशक उस व्यक्ति की ओर से दमदारी भरा रुख था, जिसने भारत आने को लेकर अपने मुल्क में भारी विरोध झेला था,वह भी उन मोदी के लिए, जिसे पाकिस्तान के लोग कुछ ज्यादा ही तिरछी नजरों से देखते हैं। शरीफ भारत के साथ व्यापार के इच्छुक हैं, जिसे मोदी सरकार भी आसानी से किया जा सकने वाला काम बताती है। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या शरीफ अपने मुल्क मंे मौजूद विरोधियों, राजनीतिक नहीं बल्कि सैन्य और आतंकी, को चुप करा पाएंगे?
कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के जुनून और कश्मीर मंे सक्रिय उनके जिहादियों को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे लौटना होगा, क्योंकि परम्परा से भारत-पाक वार्ताएं कश्मीर,कश्मीर और बस कश्मीर के ही ईद-गिर्द ही घूमती रही हैं। वर्ष1947-48 में कश्मीर को हथियाने की शुरुआती कोशिश नाकाम रहने के बाद मसला संयुक्त राष्ट्र में गया, जहां 13 अगस्त 1947 को एक प्रस्ताव पारित हुआ,जिसमें कहा गया था, क) दोनों सेनाएं सघर्षविराम अपनाएं। ऐसा ही किया गया। ख) पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य से पाकिस्तान पीछे हटे। ऐसा करने से पाकिस्तान मुकर गया, और जब पाकिस्तान भारत की तसल्ली जितना पीछे हट जायेगा तब वहां, ग) जम्मू-कश्मीर के लोगों की इच्छा का निर्धारण करने के लिए जनमत संग्रह हो।
पाकिस्तानियों का दिमाग इस कदर पट्टी पढ़ा हुआ है कि प्रस्ताव के लिए उनके मायने जनमत संग्रह रह गए। पहले की दो शतार्ें को पाकिस्तान ने कभी क्रियान्वित ही नहीं किया। इसी लिए पाकिस्तान में एक ऐसी सोच बन गई है, जैसे संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव भारत के नहीं, उनके पक्ष की बात करता है।
पाकिस्तानी सेना के लिए पाकिस्तान की, खासकर भारत विरोधी, विदेश और सुरक्षा नीतियों पर पकड़ बनाये रखने की सबसे बड़ी वजह कश्मीर मुद्दा बन गया और जब 1947,1965 और 1971 में लड़कर कश्मीर कब्जाने की कोशिश नाकाम हो गई तो उन्होंने भारत को 'हजारों जख्मों से छलनी करने' की अपनी नीति पर अमल करना शुरू कर दिया। इसी के चलते 1990 में कश्मीर में उग्रवाद की शुरुआत की और जब पाकिस्तानी मुल्लाओं को उसमें भी कुछ खास हासिल होते नहीं दिखाई दिया तो उन्होंने पूरे भारत में जिहादी गुट पनपाना शुरू कर दिया। इसमें सबसे खूंखार है लश्करे तोयबा, जिसने 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर सबसे बड़ा और सबसे खूनी हमला बोला था। हमले ने 167 मासूम लोगों की जिन्दगी ले ली। पाकिस्तानी आईएसआई उस हमले में किसी भी तरह का हाथ होने से मुकर गई। हमले का साजिशकर्ता लश्कर प्रमुख हाफिज सईद पाकिस्तान में खुला घूमता है और भारत के विरुद्ध जहर उगलता रहता है। आईएसआई से उसका मजबूत नाता है इसलिए मोदी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को हाफिज को जल्दी से सजा देने की मांग करके ठीक ही किया है। लेकिन हाफिज को लेकर पाकिस्तानी अदालतें डरी सहमी लगी रहती हैं ,इसीलिए ऐसा होगा,यह मुश्किल लगता है।
निकट भविष्य में भारत-पाकिस्तान किस दिशा में बढंंे़गे? दोनों देशों में आपसी भरोसे और कमी को लेकर खूब चर्चाएं होती हैं, जो कि हाल-फिलहाल बनी ही रहने वाली हैं। पाकिस्तान के रुख में थोड़ी तब्दीली लाने का एकमात्र तरीका उस पर थोड़ा दबाव बनाना है कि ताकि वह नई दिल्ली की बात सुनने को तैयार हो। कुछ समय से भारत की तरफ से ऐसा कोई दबाव नहीं रहा था। पाकिस्तान पर अभी जिन दो देशों की ज्यादा चलती है,उनमें एक है चीन,जो अपनी सेना के जरिए उसे रणनीतिक मदद देता है। दूसरा है सऊदी अरब, जो अपने पैट्रो डॅालर उस पर निछावर करता है। चीनी भारत को पाकिस्तान को उलझे रहते देखना चाहते हैं और सऊदी इस इलाके में अपने कट्टर वहाबी इस्लाम को बढ़ाना और ईरान को सीमित रखना चाहते हैं। इसलिए भारत पाकिस्तान को काबू करना चाहता है तो नई दिल्ली को पाकिस्तान को कुछ आर्थिक फायदा पहुंचाने के कदमों के साथ ही दूसरे देशों पर वहां से दूर होने का दबाव बनाना पड़ेगा।
सबसे बढ़कर,मोदी सरकार को वे सीमाएं निर्धारित कर लेनी होंगी ,जिनके दायरे में रहने वाले पाकिस्तान के साथ तो भारत व्यवहार करेगा। उन सीमाओं को पार करने के बाद,जैसे कोई बड़ा हमला हो जाए तो, व्यवहार वैसा होगा। पाकिस्तान को ऐसा लगने लगा है कि भारत के पास आतंकी हमलों से आहत होने और उसके बाद अपना गुस्सा जाहिर करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। उसकी यह सोच बदलनी चाहिए। शरीफ को भारत आने का न्योता देकर मोदी ने जता दिया है कि वे पाकिस्तान के संदर्भ में नई नीति अपनाने को तैयार हैं,जिसमें वाशिंगटन से कोई निर्देश नहीं लिए जाएंगे।
– मारूफ रजा, लेखक रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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