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भारत में संपन्न हुआ 16वीं लोकसभा का चुनाव विश्व मीडिया में चर्चा का विषय बना। ऐसा होना स्वाभाविक भी था, क्योंकि भारत जैसे विशाल और संभावनायुक्त देश में विश्व इतिहास का यह सबसे बड़ा चुनाव था, परंतु कुछ वैश्विक मीडिया समूहों, विशेष तौर पर पश्चिमी मीडिया में भारत के इन चुनावों को लेकर एक सुनियोजित अभियान चल रहा था। जर्मन समाचार जगत की कुछ सुर्खियां देखिए –
'एक नस्लवादी है भारत की आशा–हिंदू फंडामेंटलिस्ट मोदी जीत सकते हैं चुनाव'।
इसी प्रकार जर्मन प्रेस एजेंसी ने लिखा – 'एक व्यक्ति ने भारत को बांटा'। पूरी रिपोर्ट में 'हिंदू फंडामेंटलिज्म' पर जोर देकर रा़ स्व़ संघ की विचारधारा की तुलना नाज़ी विचारधारा से की गई थी। लंदन टाइम्स में रॉजर बायज ने भारतवासियों को चेताते हुए कहा, ह्ययदि आपने समय रहते कुछ नहीं किया तो मोदी बड़ी विपत्ति बनने जा रहे हैं।ह्ण ह्यद इनडिपेंडेंटह्ण में संपादक ने नरेंद्र मोदी के संदर्भ में ह्यहिंदू राष्ट्रवाद की दुर्गंधह्ण शब्द का उपयोग किया। प्राय: राजनैतिक एजेंडों से दूर रहने वाले ह्यद इकॉनॉमिस्टह्णने तो बाकायदा आह्वान कर डाला कि ह्यक्या कोई मोदी को रोक सकता है?ह्ण 5 अप्रैल 2014 को छपे इस लेख में राहुल गांधी के बारे में यह तो लिखा गया कि ह्यवे सत्ता चाहते हैं, परंतु संभवत: स्वयं के मन को भी नही जानते।ह्ण पर आगे कांग्रेस सरकार की नाकामियों को गिनाते हुए भारत की जनता को सलाह दी कि उसे योग्य और क्षमतावान मोदी की तुलना में असफल रही कांग्रेस को ही चुनना चाहिए क्योंकि हिंदूवादी मोदी की तुलना में कांग्रेस कम बुरा विकल्प होगा।
इन सारे लेखों का सार यही था मानो 16 मई 2014 को भारत पर बड़ी आफत टूटने जा रही है। एक विरोधाभास देखिए। फ्रेंच राजनीति विज्ञानी क्रिस्टोफे जैफरलॉ ने हाल ही में एक साक्षात्कार में मोदी और भाजपा को भारत के लिए खतरा बताया था। उन्होंने कारण बताया कि वे अल्पसंख्यक आरक्षण का विरोध करते हैं, कॉमन सिविल कोड की बात करते हैं। क्रिस्टोफे ये भूल गए कि उनके देश फ्रांस में सभी मजहबों के लिए एक कानून चलता है। और नौकरी या शिक्षा में कोई कोटा नही होता। फ्रांस में 10 फीसदी मुस्लिम हैं।
प्रश्न ये उठता है, कि सारी दुनिया में स्वयं को ह्यउदारह्ण बताने वाले पश्चिमी मीडिया का एक बड़ा वर्ग मोदी और हिंदुत्व के प्रति इतनी कटुता क्यों रखता है?विचार करने पर अनेक कारक दिखाई पड़ते हैं, जो गलत (भ्रमित) पहचान से लेकर सधी हुई रणनीति तक जाते हैं।
इतिहास और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में पश्चिमी जगत ने केवल सेमेटिक पंथों (ईसाइयत, इस्लाम और यहूदी) को जाना है, जो अपने अनुयायियों को सिखाते हैं कि जब तक दूसरे उनकी उपासना पद्घति को औपचारिक रूप से स्वीकार ना कर लें, अपनाए नहीं जा सकते। वे अपने अनुयायियों को सिखाते हैं कि वे ईश्वर के चुने हुए लोगों में से हैं और शेष मानव अनंतकाल तक नर्क की आग में जलने के लिए हैं। पश्चिम ऐसे लोगों को खतरनाक समझता है। पश्चिम ने चर्च की संस्थागत जकड़ में घुटते समाज को देखा है और उसके खिलाफ संघर्ष कर चर्च को अपनी जकड़ ढीली करने पर मजबूर किया है। इस व्यवस्था को ह्यसेकुलरिज्मह्ण नाम दिया। पश्चिम ने मजहबी अत्याचारों और ह्यक्रूसेडह्ण की सदियां देखी हैं।
इसके विपरीत हिंदू सभ्यता ने उपासना और आस्था को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रूप में मान्यता दी है। सारे मनुष्यों समेत संपूर्ण सृष्टि में ईश्वरीय प्रकाश को देखा है। इसलिए हिंदू जितना आस्थावान होता है, उदार होता जाता है। हिंदू ने विश्वभर के अल्पसंख्यकों, जैसे यहूदियों और पारसियों को संरक्षण दिया है। हिंदू धर्माचार्यों ने कभी राज्य को अपने आदेशों में नही बांधा। फिर भी विडंबना है कि हमारे देश में राजनैतिक स्वाथोंर् की पूर्ति के लिए 1976 में संविधान में सेकुलर शब्द जोड़ा गया। पश्चिम को इन बातों की जानकारी ना होने के कारण भ्रम होता है।
दूसरा कारण वैचारिक और मत आधारित है। आज भी पश्चिम की राजनीति और मीडिया पर चर्च के गुटों का पर्याप्त प्रभाव है। ये गुट ही हैं, जिनके कारण अमरीकी सरकार सारी दुनिया में मजहबी अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर नीतियां बनाती है, जो वास्तव में ईसाई अल्पसंख्यकों को केंद्र में रखकर गढ़ी जाती हैं। जिन ह्यनियमोंह्ण का हवाला देकर नरेंद्र मोदी के अमरीकी वीसा पर बवाल खड़ा किया गया था उन नियमों को लेकर आज भी अमरीकी शासन की कोई स्पष्ट नीति नहीं है, और नरेंद्र मोदी आज तक के इतिहास में इसके एकमात्र शिकार हैं। भारत की तरह पश्चिमी मीडिया में भी वामपंथी झुकाव वाले प्रभावशाली लोगों की एक लंबी सूची है। अमरीका में मोदी विरोधी ह्यक्रूसेडह्ण छेड़ने वाले कांग्रेसमैन कीथ एलीसन ऐसे ही लोगों में से हैं। पश्चिमी मीडिया और बुद्घिजीवी जगत में वामपंथ के प्रभाव पर विश्वास न करने वाले लोगों को छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की मदद के आरोप में पकड़े गए बिनायक सेन का किस्सा याद करना चाहिए, जब सेन को छुड़ाने के लिए बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चला था। हस्ताक्षर करने वालों में कई यूरोपीय नोबल पुरस्कार विजेता भी थे। 2011 में न्यूयार्क के प्रभावशाली व्यक्ति गुलाम नबी फई का पकड़ा जाना, उसका कश्मीर एजेंडा आदि हमें नये दृष्टिकोण से सोचने पर मजबूर करता है।
14 मई 2014 को घटी एक छोटी सी घटना भी इसी सूत्र की कड़ी है, जब भारत के तथाकथित बुद्घिजीवियों के वर्ग ने भारत की तमाम सेकुलर पार्टियों से एक होकर मोदी और भाजपा को सत्ता तक पहुंचने से रोकने को कहा था। इस घटना से वाजपेयी सरकार के समय की यादें ताजा हो गईं, जब भारत के ऐसे ही और इनमें से ही कुछ बुद्घिजीवी, अमरीका और पश्चिमी सरकारों से भारत सरकार की शिकायतें करते घूमते थे। इनमें से अनेक पश्चिमी मीडिया के ह्यसूचना तंत्रह्ण का हिस्सा बने हुए हैं। परंतु पश्चिमी मीडिया को समझना होगा कि ये तथाकथित बुद्घिजीवी भारत के यथार्थ से उतनी ही दूर हैं जितना स्वयं पश्चिमी मीडिया। हिंदू सभ्यता ने उपासना और आस्था को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रूप में मान्यता दी है। हिंदू जितना आस्थावान होता है, उदार होता जाता है। हिंदू धर्माचार्यों ने कभी राज्य को अपने आदेशों में नही बांधा। पश्चिम को इन बातों की जानकारी ना होने के कारण भ्रम होता है।
–प्रशांत बाजपेई
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